Book Title: Aachar Sara
Author(s): Indralal Shastri, Manoharlal Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AR.WAVENE N न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । CROCH माणिकचन्द- दिगम्बर जैन-ग्रन्थमाला । ११ आचारसारः । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द ग्रन्थ-मालाक - - माणिकचन्द-दिगम्बरजैन-ग्रन्थ-मालाका ११ वाँ पुष्प । श्रीमदीरनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवर्तिप्रणीतः आचारसार । L जयपुरनिवासिपण्डितेन्द्रलालसाहित्यशाविणा। संपादितः पण्डितमनोहरलालशास्त्रिणा च संशोधितः । प्रकाशिकामाणिकचन्द-दि जैनग्रन्थमालासमितिः । मार्गशीर्ष, वीर नि० सं० २४४४ विक्रमाब्द १९७४ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक नाथूरामप्रेमी, मंत्री, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, हीराबाग पो. गिरगांव बम्बई। मुद्रकचिंतामण सखाराम देवळे, मुंबईवैभव प्रेस, सर्व्हट्स् ऑफ इंडिया सोसायटीज बिल्डिंग, गिरगांव-बम्बई. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | इस ग्रन्थक रचयिता आचार्य श्रीवीरनन्दि हैं । इनकी गणना बहुत बड़े विद्वानों में है । ये ' सिद्धांतचक्रवर्ती' पदवीसे विभूषित थे और मूल संघ, पुस्तक गच्छ और देशीय गणके आचार्य थे । इनके गुरुका नाम जैसा कि इस ग्रन्थके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिसे मालूम होगा - मेघचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती था । प्रशस्तिमें और श्रवणबेलगुल के शिलालेखों में इनकी बहुत ही प्रशंसा की हुई है । ४७ नम्बरके शिलालेख के नीचे लिखे तीन श्लोकोंको देखिए: तर्क न्याय सुवज्रवेदिरमलार्हत्सूक्तिसन्मौक्तिकः शब्दग्रंथविशुद्धशंखकलितः स्याद्वादसद्विद्रुमः । व्याख्यानोर्जितपोषण प्रविपुलप्रज्ञोद्धवीचीचयो जीयाद्विश्रुतमेघचन्द्रमुनिपस्त्रैविद्यरत्नाकरः ॥ श्रीमूल संघकृतपुस्तकगच्छदेशीयोद्यद्गणाधिपसुतार्किक चक्रवर्ती । सैद्धान्तिकेश्वर शिखामणिमेघचन्द्रस्त्रैविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति ॥ सिद्धान्ते जिनवीर सेनसदृशाः शास्त्राब्जनीभास्करः षट्तर्केण्वकलंकदेव विबुधः साक्षादयं भूतले । सर्वव्याकरण विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं त्रैविद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीभपंचाननः ॥ इन श्लोकों से मालूम होगा कि ग्रन्थकर्ता के गुरु न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त आदि सभी विषयोंके अपूर्व विद्वान् थे । उनके अनेक शिष्य थे, जिनमेंसे प्रभाचन्द्र और शुभचन्द्र आदि कई प्रधान शिष्योंके स्मृतिलेख श्रवणबेलगुलकी शिलाओं पर खुदे हुए हैं । कर्नाटककविचरित्रसे मालूम होता है कि इन मेघचन्द्रने आचार्य पूज्यपाद के समाधितंत्र की एक टीका लिखी हैं और ये अभिनव पंप ( नागचन्द्र ) के गुरु बालचन्द्रके सहाध्यायी थे । मेघचन्द्रकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी : -- गोलाचार्यअभयनन्दि - सोमदेव - सकलचन्द्र और मेघचन्द्र । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) आचार्य वीरनन्दिका मेघचन्द्रके साथ पिता-पुत्रका भी सम्बन्ध था । यथा वैदग्ध्यश्रीवधूटीपतिरतुलगुणालंकृतिमेघचन्द्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वनपातः। सैद्धान्तव्यूहचूडामणिरनुपमचिन्तामणिभूजनानां योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवति महौ वीरनंदी मुनीन्द्रः॥ यह श्लोक इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें भी है और श्रवणबेलगुलके ५० वें शिला. लखमें भी। श्रवणबेलगुलके नं० ४७-५० और ५२ नम्बरके लेखोंसे मालूम होता है कि आचार्य मेधचन्द्रका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ ( वि० संवत् ११७२ ) में और उनके शुभचन्द्र देव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक सं० १०६८ ( वि० १२०३) में हुआ था तथा उनके दूसरे शिष्य प्रभाचन्द्र देवने शक सं० १०४१ (वि० सं० ११७६ ) में एक महापूजा प्रतिष्ठा कराई थी। इससे मालूम होता है कि आचारसारके कर्ता श्रीवीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती इसी समयके लगभग अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दिमें हो गये हैं। __कर्नाटककविचरित्रके कर्त्ताने नागचन्द्र कविका समय वि० सं० ११६२ के लगभग निश्चित किया है और इस कविके गुरु बालचन्द्रको मेघचन्द्रका सहाध्यायी बतलाया है । इससे भी मालूम होता है कि मेघचन्द्रके शिष्य वीरनन्दिका समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दिका उत्तरार्ध ठीक है। _चन्द्रप्रभचरित काव्यके कर्ता महाकवि वीरनन्दि इनसे भिन्न हैं । वे अभय . नन्दिके शिष्य और गुणनन्दिके प्रशिष्य थे। वे हुए भी इनसे पहले हैं। इनके बनाये हुए अन्य किसी ग्रन्थका नाम हमें मालूम नहीं । इस ग्रन्थका सम्पादन और संशोधन केवल एक प्रतिके आधारसे हुआ है जो कि हमें स्वर्गीय विद्याप्रेमी सेठ माणिकचन्द्रजीके चन्द्रप्रभचैत्यालयके सरस्वतीभंडारसे प्राप्त हुई थी । इस प्रतिपर उसके लिखे जानेका समय नहीं लिखा है, तो भी वह कमसे कम २५०-३०० वर्ष पहलेकी लिखी हुई होगी, ऐसा जान पड़ता है। प्रति बहुत शुद्ध है और किसी विद्वानके द्वारा किये गये टिप्पणसहित है। निवेदकनाथूराम प्रेमी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ महाकवि-श्रीवीरनन्दि-प्रणीतः -0000~लक्ष्मी वीरजिनेश्वरः पदनतानंतामराधीश्वरः पद्मासद्मपदांबुजः परमचिल्लीलात्ततत्त्वव्रजः। विद्यानधुदयाचलोऽमितबलः शान्ताखिलैनोमलो दद्यान्नस्त्रिजगन्नतिं गुणमणितातोज्ज्वलालंकृतिम् ॥ १॥ विनेयसस्योत्पलपुण्यवारि प्रस्यन्दनानन्दनमेघचन्द्रः। श्रीवासुपूज्यो व्रतिवंद्यपादो वरप्रदः स्तान्मम योगिवर्गः ॥२॥ संसारनीराकरमुत्तरीतुं तैरिश्चरित्रं गुणरत्नपात्रम् । सद्दर्शनज्ञानसमेतमत त्तत्पक्षलक्ष्माहमिहाऽस्य वक्ष्ये ॥१॥ देहव्यूहमहीजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे विश्वाशांतिकरालकालदहने शुष्यन्मनीषावने । नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे हुङमोहिनां देहिनां जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ॥२॥ १ चिदेव लीला । २ नष्टाखिलपापमलः । ३ नौका । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे कायोऽयं रसरक्तमांसविसरो मेदोऽस्थिमज्जव्रजो बीभत्सो विततांत्यधातुरुदितः शुक्रार्त्तवाभ्यां क्षयी | जीवाश्लेषवशात्तकान्तिरखिलक्लेशैकनीडो जडः संगोऽनेन सतां दुनोति हृदयं मोदोऽत्र लज्जास्पदम् ॥ ३ ॥ चेतस्त्वं किमिति व्रजस्यतितरां भ्रान्तिस्तवात्राऽस्ति किं मोहोत्पादकमिन्द्रजालललिते कान्तैककान्तेऽक्षजे । सौख्यं ते विरसेऽभिमानसर से कान्ताश्च तद्दर्पणप्रोल्लासिप्रतिबिंबडंबरभराः संमोहदाः केवलम् ॥ ४ ॥ मत्त्वैवं भवदेहभोगजनितक्लेशाग्निहृत्प्लोषण स्तच्छान्त्यै प्रगुणस्तदक्षयपदानन्दामृतान्वेषणः । शुश्रूषाश्रवणादिपुण्यधिषणः सद्भव्यताभूषण चार्वी चारु परीक्षितान्यसमयाप्ताचा रसदूषणः ॥ ५ ॥ युक्त्या युक्तं जिनोक्तं जिनवृजिनजिनं दत्तहस्तावलंब जन्मोदन्वन्निमज्जद्गुरुदुरितभरार्त्ताङ्गिनां तद्दयाढ्यम् । धर्म स्वर्मोक्षशर्मप्रदमपि मुदितः प्राप्य दुःप्रापमीशं प्रीत्यै प्रीत्यर्त्तिपापप्रभवभवकरागारचारातिभीरुः ॥ ६ ॥ सन्नार्थं परिपूर्णनिर्मलकलं सल्लक्ष्मलक्ष्मीकुलं दोषासंगमनंगराजविजयं नित्यं सुवृत्तोदयम् । स्वान्तध्वान्तविनाशिनं कुवलयानन्दामृतस्यन्दिनं प्रीत्योपेत्य मुनीन्द्रचन्द्रमपरं तत्पादसेवापरः ॥ ७ ॥ नत्वा तमीशं विनतार्त्तिनाशं विज्ञापितात्मीयमनोगतार्थः । संगानपेक्षां मम देहि दीक्षां दयामयीं भो ! यतिवल्लभेति ॥ ८ ॥ प्राज्ञेन ज्ञातलोकव्यवहृतिमतिना तेन मोहोज्झितेन प्राग्विज्ञातः सुंदेशों द्विजनृपतिवणिग्वर्णवण्यपूर्णः । १ वैचित्यदाः । २ अत्रानुप्रासः । ३ समुद्र । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽधिकारः । भूभृल्लोकाऽविरुद्धः स्वजनपरिजनोन्मोचितो वीतमोहचित्रापस्माररोगाद्यपगत इति च ज्ञातिसंकीर्त्तनाद्यैः ॥ ९ ॥ ततस्तदाज्ञामृतपान पुष्टो निर्बन्धगन्धद्विपवत्प्रहृष्टः । बाह्यान्तरंग परिहृत्य संगं शस्ते मुहूर्ते स्थिरलग्न पूर्ते ॥ १० ॥ प्रीत्या चैत्यगृहादिदक्षिणदिशि क्षोणीतले प्रासुके प्राचीसन्मुखमुत्तरास्यमथवा कृत्वा सरोजासनम् । आसीनश्चिकुरोत्करं भवतां वा दक्षिणावृत्तितः प्रोत्पाद्याविकृतिं जगत्रयनतिं स्वीकृत्य जाताकृतिम् ॥ ११ ॥ प्रदक्षिणीकृत्य जिनेन्द्रगेहे प्रविश्य जैनप्रतिबिंबपार्श्वे । रम्ये स्थले वा व्रतिपाज्ञयैव क्रियां विधायात्तमहाव्रतादिः ॥१२॥ स्थित्वा ततः प्रमुदितो गुरुवामपार्श्वे श्रुत्वा प्रतिक्रमणमीडितयोगिवर्गः । योऽयं जिनोक्तविधिनाऽधिगतागमार्थचारित्रसंपदमुचति तां गुणालीम् ॥ १३ ॥ युक्ताः पंचमहाव्रतैः समितयः पंचाक्षरोधाशयाः C पंचावश्यक षट्कलुञ्चनवराचेलक्यमस्नानता । भूशय्यास्थितिभुक्तिदन्तकपणं चाह्नयेकभक्तं यता वेवं मूलगुणाष्टविंशतिरियं मूलं चरित्रश्रियः ॥ १४ ॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमसङ्गता । महाव्रतानि पंचैव निःशेषावद्यवर्जनात् ॥ १५ ॥ जन्मकायकुलाक्षाद्यैर्ज्ञात्वा सत्त्वततिं श्रुतेः । त्यागस्त्रिशुद्धया हिंसादेः स्थानादौ स्यादहिंसनम् ॥ १६ ॥ रागद्वेषादिजासत्यमुत्सृज्यान्याहितं वचः । सत्यं तत्त्वान्यथोक्तं च वचनं सत्यमुत्तमम् ॥ १७ ॥ बह्वल्पं वा परद्रव्यं ग्रामाद्रौ पतितादिकम् । अदत्तं यत्तदादानवर्जनं स्तेयवर्जनम् ॥ १८ ॥ १ सन्दिग्धोऽयं पाठः । २ प्राप्नोति । ३ नैर्वस्त्र्यं । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे रागलोककथात्यागः सर्वस्त्रीस्थापनादिषु । माताऽनुजा तनूजेति मत्या ब्रह्मव्रतं मतम् ॥ १९॥ चेतनेतरबाह्यांतरंगसंगविवर्जनम् । ज्ञानसंयमसंगो वा निर्ममत्वमसंगता ॥ २० ॥ ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञिकाः। व्रतत्राणाय पंचैताः स्मृताः समितयो यतेः ॥ २१ ॥ पुरो युगान्तरेऽक्षस्य दिने प्रासुकवर्त्मनि ।। सदयस्य सकार्यस्य स्यादीर्यासमितिर्गतिः ॥ २२ ॥ भेदपैशून्यपरुषप्रहासोक्त्यादिवर्जिता। हितमितनिःसन्देहा भाषाभाषासमित्याख्या ॥ २३ ॥ षट्चत्वारिशद्दोषोना प्रासुकान्नादिकस्यया । एषणासमितिभुक्तिः स्वाध्यायध्यानसिद्धये ॥ २४ ॥ ज्ञानोपकरणादीनामादानं स्थापनं च यत् । यत्नेनाऽऽदाननिक्षेपसमितिः करुणा परा ॥ २५॥ दूरगूढविशालाविरुद्धशुद्धमहीतले । उत्सर्गसमितिर्विण्मूत्रादीनां स्याद्विसजनम् ॥ २६ ॥ चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वास्पर्शाक्षगोचरे भिक्षोः। रत्यरतिचित्तवृत्ते रोधः स्यादक्षसंरोधः॥ २७ ॥ चेतनेतरवस्तूनां हर्षमर्षाकरक्रिया। वर्णसंस्थानभेदेषु चक्षुरोधोऽविकारधीः ॥२८॥ जीवाजीवोभयोद्भूते चेतोहारीतरस्वरे। रागद्वेषाविलस्वान्तदण्डनं श्रोत्रदण्डनम् ॥ २९ ॥ प्रकृतिप्रयोगगन्धे जीवाजीवोभयाश्रये। शुभेऽशुभे मनःसाम्यं घ्राणेन्द्रियजयं विदुः॥३०॥ गृहिदत्तेऽन्नपानादावदोषे समतायुतम् । गात्रयात्रानिमित्तं यद्भोजनं रसनाजयः ॥ ३१ ॥ जीवाजीवोभयस्पर्शे कर्कशाद्यष्टभेदके। शभेऽशभेऽतिमध्यस्थं मनः स्पर्शाक्षनिर्जयः॥ ३२ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽधिकारः । आवश्यकक्रियाषट्कं समतास्तववंदनम् । सप्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं कायविसर्जनम् ॥ ३३ ॥ लाभालाभसुखक्लेशप्रमुखे समतामतिः। स्वायत्तकरणस्वान्तज्ञानिनः समता मता ॥ ३४ ॥ कृत्वा गुणगणोत्कीर्तिनामव्युत्पत्तिपूजनम् । वृषभादिजिनाधीशस्तवनं स्तवनं मतम् ॥ ३५ ॥ जैनैकतीर्थकृत्सिद्धसाधूनां क्रिययान्वितम् । वन्दनं स्तुतिमात्रं वा वन्दनं पुण्यनन्दनम् ॥ ३६॥ निन्दनं गर्हणं कृत्वा द्रव्यादिषु कृतागसाम् । शोधनं वाड्मनःकायैस्तत्प्रतिक्रमणं मतम् ॥ ३७॥ यन्नामस्थापनादीनामयोग्यपरिवर्जनम् । त्रिशुद्धयाऽनागते काले तत्प्रत्याख्यानमीरितम् ॥ ३८ ॥ स्तवनादौ तनुत्यागः श्रीमत्पंचगुरुस्मृतिः।। व्युत्सर्गः स्याच्छ्रुतप्रोक्तोच्छासावसरलक्षणः ॥ ३९ ॥ कूर्चश्मश्रुकचोल्लुञ्चो हुँचनं स्यादमी यतः। परीषहजयाऽदैन्यवैराग्यासंगसयमाः॥४०॥ तच्चतुस्त्रिद्विमासेषु सोपवासे विधीयते। जघन्यं मध्यमं ज्येष्ठं सप्रतिक्रमणे दिने ॥४१॥ वल्कलाजिनवस्त्राद्यैरंगासंवरणं वरम् । आचेलक्यमलंकारानंगसंगविवर्जितम् ॥ ४२ ॥ संयमद्वयरक्षार्थ स्नानादेर्वर्जनं मुनेः। जलस्वेदमलालिप्तगात्रस्यास्नानता स्मृता ॥४३॥ प्रसन्नप्रासुकाऽनात्मसंस्कृतेलाशिलादिषु । एकपाद्वेन कोदण्डदण्डशय्या महीशयः॥४४॥ स्वपात्रदातृशुद्धोया स्थित्वा समपदद्वयम् । निरालंबं करद्वन्द्वभोजनं स्थितिभोजनम् ॥४५॥ दशनाघर्षणं पाषाणांगुलीत्वडखादिभिः। स्यादन्ताकर्षणं भोगदेहवैराग्यमन्दिरे ॥४६॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे उदयास्तोभयं त्यक्त्वा त्रिनाडी जनं सकृत् । एकद्वित्रिमुहूर्त स्यादेकभक्तं दिने मुनेः॥४७ ॥ येषां भूषणतां गता गुणगणकावल्यलं निर्मला येयं विश्वनरामरेश्वरमिलिन्दानन्दिपादाम्बुजाः । ते यान्ति श्रमणाग्रगण्यपदवीगण्या वरेण्यं पदं सिद्धिश्रीपरिरंभणामृतसुखास्वादास्पदं योगिनः॥४८॥ प्रोन्निर्यकरनीलरत्नरुचिरोदाराङ्गचेतोहरः पूर्णोदीर्णसदाश्रयान्तरमहाभोगास्पदाशोत्करः। गंभीरास्तसमस्तदोषमधुरध्वानोचदानन्दनः सर्वोर्वीसुखसंपदेऽस्त्वमृतदो नेमिर्धनः पावनः ॥४९॥ इति श्रीवीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिविरचिते श्रीआचारसार नाम्नि शास्त्रे प्रथमोऽधिकारः॥१॥ अथ द्वितीयोऽधिकारः॥२॥ श्रियः पदं सर्वविदः पदाम्बुजं नमन्निलिंपालिमिलिन्दमान्दरम् । सन्मानसोल्लासिनखांशुकेसरं पार्श्वस्य नः स्ताद्वरदं जिनेशिनः॥१॥ तनोति संपदं नीतिर्यद्वत्तद्वद्गणश्रियम्। सपियां या समाचारनीतिःसा कीर्त्यतेऽधुना ॥२॥ समः समानः सं सम्यगाचारो यः समैयुतैः । आचार्यत इति प्राज्ञैः स समाचार ईरितः ॥ ३॥ एष संक्षेपविस्तारद्विभेदो दशभेदगः।। संक्षेपोऽनल्पभेदोऽन्य आदिभेदा इमे दश ॥४॥ इच्छामिथ्यातथाकारेच्छावृत्त्याशीनिषिद्धिका । आप्रच्छन्नं प्रतिप्रश्नश्चानिमंत्रणसंश्रयौ ॥५॥ १ भ्रमरः २ मोक्षं ३ निलिपाः सुराः ४ समाचारस्य व्युत्पत्तिमाह । ___ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽधिकारः । पुस्तकातापयोगादेर्या याचा विनयान्विता । स्वपरार्थे यतीन्द्राणां सेच्छाकारः प्ररूपितः ॥ ६ ॥ यन्मया दुष्कृतं पूर्वं तन्मिथ्याऽस्तु न तत्पुरः । करोमीति मनोवृत्तिर्मिथ्याकारोऽतिनिर्मलः ॥ ७ ॥ तत्त्वाख्यानोपदेशादौ नान्यथा भगवद्वचः । तत्तथेत्यादरेणोक्तिस्तथाकारो गुणाकरः ॥ ८ ॥ पूर्वोत्तानशनातापयोगोपकरणादिषु । सेच्छावृत्तिर्गणीच्छानुवृत्तिर्या विनयास्पदा ॥ ९ ॥ स्थिता वयमियत्कालं यामः क्षेमोदयोऽस्तु ते । इतीष्टाशंसनं व्यंतरादेराशीर्निरुच्यते ॥ १० ॥ जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम् । अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्टयैवेति निषिद्धिका ॥ ११ ॥ प्रवासावसरे कन्दरावासादेर्निषिद्धिका । तस्मान्निर्गमने कार्या स्यादाशीर्वैरहारिणी ॥ १२ ॥ ग्रंथारंभकचोल्लोचकायशुद्धिक्रियादिषु । प्रश्नः सूर्यादिपूज्यानां भवत्याप्रच्छनं मुनौ ॥ १३ ॥ यत्किंचन महत्कार्य कार्य पृष्ट्वा यतीश्वरान् । विनयेन पुनः प्रश्नः प्रतिप्रश्नः प्रकीर्तितः ॥ १४ ॥ पुस्तकादौ पुरा दत्ते नात्मार्थे यन्निवेदनम् । जिघृक्षायां पुनः सूरिप्रमुखेष्वानिमंत्रणम् ॥ १५ ॥ विनयक्षेत्रमार्गाणां संश्रयः सुखदुःखयोः । सूत्रस्य चेत्ययं पंचप्रकारः संश्रयः स्मृतः ॥ १६ ॥ वीक्ष्याऽऽगन्तुकमायांतं यतिमुत्थाय संभ्रमात् । पदानि सप्त गत्वा च कृत्वा तद्योग्यवन्दनम् ॥ १७ ॥ मार्गश्रान्तिमपोह्यासनप्रदानादियत्नतः । त्रिरत्नसुस्थितादीनां प्रश्नो विनयसंश्रयः ॥ १८ ॥ युग्मम् । १ गृहीत २ ग्रहीतुमिच्छायां । 9 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे त्यक्त्वा दुञपमेक्ष्मापं पापं पापिजनाकुलम् । देशं दीक्षोन्मुखापेतं दुर्भिक्षं क्लेशदायकम् ॥ १९ ॥ निर्बाधसस्यवद्यत्र वर्द्धते गुणमण्डलम् । क्षेत्रसंश्रयणं तत्राऽऽवासश्चेतःसुखावहः ॥ २०॥ युग्मम् । आगन्तुकमुनेर्मार्गयानागमनजातयोः । यः सुखासुखयोः प्रश्नः सोऽयं स्यान्मार्गसंश्रयः ॥२१॥ चौरक्रूरगदोशिपीड़िताद्यर्तिवर्तिनाम् । तोषोत्कर्षणमाहारभेषजायतनादिभिः ॥ २२ ॥ स्वात्मार्पणमहं तुभ्यमस्मीति च सुखेऽसुखे। यत्तच्चित्तप्रसादार्थ तत्सुखासुखसंश्रयः ॥ २३ ॥ युग्मम् । पुरा स्वगुरुपादान्ते शास्त्रं श्रुत्वाऽखिलं पुनः। जिज्ञासायां स्वलोकान्यथा ग्रंथातिशये मुनिः ॥२४॥ भक्त्योपेत्य गुरुन्नत्वा युष्मत्पादप्रसादतः। अन्यन्मुनीन्द्रवृन्दं मे द्रष्टुं वाञ्छा प्रवर्तते ॥२५॥ इत्येवं बहुशः स्पृष्ट्वा लब्ध्वाऽनुज्ञां गुरोर्ब्रजेत् । वतिनैकेन वा द्वाभ्यां बहुभिः सह नान्यथा ॥२६॥त्रिकलम् । ज्ञानसंहननस्वांतभावनाबलवन्मुनेः। चिरप्रव्रजितस्यकविहारस्तु मतः श्रुते ॥२७॥ एतद्गुणगणापेतः स्वेच्छाचाररतः पुमान् । यस्तस्यैकाकिता मा भून्मम जातु रिपोरपि ॥२८॥ श्रुतसंतानविच्छित्तिरनवस्था यमक्षयः । आज्ञाभंगश्च दुःकीर्तिस्तीर्थस्य स्याद्गुरोरपि ॥ २९ ॥ अग्नितोयगराजीर्णसर्पकूरादिभिः क्षयः। स्वस्याप्यार्त्तादिकादेकविहारेऽनुचिते यतः॥ ३० ॥ युग्मम् । गत्वातः सूर्युपाध्यायवर्तकस्थविरान्वितम् । गणं गणधरोपेतमुपेयादीदृशाश्च ते ॥ ३१॥ १ मां भुवं न पीताति ' अक्ष्मापस्तम्' २ नृप ३ प्राप्नुयात् । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽधिकारः । संग्रहानुग्रहप्रौढो रूढः श्रुतचरित्रयोः। यः पंचविधमाचारमाचारयति योगिनः॥ ३२ ।। बहिः क्षिप्तमलः सत्त्वगांभीर्यातिप्रसादवान् । गुणरत्नाकरः सोऽयमाचार्योऽवार्यधैर्यवान् ॥३३॥ युग्मम्। संसारज्वरसंतापच्छेदि यद्वचनामृतम् । पीयते भव्यलोकेन प्रीत्या नित्यं स देशकः ॥ ३४॥ प्रभावनाधिकोऽबाधमन्नाद्यैः संघवर्तकः। जगदादेयवाग्मूर्तिवर्तकः कालदेशवित् ॥ ३५ ॥ समयस्थितिसद्गीतिः स्थविरः स्याद्गुणस्थिरः । रणरक्षाक्षमः सूरिर्गुणी गणधरः स्मृतः ॥ ३६॥ तं प्राप्य तद्गणाधीशमभ्यायांतं सहात्मनः। गणेनाऽऽज्ञानतिस्वीकारेच्छावात्सल्यकारणैः ॥ ३७॥ प्रीत्या प्रेक्ष्यातिभक्तया तं प्रणम्य गणमप्यथ । मार्गातिचारनियमं निवान्याः क्रिया अपि ॥ ३८ ॥ वंदित्वा गणिनं गणमप्युचितक्रियया दिनम् । तद्विश्रम्य द्वितीयेऽह्नि तृतीये वासरेऽ थवा ॥ ३९ ॥ गणिनं गुणिनं संघगुणसंघमवेत्य तम्। दयादमशमावश्यकक्रियाकरणादिषु ॥४०॥ सूरि संश्रित्य नत्वेष्टं स्वस्य विज्ञापयेच्छनैः। दत्वाऽस्मै चेतनाचेतनांतरालार्जितोपधिम् ॥४१॥ गुरुसन्तानचारित्रशुद्धो ग्राह्यो यदीतरः।। कृत्वा छेदमुपस्थापनादिशुद्धश्च नेतरः॥ ४२ ॥ शिलाभिन्नघटाजाविडालमृच्चालिनीशुकैः। मशका चाहिमहिरैरपि श्रोतृन समान् त्यजेत् ॥४३॥ मोहादिना निषिद्धस्य श्रोतुर्मन्दमतेरपि। सति प्राविनीतेऽस्मिन् यो व्याख्याति नराधमः॥४४॥ भित्ररत्नत्रयीयानपात्रोऽसौ भूरिगौरवात् । विधूतबोधिः संसारवारिराशौ निमज्जति ॥ ४५ ॥ युग्मम् । ___ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे संचिंत्यति स्थितस्थानं तपः कालं गुरुं कुलम् । पृष्ट्वा श्रुतं श्रुतं नाम स्वं प्रतिक्रमणादिकम् ॥ ४६॥ शयनाशनयानादौ प्रेक्ष्य वृत्तं दिनत्रयम् । निश्चित्य गुरुश्चारित्रशुद्धिं तत्सूरिसम्मतः॥४७॥ स्वशक्तिमुक्त्वा व्याख्यादौ तद्व्याख्यातं पठेच्छुतम् । स्वस्येष्टं प्रश्रयादेतत्पठनं सूत्रसंश्रयः॥४८॥ त्रिकम् । सविस्तारसमाचारनैकभेदोऽत्र वर्ण्यते। उदाहरणमात्रेण विश्वं को वक्तुमीश्वरः॥४९॥ रात्रि दिवं यमिष्वार्ये यत्कर्माचर्यते वरम्। तद्विस्तारसमाचार इति येन जिनोदितः ॥५०॥ युग्मम् । क्रियाकलापमल्पाल्पसूत्राण्याचारवर्णनम्। पठेदथ पुराणानि त्रिकलो स्थितिकीर्तनम् ॥ ५१॥ सिद्धांतं तर्कमंगांगबाह्यादेशार्थदेशनम् । स्वीयशक्त्यनुसारेण भक्त्या मोक्षककांक्षया॥५२॥ युग्मम् । रुचिश्चार्वी चरित्राणां शरणं शरणं सताम् । महत्त्वसत्त्वगांभीर्यधैर्यादिगुणभूषणः ।। ५३ ।। चिरप्रव्रजितो दांतः प्रत्यक्तसमयस्थितिः । दयावात्सल्यसाकल्यः शांतोऽयं गणितोचितः ॥ ५४॥ इति सूर्यर्पिताचार्यपदः सन् संघसम्मतः । प्रायश्चित्तादिशास्त्राणि रहस्यानि पठेदथ ।। ५५ ॥ यः शिष्यत्वमकृत्वैव सूरितां कर्तुमीहते। सः स्यादुन्मार्गगस्तीक्ष्णो वाऽशिक्षिततुरंगमः ॥ ५६ ॥ सर्वसत्त्वगुणिक्लेशिनिर्गुणेषु करोत्वलम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि यथाक्रमम् ॥ ५७ ॥ जिनान् सिद्धान् गणाधीशानुपाध्याञ्जगद्गुरून् । साधून धर्म जगच्छर्मकरं वन्देत नेतरान् ॥ ५८ ॥ १ इन्द्रियनिग्रहवान् २ । आचार्यत्वयोग्यः । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितायाऽाधकारः । ११ क्षुतार्ती भयज॑भेष्टार्थारंभस्खलने बुधैः । शयने विस्मयादौ च स्मर्तव्यो वृजिनो जिनः ।। ५९ ॥ सुखेनासीनमव्यग्रं सूरिं वंदेत सम्मुखम् । वंदेऽहमिति विज्ञाप्य हस्तमात्रांतरस्थितः ॥ ६०॥ प्रमृज्य कर्तरीस्पर्शात्माष्टांगान्यवनीमपि । पश्वर्द्धशय्ययाऽऽनम्य सपिच्छांजुलिभालकः॥६१॥ युग्मम् । विगौरवादिदोषेण सपिच्छांजुलिशालिना। सब्जसूर्याऽऽचार्येण कर्तव्यं प्रतिवंदनम् ॥ ६२॥ ये दोषान्वेषिणोऽन्येषां सद्गुणावर्णवर्णनाः। तपस्विनोऽपि पार्श्वस्था ये च वंद्या न ते यतेः॥ ६३ ।। पुरो गुरूणां स्थातव्यं न यथेष्टमकोपयन् । तानापृच्छेद्वचस्तेषां प्रतीच्छेत्तत्परो भवेत् ॥ ६४॥ हस्तद्वयेन दातव्यं ज्येष्ठेभ्यः पुस्तकादिकम् । तत्तद्देयं करद्वन्द्वेनादेयं विनयानतैः॥६५॥ नमोऽस्विति नतिः शस्ता समस्तमतसंमता । कर्मक्षयः समाधिस्तेस्त्वित्यार्यार्यजने नते ॥६६॥ धर्मवृद्धिः शुभं शांतिरास्त्वित्याशीरगारिण। पापक्षयोऽस्त्विति प्रश्चिाण्डालादिषु दीयताम् ॥६७॥ मान्यः सद्दर्शनी ज्ञानी हीनोऽप्यपरसद्गुणैः । वरं रत्नमनिष्पन्नशोभं किं नाय॑महति ॥ ६८॥ उक्तिः कार्या सहाचार्यैः कार्यार्थ शेषयोगिभिः। न मिथ्यादृष्टिभिर्भाज्या श्रावकैः स्वजनैश्च सा॥६९॥ स्पृष्टे कपालिचांडालपुष्पवत्यादिके सति । जपेदुपोषितो मंत्रं प्रागुप्लुत्याशु दंडवत् ॥ ७० ॥ संस्तरावासयोः प्रेक्षा कार्या कल्पास्तकालयोः। प्रकाशे सूरिभिः सार्ध वृत्तिश्चावश्यकादिषु ॥ ७१ ।। १" क्षवः स्त्री क्षुत् क्षुतं क्षवः पुंसि" इत्यमरः ।२ ऋद्धिगौरवादिदोषरहितेन । सज्जनकमलदिवाकरण । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे मुनिनैकेन नो वाच्यमेकार्या यदि पृच्छति। गणमुख्यां पुरस्कृत्य पृष्टं ब्रूयात्तदीप्सितम् ॥७२॥ मालालापं कथाश्चाजनैः सार्द्ध यमी त्यजेत् ।। तदाश्रयेऽशनं स्थानं व्याख्यानं शयनादिकम् ॥७३॥ मुनिनैकाकिनैकान्ते न स्थातव्यं कदाचन । योषिज्जनागमे काले सदाचारयशोऽर्थिना ॥७४॥ नामाऽप्यानन्दनिष्यन्दि “स्त्रीति" लोचनगोचरम् । तदंगमंगजस्फारशरोग्रं न करोति किम् ॥ ७५॥ किं च, स्त्रीणां दर्शनमादरेक्षणमतो वार्तेष्टवार्ता मनाङ् नोक्तिर्नतिनर्मरत्यनुगवाक श्रृंगारसारं वचः। स्वान्तस्योल्लसनं धृतेः क्षितिरतिप्रीतिर्मतेओन्तिता तस्यां च स्मरवीरविशिखवातस्य लक्षः क्षणात् ॥७६ ॥ चिरप्रव्रजितः सूरिः स्थविरः श्रुतपारगः। तपस्वीति यतो नास्ति गणना विषमायुधे ॥ ७७॥ विधवां लिंगिनी कन्यां स्वैरिणी गणिकादिकाः। आसजन्नचिराद्भिक्षुरपवादैकमन्दिरम् ॥ ७८॥ संवृतांगोऽतिगंभीरो जिताखिलपरीषहः।। ज्ञानचारित्रवान् सूरिरार्याणां मितभाषणः ॥ ७९ ॥ आज्ञाभंगादिदोषाहः करोति यदि सूरिताम् । मदोदयाद्गुणतातेनैतेन रहितो यतिः॥ ८०॥ लज्जाविनयवैराग्यसदाचारादिभूषिते। आर्याव्राते समाचारः संयतेष्विव किन्त्विह ॥ ८१॥ द्वयाद्याः समं वसंत्यार्या गृहस्था संकराश्रये । तद्गृहानतिदूरातिसमीपेऽवद्यवर्जिते ॥ ८२॥ मौनेनाटति भिक्षार्थ वृद्धार्यान्तरिता गृहान् । अन्योन्यपरिरक्षानुकूलवृत्तिपरायणाः ॥८३॥ अन्यदावश्य गन्तव्यं धर्मकार्य गृहेऽस्ति चेत् । गाणन्यादेशतो यांति द्वयाद्याः सार्धं न चान्यथा ॥८४॥ १ गणिनीं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽधिकारः । नमन्ति सूर्युपाध्यायसाधूनार्या यथाक्रमम् । पंचषट्सप्तहस्तान्तरालस्थाः पशुशय्यया ॥८५॥ कर्मभूद्रव्यनारीणां नायं संहननत्रयम् । वस्त्रादानाच्चरित्रं च तासां मुक्तिकथा वृथा ॥ ८६ ।। यदि त्रिरत्नमात्रेण सा पुंसां नग्नता वृथा। तिरश्चामपि दुर्वारा निर्वाणाप्तिरलिंगिता ॥ ८७॥ मुक्तिश्चेदस्ति किं नासां प्रतिमाः स्तवनान्यपि । क्रियन्ते पूज्याश्चत्तासां मुक्तेदत्तो जलांजुलिः ॥८८॥ देशव्रतान्वितैस्तासामारोप्यन्ते बुधैस्ततः। महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारतः ॥ ८९ ॥ ऋतौ स्नात्वा तु तुर्येह्नि शुद्धयंत्यरसभुक्तयः । कृत्वा त्रिरात्रमेकान्तरं वा सज्जपसंयुताः ॥ ९० ॥ गानाक्रन्दनसन्मार्जनायवद्यकियोज्झिताः। जातिकीर्त्यञ्चिताचाराश्चार्वीक्षान्त्यार्जवान्विताः ॥ ९१ ॥ अविकारवस्त्रवेषाः स्वकीयकायेपि निःस्पृहा नित्यम् पठनपरिवर्तनाऽऽख्यानादिश्रुतभावनानिरताः ॥ ९२ ।। चरंति ये चारुचरित्रसंपदः पदं समाचारमिमं यमीशिनः । समाश्रयंतेऽभ्युदयप्रमोदिनः परां श्रियं ते कृतिलोकनंदिनः ॥९३ ॥ श्रीमान जिनः संभृतधर्मचक्रः श्रुतैर्युतः सारगुणैरवक्रः। मनोरथाप्तयै हतचकिचको भूयादरः पालितधर्मचक्रः॥९४॥ इति श्रीवीरनंदिसिद्धांतिचक्रवर्तिप्रणीते श्रीआचारसारनाम्नि ग्रंथे द्वितीयोऽधिकारः॥२॥ १ "प्रवीणनिपुणाभिज्ञविज्ञनिष्णातशिक्षिताः वैज्ञानिकः कृतमुखः कृती कुशल इत्यमरत्वानिपुणजनसंतोषकारिण इति भावः । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे ॥ अथ तृतीयाधिकारः॥३॥ श्रियः प्रियः संगतविश्वरूपः सुदर्शनश्छिन्नपरावलेपः। दद्यादनन्तः प्रणतामरेन्द्रो रमां ममाद्य परमां जिनेन्द्रः॥१॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्यविशेषतः पंचभेदांचिताचारे तावदाद्यो निगद्यते ॥२॥ रुचिराप्तागमार्थानां दर्शनं मूढवर्जितम् । प्रशमादियुगष्टांगं निसर्गाधिगमोद्भवम् ॥३॥ व्यपेताऽशेषदोषो यः शरीरी तत्त्वदेशकः। समस्तवस्तुतत्त्वज्ञः सः स्यादाप्तः सतां पतिः ॥४॥ आप्तोक्तिजार्थविज्ञानमागममस्तद्वचोऽथ वा। पूर्वापराविरुद्धार्थ प्रत्यक्षाद्यैरबाधितम् ॥ ५॥ स्याज्जीवः पुद्गलो धर्मोऽधर्मः कालो नमोऽपि च । मानेनार्थ्यत इत्यर्थस्तत्त्वं चार्थः स्वरूपतः ॥६॥ स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मा द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत् । स्वपर्यायानिति द्रव्यमर्थस्तान्तान्विवक्षितान् ॥ ७॥ गुणपर्ययवद्रव्यं स्याईव्यान्वयिनो गुणाः । निर्गुणाश्चेतनाद्यास्ते तद्विशेषास्तु पर्ययाः॥८॥ जीवत्यजीवीज्ज्जीविष्यतीति जीवश्चिदात्मना। ज्ञाता द्रष्टा जगन्मात्रदेशोऽमूर्तश्च निवृतः ॥९॥ कर्ता स्वकर्मणो भोक्ता तत्फलस्योगः क्षयात् । तस्य स्वगात्रमात्रश्च स्याद्विसर्पणसंहृतेः ॥१०॥ मुक्तसंसारिभेदोऽयं मुक्तः कृत्स्नैनसोत्ययात् । हेमोपलो मलोन्मुक्त्या हेम स्यादमलं यथा ॥११॥ ___ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाधिकारः । अनादिकर्मसंतानसंश्लेषात् क्लेशभाजनम् । संसारी स्यात्रसस्थावराद्यैर्भेदरेनेकधा ॥ १२ ॥ अणुश्च पुद्गलोsभेद्यावयवः प्रचयशक्तितः । कायश्च स्कन्धभेदोत्थश्चतुरस्रस्त्वतीन्द्रियः ॥ १३ ॥ बिभ्रदेकं रसं गन्धं वर्ण शीतचतुष्टये । स्पर्शे चाबाधकौ स्पर्शावेकदा सर्वदेवशः ॥ १४ ॥ द्व्यणुकादिमहास्कंधपर्यन्ता नंतपर्ययाः । परमाणोर्विभावाः स्युर्भेदसंघातसंभवाः ॥ १५ ॥ स्निग्धरूक्षत्वतो बंधो जघन्यगुणवर्जिते । गुणे समेऽसमे वाण्वोः सर्वत्र स्निग्धरूक्षयोः ॥ १६ ॥ इयविभागप्रतिच्छेदविहीनेन तु बंधनम् । स्निग्धाणुनास्य स्निग्धाणोः स्वजातै रूक्षयोस्तथा ॥ १७ ॥ स्कन्धदेशप्रदेशाणुभेदो वाऽखिलपुद्गलः । स्कन्धो ज्येष्ठमहास्कन्धः स्यादन्यश्व धरादिकः ॥ १८ ॥ अतो हीनाणुतो यावदर्द्ध देशस्ततः क्रमात् । हीनाको यावत्प्रदेशोऽणुः पुरोदितः ॥ १९ ॥ जीवपुद्गलजालस्य व्रजतः स्वेन हेतुना । धर्मो याननिमित्तं स्याज्जलं वा जलचारिणाम् ॥ २० ॥ स्वहेतुस्थितिमज्जीवपुद्गलस्थितिकारणम् । अधर्मोऽध्वनि खिन्नस्य ग्रीष्मे छायेव शीतला ॥ २१ ॥ धर्माधर्मो जगद्व्याप्यारूपिणौ सर्वदा स्थितौ । कालाणवो जगन्मात्राश्चैवं तु मणिराशिवत् ॥ २२ ॥ ते प्रत्येकं विवर्त्ताप्तिहेतवः सर्ववस्तुनः । गौणकालस्तु पर्यायस्थितिः स्यात्समयादिका ॥ २३ ॥ व्योमामूर्त्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं समं घनम् । भावावगाहहेतुञ्चानंतानं प्रदेशकम् ॥ २४ ॥ अस्तिकाया इमे कालं विना संतः प्रदेशिनः । कायवद्येन कालो प्रदेशप्रचयशक्तिमान् ॥ २५ ॥ १.५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे जीवाजीवौ तयोः पुण्यं पापमास्रवसंवरौ। निर्जराबन्धमोक्षाश्चेत्यर्था नवविधाश्च ते ॥ २६ ॥ जीवाजीवौ पुरो प्रोक्तौ सम्यक्त्ववृत्तज्ञानवान् । जीवः पुण्यं तु पापं स्यान्मिथ्यात्वादिकलंकवान् ॥ २७॥ स्यादजीवात्मकं पुण्यं पापं चाणुकदम्बकम् । शुभानामशुभानां च कर्मणा सुखदुःखदम् ॥ २८ ॥ मिथ्याविरतिकषाययोगाः स्युरशुभास्त्रवाः । दयादमयमाद्यास्तु जीवात्मानः शुभास्त्रवाः ॥ २९ ॥ उदयोदीरणाकर्मद्रव्यास्रवो यतः। स्यानूनद्रव्यभावैनों भावद्रव्यास्त्रवाः कमात् ॥ ३०॥ भावद्रव्यास्त्रवानल्पविकल्पेषु यदाऽऽत्मनि। यस्य यस्य निरोधः स्यात्तत्तत्संवरणं तदा ॥ ३१ ॥ भावद्रव्यास्त्रवद्वन्द्वरोधात्संवरणं मतम् । द्रव्यभावात्रवद्वन्द्वस्यैतद्यत्तेन जन्यते ॥ ३२ ॥ गलनं निर्जरांशस्य स्याच्चिरंतनकर्मणः । सविपाकाऽविपाका च प्राप्तकाला विपाकजा ॥ ३३ ॥ परिणामविशेषोत्थाऽप्राप्तकालाऽविपाकजा। कालेनोपायजालैर्वा फलपाको वनस्पतेः ॥ ३४॥ युग्मम् । रागादीनां विभावानां विश्लेषो भावनिर्जरा। आत्मनो गलनं द्रव्यकर्मणां द्रव्यानर्जरा ॥३५॥ सम्यक्त्वदेशचारित्रसंयमाऽयोगवृत्तयः। कारणं निर्जरायाः स्युः संवरस्यापि कर्मणः ॥ ३६॥ द्रव्यास्रवजमिथ्यात्वयोगाविरमणादिभिः । नूतनैरात्मनः श्लेषो भावबन्धस्तदात्मता ॥ ३७॥ भावात्रवातितापात्मलोहस्वात्मैकदेहगम् । आदत्ते सर्वतोऽनंतानंतकर्माणुजीवनम् ॥ ३८॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाधिकारः । आत्मनस्तेन संश्लेषो द्रव्यबन्धश्चतुर्विधः। सः स्यात्प्रकृतिप्रदेशानुभागस्थितिभेदतः ॥३९॥ प्रकृतिप्रदेशयोः स्याद्योगात् स्थित्यनुभागयोः । बंधः कषायतो योगे चाकषाये यतो न तौ॥४०॥ भावद्रव्यात्मकाशेषकर्मनोकर्मणां क्षयात् । भावद्रव्यात्मको मोक्षश्चारुचारित्रसम्पदा॥४१॥ अनंतज्ञानदृग्वीर्यसौख्यात्मस्वात्मलंभनम्। सिद्धिर्नाभावचिन्मात्रनिःशेषात्मगुणक्षया ॥ ४२ ॥ सप्त तत्त्वानि चैतेऽर्थाः पुण्यपापद्वयं विना । तज्जीवाजीवद्रव्यान्तर्भूतं यत्नेगमान्नयात् ॥४३॥ लोकान्यदेवपाखंडिवेदाद्यासादितादलम् । मूढादपोढं सम्यक्त्वं बाढं दृढमिदं भवेत् ॥४४॥ गेहभक्ताभिभूस्वर्णरत्नास्त्राद्यपकारकम् । अनस्य वस्तु यत्तत्र वंद्यधीर्लोकमूढता ॥ ४५ ॥ ब्रह्मोमापतिगोबिन्दशाक्येन्दुतपनादिषु। मोहंकादंबरीमत्तेष्वाप्तधीर्देवमूढता ॥ ४६॥ पाखंडिमूढता दंडपात्रामत्रादिसंगिषु । सन्मतिः स्वागमाभासभ्रान्तस्वान्तान्यलिंगिषु ॥४७॥ पापोपदेशवेदान्यपुराणादिषु सन्मातः। स्याद्वेदमूढता जंतोः संसृतिभ्रान्तिकारणम् ॥४८॥ गुणाः प्रशमनिर्वगसंवेगास्तिकतादयः । स्वदोषगर्दा निन्दाद्याः सम्यक्त्वमणिरश्मयः ॥४९॥ निःशंकत्त्वमकांक्षत्त्वं नैर्जुगुप्स्यममूढता । उपगृहः स्थितीकारो वात्सल्यं च प्रभावना ॥५०॥ १ कापिशायनम् २ जुगुप्सारहितत्वं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचारसारे इत्यष्टांगानि पुष्टानि सम्यक्त्वगुणसंपदे । यद्वदंगानि सप्त स्युः प्राज्यसाम्राज्यसंपदे ॥ ५१॥ युग्मम् । हेतुद्वयोत्थकार्यानुमयेयं भवितव्यता। दुर्लध्येति भयाऽभावो निःशंकत्वं भयोदये ॥५२॥ भयमाकस्मिकं पारलौकिकं चैहलौकिकम् । मृत्युगुप्तिरुजात्राणैः संजातमिति सप्तधा ॥ ५३॥ किं स्यात्सत्यमिदं नो वेत्याप्तोक्ते संशयोज्झिता। मतिस्तत्त्वाचलप्रीप्तिः परा निःशंकिता मता ॥ ५४॥ वांछाऽभावोऽन्यदृग्ज्ञानवृत्तोत्कर्षेष्वकांक्षता। अत्राऽमुत्र च जाते वाऽनश्वरेन्द्रियजे सुखे ॥ ५५ ॥ देवेन्द्रादिश्रियो यस्मिन्सत्यायान्त स्वयं सताम् । सम्यक्त्वेऽनुपमे तस्मिन् किं तया परचिन्तया ॥ ५६ ॥ तीनं जैनतपस्तत्र निंद्यं चामज्जनादिकम् ।। सम्यगन्यदिति स्वांतत्यागः स्यान्निर्जुगुप्सता ॥ ५७ ॥ रत्नत्रयपवित्राणां छर्दिलालाद्यपोहने। विचिकित्सात्ययो वा सा ज्ञात्वा गात्रापवित्रताम् ॥ ५८ ॥ बहिराचारचारूणि सौगतादिगतान्यलम् । क्लेशादिमोहदान्येव स्युः किंपाकवदंगिनाम् ॥ ५९॥ तदन्यज्ञानविज्ञानप्रशंसाविस्मयोज्झिता। युक्तियुक्तजिनोक्ते या रुचिः साऽमूढता मता ॥ ६०॥ यद्वत्पुत्रकृतं दोषं यत्नान्माता निगृहति । तद्वत्सद्धर्मदोषोपगृहः स्यादुपगृहनम् ॥ ६१ ॥ आत्मनोऽन्यस्य वा चेतो धर्मोद्विग्नं परीषहैः । संबोध्य तत्र तच्चित्तस्थापनं स्यास्थितिक्रिया ॥ ६२ ॥ तनियोज्य यथाशक्ति धर्मे नूनेतरानरान् । धर्मोपबंहणं कार्य न धर्मो धार्मिकैविना ॥ ६३॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाधिकारः। प्रीतिर्जिनागमे वत्सलत्वं संघे चतुर्विधे। प्रमोदितोपकारित्वं चोपकारानपेक्षया ॥६४॥ जैनानापद्गतांस्तस्मादुपकुर्वन्तु सर्वथा । यः समर्थोऽप्युपेक्षेत सः कथं समयी भवेत् ॥ ६५॥ त्रिरत्नैरात्मनः सम्यग्भावनं स्यात्प्रभावनम् । सद्धर्मस्य प्रकाशो वा सम्यग्ज्ञानादिभिर्गुणैः ॥६६॥ तेन ज्ञानप्रभावेन महताऽनशनादिना । महापूज्यादिभिश्चोच्चैः कर्त्तव्या समयोन्नतिः ॥ ६७ ॥ जडात्मा शक्तियुक्तोऽपि यः सद्धर्मप्रकाशनम् । कुर्यान्न चेदसौ रिक्तो महीभारो नराधमः॥६८॥ जिनबिंबावलोकादिनिसर्गोऽल्पप्रयासतः। ज्ञेयश्चाधिगमस्तत्त्वविचारचतुरा मतिः॥ ६९ ॥ संक्षिपर्याप्तभव्यस्य लब्धियुक्तस्य जाग्रतः । ज्ञानोपयोगिनो हेतू सम्यक्त्वाप्तेर्मताविमौ ॥ ७० ॥ दृङ्मोहोपशमध्वंसक्षयोपशमकारणैः। भवछेदनिदानाचं दर्शनं त्रिविधं विदुः ॥७१॥ दर्शने निर्मला वृत्तिर्ज्ञानचारित्रसंपदः । पदे मुक्तिरमादर्श दर्शनाचार ईरितः॥ ७२ ॥ एतद्देवनरेश्वरामृतपदश्रीवश्यकृद्दर्शनं किं चानंतभवान्तकृत्परमतत्पोन्मेषपूतात्मनः। कांतासु त्रिषु भावनादिषु महीष च वंशादिके नोत्पत्तिर्विकलन्द्रियैककरणे बद्धायुषोऽप्यंगिनः ॥ ७३ ॥ ज्ञानं येन समस्तवस्तुविषयं चारित्रमेनोलता दात्रं येन पवित्रिताः सुकृतिनो येनाऽस्तु तद्दर्शनम् । मच्चेतःशरणप्रकाशनमणिर्यन्नूनचिन्तामणि भव्यानां यदचिन्तितामितफलैर्नित्यप्रमोदोदयम् ॥ ७४ ॥ ___ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे श्रियं त्रिलोकीपतिपुष्पदन्तः __ पुष्यादनंतः प्रियमुक्तिकान्तः। दुरंतमिथ्यात्वतमस्तमोरि र्जिनो मेनोजद्विरदद्विपारिः ॥ ७५॥ इति श्रीमदीरनंदिसिद्धांतिचक्रवर्तिप्रणीते श्रीआचारसारनानि शास्ने दर्शनाचारवर्णनात्मकस्तृतीयोऽधिकारः । ३। अथ चतुर्थाधिकारः। जयत्यनंताप्रतिमप्रबोध प्रद्योतविद्योतितविश्वतत्त्वः। प्रत्यस्तकर्मोरुतमःप्रतानः प्रोबुद्धभव्याब्जवनोऽजितेनेः ॥ १ ॥ जानाति ज्ञास्यत्यज्ञासीदनेन 'ज्ञ' इति स्मृतम् । ज्ञानं स्यान्नूतनात्मार्थव्यवसायनिराकृतिः॥२॥ ज्ञेयं हि वस्तु सामान्यविशेषात्मकमत्र यत् । सामान्यमूर्ध्वता तिर्यक चेति भेदद्वयं मतम् ॥३॥ यत्परापरपर्यायव्यापि द्रव्यं तदूर्ध्वता। मृद्यथा स्थासकोशादिविवर्सपरिवर्तिनी ॥४॥ १ कामदेवेभपञ्चाननः २ आजितसूर्यः अत्र रूपकालंकारः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकारः । परिणामः समस्तिर्यग् खंडमुंडादिगोषु वा। गोत्वं विशेषः पर्यायव्यतिरेकद्विभेदवान् ॥५॥ एकस्य वस्तुनो भावाः पर्यायाः क्रमभाविनः। तोषरोषादयो भावा जीवे वा क्रमभाविनः॥६॥ व्यतिरेको भवेद्भावो वस्वंतरगतोऽसमः। गोमहिष्यादिभावो यो यथा तद्व्यतिरेचकः॥७॥ ज्ञानं मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलैः। भिन्नहेतुस्वरूपाथै दैः पंचविधं च तत् ॥८॥ स्वस्यार्थव्यंजनावग्रहेहनाऽवायधारणाः। मननं मतिरर्थस्य यत्तदिन्द्रियमानसैः॥९॥ व्यंजनावग्रहश्चक्षुर्मनसोर्नास्त्यवग्रहः । विषयाक्षसन्निपातानंतराद्यग्रहः स्मृतः॥१०॥ प्राप्ताप्राप्तार्थबोधाववग्रहो व्यंजनार्थयोः। रसरूपपरिज्ञाने रसनानेत्रयोर्यथा ॥११॥ अवग्रहगृहीतार्थविशेषे हीहनं मतम् । संशयांशविनाशोद्यनिर्णयावयवं यथा ॥१२॥ नरस्यावगृहीतस्य कर्णाटादिविशेषणः । भवितव्यमनेनेति विज्ञानं निर्णयावधिः॥१३॥ ईहितार्थस्थलिंगैर्यस्तद्विशेषविनिश्चयः । अवायो लाट एवायमिति भाषादिभिर्यथा॥ १४॥ कालान्तरे परिज्ञातवस्तुस्मरणकारकः। संस्कारो यस्तदुत्पत्तिकारणं धारणाह्वयम् ॥१५॥ १ हि ईहनमिति पदच्छेदः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे ते बहुबहुविधक्षिप्रानिसृतानुक्तधुवाः । प्रत्यकं सेतराश्चेति द्वादशावग्रहादयः॥१६॥ वेतकव्यक्तिविज्ञानं बढेकं च क्रमाद्यथा। बहवस्तरवः सूपो बहुश्चैकं वनं नरः ॥ १७ ॥ बढेकजातिविज्ञानं स्याद्बह्वेकविधं यथा। वर्णा नृणां बहुविधा गौर्जात्यैकविधेति च ॥ १८ ॥ आश्वर्थस्य ग्रहः क्षिप्रं स्यादक्षिप्रं शनैर्ग्रहः। मृत्पात्रं यद्वदादत्ते नूनं चानूतनं जलम् ॥ १९ ॥ वस्त्वंशाद्वस्तुनस्तस्य वस्त्वंशाद्वस्तुनोऽथवा । तत्रासन्निहितान्यस्याऽनिसृतं मननं यथा ॥ २०॥ घटार्वाग्भागकं न्यास्य गवयग्रहणक्षणे। स्फुटं घटेन्दुगोज्ञानमभ्याससमयान्विते ॥ २१ ॥ वस्त्वेकदेशमात्रस्य विज्ञानं निसृतं मतम् । घटार्वाग्भागमात्रेऽपि क्वचिज्ज्ञानं हि दृश्यते ॥ २२ ॥ प्रत्यक्षनियताऽन्यादृग्गुणार्थेकाक्षबोधनम् । अनुक्तमेकदैवोक्तं प्रत्यक्षनियतग्रहः ॥ २३॥ चक्षुषा दीपरूपावलोकावसर एव यत् । तदुष्णस्पर्शविज्ञानं यथोक्तार्थः प्ररूप्यते ॥ २४॥ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनश्च खम् । अर्थः स्पर्शा रसो गंधा रूपं शब्दः श्रुतादयः ॥ २५ ॥ स्यान्नित्यत्वविशिष्टस्य स्तंभादर्ग्रहणं ध्रुवः । विधुदादेरनित्यत्वेनान्वितस्याध्रुवो ग्रहः ॥ २६॥ लब्धिः सदोपयोगश्च स्याद्भावेन्द्रियमात्मनः। निवृत्त्युपकरणे द्वे स्तो द्रव्येन्द्रियमत्र तु ॥ २७॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकारः। यंत्ररचना। एकेन्द्रि- द्वीन्द्रि- त्रीन्द्रि-चतुरि- असंज्ञिपं. सं. पं. स्पर्शदंडं यम् | यम् | यम् |न्द्रियम् | चेंद्रियं योजन ४०० । ८०० | १६०० ३२००६४०० रसनादंड ६४ | १२८ / २५६ | ५१२ योजन ९ घाणदंडं| १०० | २०० / ४०० योजन ९ घाणदंड १०० ४७२६३ चक्षुर्योजनानि श्रोत्रदंडं ८००० योजन १२ चित्रार्धेद्वतिमुक्तकमसूरियवनालिकाः। अनुकुर्वती च बाह्या निवृत्तिः स्पर्शनादिषु ॥ २८॥ चतुःशतानि चापानां चतुःषष्टिः शतं कमात् । योजनत्रिसहस्राण षट्चत्वारिंशता विना ॥ २९ ॥ धनुरष्टसहस्राणि क्षेत्रात्मा द्विगुणो वरः । एकेन्द्रियाद्यसंयंते विषयः स्पर्शनादिषु ॥ ३० ॥ युग्मम् । योजनानि त्रिषु नव श्रेष्ठोंऽकस्थानककमात् । त्रिषट् द्विसप्त चत्वारि चासो द्वादशसंज्ञिषु ॥ ३१ ॥ स्थूलवाग्गोचरानंतरार्थस्य स्थायिनश्चिरम् । प्रत्यक्ष नियतस्यैतद्बोधादभिनिबोधनम् ॥ ३२ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आचारसारे स्पर्शनादिमतिज्ञानावृत्तिवीर्यान्तराययोः। क्षयोपशमजं नाना भेदमेतदुदाहृतम् ॥ ३३ ॥ श्रुतं मतिगृहीतार्थशब्दैरन्यार्थबोधनम् । धूमादेः पावकादेर्वा बोधोऽग्नेरग्निशब्दतः ॥ ३४॥ तत्पर्यायाक्षरपदसंघातप्रतिपत्तिका। अनुयोगः प्राभृतप्राभृतं च प्राभृतं कमात् ॥ ३५॥ वस्तुपूर्व समासाश्चामीषामिति समन्वितम् । श्रुतं विकल्पविंशत्या स्वान्तस्थान्यविकल्पया ॥३६॥ श्रुतावरणवीर्यान्तरायमन्दोदयाच्छुतम् । स्यादसंख्यजगन्मात्रं पर्यायादिप्रभेदतः ॥ ३७॥ मूर्त्तमर्थ मितं क्षेत्रकालभावैरवस्फुटम् । मितैर्दधात्यवधिर्बोधो भवगुणोद्भवः ॥ ३८॥ सुरनारकपर्याप्तभवजः प्रथमोऽपरः। मर्त्यतिर्यक्षु सम्यक्त्वगुणादीनां विशेषजः ॥ ३९ ॥ स्याद्देशपरमसर्वावधिभेदत्रयोऽवाधिः । सामान्यस्तत्र देशावाधः स्याहुणभवोद्भवः॥४०॥ शेषौ चरमांगमुनर्गुणजौ प्रतिपात्यपि । तत्र देशावधिोधो शेषावप्रतिपातिनौ ॥४१॥ वर्द्धमानानुगावस्थितेतरप्रविकल्पतः।। षट्प्रकारोऽप्यसंख्यातलोकमात्रो विशेषतः ॥४२॥ सुरनारकतीर्थेश्वरादौ सर्वांगसंभवः । अन्येष्वंगप्रशस्ताप्रशस्तचिह्नभवोऽवधिः ॥४३॥ धर्मायां योजनं कोशाद्धीनं तत्क्रमशोन्तमा। यावत्पृथ्वी मतं क्षेत्रमवधिर्निरेयेष्विति ॥४४॥ तिर्यक्ष्योघजघन्यादातेजोलंभान्मतोऽवधिः। नरेष्वोपविकल्पोधो यथायोग्यं भवेदयम् ॥ ४५॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाऽधिकारः । भौमभावनयोयजनानि स्युः पंचविंशतिः । जघन्यक्षेत्रं ज्योतिष्के ततः संख्यात संगुणम् ॥ ४६ ॥ असुरेष्वसंख्यकोट्यः स्युरुत्कृष्टमपरेषु तु । ज्योतिष्कान्तेष्वसंख्यातसहस्राणि ततः क्रमात् ॥ ४७ ॥ द्विद्विश्चतुश्चतुर्द्विर्द्विर्नव चतुर्दशस्वपि । कल्पेषु स्याद्विमानेषु कल्पातीतेषु चावधेः ॥ ४८ ॥ अधो धर्मादि लोकान्तादारभ्य त्रसनालिकम् । क्षेत्रमूर्ध्वं वरक्षेत्रं स्वस्वलोकान्तसंस्थितम् ॥ ४९ ॥ त्रिकम् । अयं स्यादवधिबोधावृतिवीर्यान्तराययोः । क्षयोपशमतो बोधोऽसंख्यलोकविकल्पतः ॥ ५० ॥ स्यादेतत्रयमज्ञानं मिथ्यानं तानुबन्धिनाम् । उदयेनाऽऽशु कटु वा कलाबुगतं पयः ॥ ५१ ॥ मनो देशावधेज्ञेयं मध्यमं चिन्तितादिकम् । परैः पर्येति तद्यत्तन्मनः पर्ययबोधनम् ॥ ५२ ॥ ऋजुविपुलमती तद्भेदावाद्या त्रिभेदगा । ऋजुकायवाक्य चेतोगतार्थविषयत्वता ॥ ॥ ५३ ॥ ऋज्वऋजुदेहवाक्यस्वान्तस्वार्थावबोधनात् । विपुलमतिः षद्भेदाऽसंख्यकल्प मिता च सा ॥ ५४ ॥ मनः पर्ययविज्ञानावृतिवीर्यान्तराययोः । जातं मन्दोदयादेतत्क्षायोपशमिकं ततः ॥ ५५ ॥ त्रिकालानंतधर्मात्मानंतवस्तुप्रकाशकम् । युगपत्केवलं ज्योतिः करणावरणातिगम् ॥ ५६ ॥ क्षणं प्रत्यक्षरं ज्ञेयैः समं विपरिवर्तते । तदेकमुपमाततिं परमानन्दमन्दिरम् ॥ ५७ ॥ परद्रव्येन्द्रियानेकप्रकाशादिवशीकृते । मतिश्रुते परोक्षे स्तः प्रत्यक्षमवधित्रयम् ॥ ५८ ॥ २५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे-- ज्ञानेनाणोति व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा स्वगोचरम् । तमेवाक्षं प्रति गतं प्रत्यक्षमिति वर्ण्यते ॥ ५९ ॥ केवलं वा श्रुतं तत्राशेषवस्तुप्रकाशकम् । द्वादशांगांगवाह्यात्माऽस्पष्टं स्पष्टं तु केवलम् ॥६०॥ वाचना पृच्छना चानुप्रेक्षाऽऽम्नायो यथाविधि । धर्मोपदेश इत्यादि ज्ञानाचारः श्रुते मतः ॥६१॥ यत्सूत्रार्थोभयाऽऽख्यानं शिष्याणां विनयान्वितम् । मोक्षार्थ वाचना प्रोक्ता कृत्वा शुद्धिं चतुर्विधाम् ॥ ६२ ॥ स्वांगे ज्वराक्षिकुक्षादिवेदनापूयशोणित-। स्त्रावविण्मूत्रलेपादेर्द्रव्यशुद्धिरसंभवः ॥ ६३ ॥ सा भवेदनपानादेः सुस्निग्धस्य सुगन्धिनः । मोदकापूपपृथुकप्रभृतेरप्यसेवनम् ॥ ६४ ॥ व्याख्यानस्थानकात्सर्वदिक्षु पंचेन्द्रियांगिनाम् । शवार्द्रचर्ममांसास्थिशोणितादेरसंगमः ॥६५॥ गतात्तृतीयस्वाध्यायादाराद्यः स निगद्यते । क्षेत्रशुद्धिरिति क्षेत्रे द्वात्रिंशद्दण्डमात्रके ॥६६॥ ऋतिर्यकशुष्कचादेहस्तद्वेकशते तदा।। विण्मूत्रयोः क्रमाद्धस्तशतपंचाशत्करायते ॥ ६७ ॥ त्रिकं । पंचाक्षे क्लिश्यमानेऽा म्रियमाणे च कर्मसु। त्रसस्थावरघातेषु सत्स्वेकस्मिनिवर्त्तते ॥ ६८ ॥ आसन्ने बालचाण्डालजलदीपानिलुंचने। दवादिधूमे दुर्गन्धे वाति दूरान्न सा भवेत् ॥ ६९ ॥ युग्मम् । १ साहित्ये प्रथमद्वितयिपादयोस्तृतीयचतुर्थपादयोः संयोगस्तु भणितः, परन्तु द्वितीयतृतीयपादयो त्र तद्दर्शनात्साहित्यभंगत्वात् वृत्तदोषः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाऽधिकारः। २७. नंदीश्वरमहापूजाराध्यागमनयोजनेप्रमाणक्षेत्रसंन्यासमहानशनवासरैः ॥ ७० ॥ सर्वपर्वक्रियावश्यकाक्रियावसरादिभिः । व्यपेतता भवेत्काले कालशुद्धिर्विशुद्धिदा॥ ७१ ॥ युग्मम् । सप्त व्येकदिनान्यत्र स्वग्रामे योजनप्रमे। क्षेत्रे दूरे च वानि स्वर्गते श्रमणाधिपे॥७२॥ निष्ठाप्य पश्चिमश्यामास्वाध्यायं शुद्धभूस्थितः । व्युत्सर्गेणेन्द्रकीनाशप्रचेतोधनिनां दिशः ॥ ७३ ॥ नवार्यापाठकालेन प्रत्येकं शोधयेदयं । पूर्वाह्नवाचनाहेतोः कालशुद्धिविधिस्त्वयम् ॥ ७४ ॥ विद्युदिन्द्रधनुःक्षोणीकंपाशादाहसंगर-। ग्रहणाकालवृष्टयभ्रगर्जनादिविवर्जितः ॥ ७५॥ त्रिकम् । पूर्वाह्नेऽप्यपराह्नस्य वाचनार्थ विशोधयेत्। एवमाशाश्चतस्रस्तु सप्तार्यापाठकालतः ॥ ७६ ॥ कृत्वैवमपराह्नेऽपि पंचार्यापाठकालतः। दिकशुद्धिं वाचनां पूर्वरात्रौ कुर्याद्दिवं पुरा ॥ ७७ ॥ क्षेत्रशुद्धिं विधायैतत्कारणोपायवर्जिते । निशायां पश्चिमश्यामावाचना नाऽस्ति संयते ॥ ७८ ॥ युग्मम्। व्योमाचलकुलान्तस्थचारणावधिबोधिनाम् । वाचना पररात्रौ तु क्षेत्रशुद्धशुपलंभतः॥ ७९ ॥ सर्वमासेषु जंघाया छाया सप्तपदी कमात् । वाचना ग्रहमोक्षेषु स्यात्पूर्वाहापरालयोः ॥ ८० ॥ १ अत्रापि त्रिषष्टितमश्लोकवद्वृत्तदोषः । २ अत्रापि त्रिषष्टितमपद्यवद्वत्तदोषः वीरनंदिना महाकविनाऽपि एतादृशस्थूलदोषानां कथमवकाशोऽलंभीत्यत्र संशयः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे आषाढकृष्णपक्षप्रतिपद्येकपदी तु सा । स्वाध्यायमोक्षादानेषु स्यात्पूर्वाह्नापराह्नयोः ॥ ८१॥ दिनं प्रत्यंगुलस्यति यत्पंचदशमांशकः। वृद्धिं तच्छावणस्यादौ सा छाया द्वयंगुलाधिका ॥ ८२ ॥ अंगुलिद्वयवृद्धयैवं प्रतिमासं पदद्वयं । पौषादौ स्यात्ततः पौषाद्याज्येष्ठांतं तु हीयते ॥ ८३ ॥ यशः पूजापुरस्कारनिःकांक्षा निर्मदा मतिः। श्रुतामृतकृतानंदा भावशुद्धिमुनर्मता ॥ ८४॥ एवं शुद्धीविधायात्महस्तपादं विशोध्य च। शुद्धदेशस्थितो भक्त्या क्रियां कृत्वा यथाविधि ॥ ८५॥ पल्यंकासनगः सूरिपादं नत्वा कृताञ्जलिः। सूत्रस्याध्ययनं कुयात् कक्षाचं स्वांगमस्पृशन् ॥८६॥ युग्मम् । यथाकालं ततो मुंचेद्वाचनामीदृशो विधिः । पुराणाराधनापंचसंग्रहादिश्रुतौ न हि ॥८७॥ गणोशोक्तं मतं सूत्रमभिन्नदशपूर्विभिः। उक्तं प्रत्येकबुद्धैश्च श्रुतकेवलिाभः श्रुतम् ॥ ८८॥ विधिमेनमतिक्रम्य सूत्रं शुश्रूषुरामुयात् । रुजासमाधिस्वाध्यायभंगार्तीनिष्फलस्य च ॥ ८९ प्रच्छना संशयोच्छिद्यैः प्रश्नः सप्रश्रयो मुनेः । स्वोन्नत्यख्यापनार्थ वा प्रहासोद्धर्षवर्जितः ॥ ९० ॥ अनुप्रेक्षा परिज्ञाते भावना या मुहुर्मुहुः । परिवर्तनमाम्नायो घोषदोषविवर्जितम् ॥ ९१ ॥ द्वादशांगैकदेशोपदेशो धर्मोपदेशनम् । पंचप्रकार इत्येष ज्ञानाचार उपाहृतः ॥ ९२ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकारः । प्रज्ञोन्मेषः प्रशस्तान्तरंगता कर्मनिर्जरा। संख्यातीतगुणश्रेण्या चेत्यादि स्यादितो यतेः ॥ ९३ ॥ वन्दे श्रीजिनमंजुलास्यकमलामोदं श्रुतं विश्रुतं चार्वी चारुचरित्रपात्रमुनिवृन्दन्दिन्दिरानन्दिनम् । यत्पुष्णाति भवेभवेऽप्यमलिनं ज्ञानं समासवितम् कैवल्यं च समस्तवस्तुविषयं तद्विस्मृतं यद्यपि ॥ ९४ ॥ गंभीरं मधुरं मनोहरतर दोषव्यपेतं हितं कंठौष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम् । स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेषभाषात्मकं दूरासनसमं समं निरुपमं जैनं वचः पातु वः॥९५॥ येनाऽज्ञानतमस्ततिर्विघटिता ये हिते चाहिते हानादानमुपेक्षणं च समभूत्तस्मिन्पुनः प्राणिनाम् । येनेयं हगुपैति तां परमतां भूतंच येनानिशं तज्ज्ञानं मम मानसांबुजमुदे स्तात्सूर्यवर्योदयम् ॥ ९६ ॥ ज्ञानं यदीयं विगतोपमानं सर्व यदन्तः परमाणुखर्वम् । पायात्स सर्वावृतिजादपाया नाथस्त्रिलोक्या वरमाल्लनाथः ॥९७ ॥ इति श्रीमद्वीरनंदिसिद्धांतचक्रवर्तिविरचिते श्रीआचारसारनाम् शास्ने ज्ञानाचारवर्णनात्मक स्तुर्योऽधिकारः॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे अथ पंचमोऽधिकारः। श्रीसंभवं भजत संचितपुण्यराशे न्यून भीकरतरस्य भवांबुराशेः। लीलासमुत्तरणकारणयानपात्रं प्रोक्तं गुणोत्करनिरास्रवणं चरित्रम् ॥१॥ मनोवचनकायानां पापरूपक्रियात्ययात् । पंचप्रकारं चारित्रं स्वस्वरूपमुपैत्यलम् ॥२॥ तत्सामायिकं छेदोपस्थापनं तद्वयात्मिका। परिहारर्द्धिः स्यात्सूक्ष्मसांपरायश्च संयमः॥३॥ यथाख्यातमितीदानीमेषां रूपं निरूप्यते । संसारगरलोदारलतोन्मूलनकारिणाम् ॥४॥ युग्मम् । समभेदेन त्यागेनाऽयोऽयनं मतेः। समयः स एव चारित्रं सामायिकमुत्तमम् ॥५॥ व्रतसमितिगुप्तिगैः पंचपंचत्रिभिर्मतेः । छेदैर्भदैरुपात्यर्थं स्थापनं स्वस्थितिक्रिया ॥६॥ छेदोपस्थापनं प्रोक्तं सर्वसावद्यवर्जने। व्रतं हिंसाऽनृतस्तयाब्रह्मसंगेष्वसंगमः ॥७॥ युग्मम् । हिंसाया हिंस्यतां हिंस्रः प्राप्नोति बहुजन्मसु । प्राणिहिंसात्महिंसैव सातस्त्याज्या हितैषिणा ॥८॥ कषायपरिणामः स्यात्प्राणिप्राणावियोजकः । हिंसाहिंसकपापानुबंधबन्धादिकारणम् ॥९॥ उक्तं च राद्धान्ते-- स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः१० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः । संरंभसमारंभारंभैः कायवाङ्मनोयोगैः । कृतकारितानुमतिभिः क्रोधाद्यैश्च कारणैः ॥ ११ ॥ पूर्वपूर्वर्युतैः सर्वैः प्रत्येकं सोत्तरोत्तरैः । स्यादुपर्युपर्यन्योन्याभ्यासेऽष्टोत्तरं शतम् ॥ १२ ॥ युग्मम् । संरंभो हिंसनोक्तत्वं हिंसोपकरणार्जनम् । समारंभोंऽगिवातादिः स्यादारंभो दयोज्झितः ॥ १३ ॥ कायवाङ्मनसां कर्मयोगः स्वेन कृतं कृतम् । स्वप्रयुक्तान्यनिष्पन्नं हिंसनं कारितं मतम् ॥ १४ ॥ अनुमतमनुज्ञातं कषायः कषतीत्यसौ । क्रोधो मानश्च माया स्याल्लोभः संयमदर्शने ॥ १५ ॥ परोपघातकृच्चेतो युक्तायुक्तेक्षणक्षयम् । क्रोधोंग कंपदाहाक्षिरागवैवर्ण्यलक्षणः ॥ १६ ॥ परुषेय मनो मानो निर्दयः परमर्दनः । स्वोन्नतानत्यहंकारः परासहनलक्षणः ॥ १७ ॥ नानाप्रतारणोपायैर्वैचनाऽऽकुलिता मतिः । मायाविनयविश्वासाऽऽभासचेतोहराकृतिः ॥ १८ ॥ परिग्रहग्रहातीवलालसं मानसं स्मृतः । लोभो लाभातिमोदात्तरक्षणातपलक्षितः ॥ १९ ॥ दयामृतरसास्वादं मानसं स्यादहिंसनम् । जनतात्यन्तविश्रंभमैत्रीस्वमोक्षकारणम् ॥ २० ॥ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपसमितीर्विदुः । युक्ताः शुद्धेक्षितान्नादिभुक्त्याऽहिंसनभावनाः ॥ २१ ॥ वचः सत्यमसत्यं वा स्मृतं जीवाहितेहितम् । जिह्वाच्छेदादिसर्वस्वहारैनोहेतुरात्मनः ॥ २२ ॥ कृतं सत्यमसत्यं वा वचः प्राणिहितेहितम् । येन सन्मानविश्वासयशांसि लभते नरः ॥ २३ ॥ ३१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे तनामस्थापनारूपभावसंवृतिदेशगम् । संयोजनाजनपदप्रतीत्यसमयाश्रितम् ॥ २४॥ संभावनोपमात्रं चेत्यादि सत्यमनेकधा । सोदाहरणमत्रैषां लक्षणं वक्ष्यतेऽधुना ॥ २५ ॥ व्यवहारप्रसिद्धयर्थमर्थाभावोऽपि लौकिकैः । कृतं नाम मतं नामसत्यं चन्द्रादिवन्नृषु ।। २६ ॥ धर्मोऽन्यवस्तुनः स्थाप्यतेऽन्यस्मिन्ननुरूपिणि । अन्यास्मिन्वा यया मत्या स्थापना सा तया वचः ॥२७॥ सस्त्यं स्यात्स्थापनासत्यं प्रतिबिंबाक्षतादिषु । चन्द्रप्रभजिनेन्द्रोऽयमित्यादि वचनं यथा ॥ २८॥ रूप्यते दृश्यते प्रायो यत्तद्रूपं तदर्पणम् । रूपसत्यं वचः श्वेता वलाकेत्यादिकं यथा ॥ २९ ॥ छद्मस्थज्ञानिनो वस्तुयाथाऽत्म्यादर्शनेऽप्यलम् । दृष्टदोषापहारेण गुणपोषणकृन्मनः॥ ३०॥ भावस्तेन वचः सत्यं भावसत्यमिदं पयः। प्रासुकं नेदमित्यादि वचो वा वृतिगोचरम् ॥ ३१ ॥ युग्मम् । या सा सर्वानुमत्या वाक् ख्याता संवृतिसत्यवाक्। कारणान्तरजस्वेऽपि पंकजमिति वाग्यथा ॥ ३२॥ सर्वदेशैकवाग्देशसत्यमोदनपाकवाक। यथा वृत्त्या वृतो ग्राम इति ग्रामादिवर्णनम् ॥ ३३ ॥ सेनौषधादिविन्यासविभागक्रमवर्णना। वाणी संयोजना चक्रव्यूहैलाद्यादिवाग्यथा ॥ ३४॥ नानाजनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु यद्वचः। धर्मार्थकाममोक्षादिस्वरूपोपायदेशकम् ॥ ३५॥ प्रत्येक नियतं सत्यं स्यात्तज्जनपदाश्रयम् । धर्मोदयात्मका राजा राणेत्यादिवचो यथा ॥ ३६॥ युग्मम् । ____ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः । कंचनार्थ प्रतीत्यान्यस्वरूपान्तरभाषणम् । प्रतीत्यसत्यं वीरोऽयं ज्ञानीत्यादिवचो यथा ॥ ३७ ॥ सिद्धान्तः समयस्तेन प्रसिद्धान्तप्ररूपणम् । वचः समयसत्यं स्यात्प्रमाणनयसंश्रयम् ॥३८॥ संभावनति सोक्ता वाग्वस्तुसद्भावभावना । शक्रः शक्नोति तर्जन्योद्धर्नु मेरुमपीति वा ॥ ३९ ॥ उपमोपमयाऽगुण्यगुण्यादेः परिवर्णना। आयुः पल्योपमं ग्रीष्मो वह्निरित्यादि वाग्यथा ॥४०॥ क्रोधभयलोभहास्यत्यांगाः सत्यस्य भावनाः । अनुवीची वचश्चेदमागमोचितभाषणम् ॥४१॥ परैरदत्तस्याऽऽदाने मनः स्तेयं यदेनसाम् । हेतुरत्राऽपि चौरस्य बधबन्धादिदुःखदम् ॥ ४२ ॥ स्तेयवर्जनमस्तेयं हेतुः स्वर्गापवर्गयोः । जनता येन विश्वासप्रीतिख्यातिसुखास्पदं ॥४३॥ याञ्चाऽनुज्ञापना पत्युरात्तानात्मीयभावनाः। योग्याऽन्याऽग्राह्यस्यादानमविवाद: सधर्मिभिः॥४४॥ इत्यस्तेयव्रते पंच भावनाः कन्दरादिषु । स्वभावशून्येष्वावासो मुक्तामोचितसद्मसु ॥४५॥ परोपरोधाकरणं भैक्ष्यशुद्धिः सधर्मिमिः। सहाविवाद इत्येवमथ वा पंच भावनाः॥४६॥ त्रिकम् । वेदतीव्रोदयात्कर्म मैथुनं मिथुनस्य यत् । तदब्रह्मापदामेकं पदं सद्गुणलोपनम् ॥४७॥ येन बद्धा महादेहा रदिनो मदिनोऽप्यलम् । करेणुवशगाः क्लेशमाभुवन्त्यवशा नरैः॥४८॥ यञ्चैवं जनतामान्यबालनां गुणशालिनाम् । निदानं मानहान्यादिक्लेशानामिह देहिनाम् ॥४९॥ ___ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे जिह्मान्तःकरणो ब्रह्मा निजपुत्रीमपत्रपः । जगाम किल येनार्द्धनारीत्वं च महेश्वरः॥ ५० ॥ गोविन्दो मन्दधीः प्रीत्या गोपपत्न्या गृहं गतः। तयाऽपि च किलात्यन्तं चतुरोक्त्या प्रतारितः ॥ ५१ ॥ किञ्च । ब्रह्मा जिहितसन्मतिर्बहुमुखः काष्ठेक्षणाद्भतितः पार्वत्यास्तनुसंप्रवेशविवशश्चार्दोगनारी हरः । विष्णुर्वारिधिमध्यगो गतधृतिस्तद्दीनिद्रोऽभवत् त्रैलोक्योन्मथनोत्थमन्मथविभोर्मन्ये शरादुर्धरात् ॥५२॥ मारापराभिधानेनाब्रह्मणाऽन्येऽपि तादृशाः। जाता विडम्बनापात्रमिदं चित्रं हि नो यतः ॥ ५३॥ कादम्बरीरसोन्मादं वा हिताहितमोहितम् । त्रिवेदोदीरणाभ्रान्तस्वान्तं तद्वदिदं जगत् ॥५४॥ किञ्च । श्रुत्वाऽऽलोक्य न सीधु माद्यति जनः स्पृष्टा च माद्यत्यदः पीत्वैव श्रवणेक्षणानुभवनैः कान्ताजनानां पुनः । लोको मुह्यति चित्रमत्र तु परं प्रभ्रष्टदृष्टिश्रुति स्त्यक्त्वा सत्त्वगुणं नयं च विनयं स्यादुर्मतिर्दुर्गतिः॥ ५५॥ वेदाऽतुच्छोदयादिच्छा पुंस्त्रीतद्वयसंश्रया। स्त्रीपुंनपुंसकानां स्यादब्रह्मैकाकिनामपि ॥५६॥ तेनानुन्मथितं चेतो यत्तद् ब्रह्मव्रतं स्मृतम् । व्रतव्रातलतामूलं मूलं स्वर्गापवर्गयोः ॥ ५७॥ यन्माहात्म्यान्महाविद्या सेवोद्या वा वसन्त्यलम् । जनेऽप्यसंयते यच्च नाम्ना देवव्रतं मतम् ॥ ५८॥ स्त्रीणां रागकथांगावलोकनादरयोः स्मृतिः। त्यागः पूर्वं रतस्योच्चैर्वृष्येष्टस्य रसस्य च ॥ ५९॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः। स्त्रीसंसक्तवसत्यंगसंस्कारपरिवर्जनम् । चति पंच वदन्त्यार्यास्तुरीयव्रतभावनाः॥६०॥ युग्मम् । क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदोंगी चतुःपदः । यानं शय्याऽऽसनं कुप्यं भांडं चेति बिहिर्दश ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्ववेदहास्यादि षट्कषायचतुष्टयम् । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ ६२ ॥ सचित्ताऽचित्तरूपैतत्संगसंगिपराः परैः। मानासुहान्यतिक्लेशानामुवन्त्यवशाशयाः ॥६३ ॥ या मूर्छाच्छदिनी संगे चेतोवृत्तिरसंगता। यया साऽऽत्यन्तिकी मुक्तिश्रीरुपैति यति स्वयम् ॥ ६४॥ स्वात्माऽभ्यन्तररागाद्या यदि त्याज्याः परिग्रहाः । बाह्यास्तत्त्वादयः किं नासातसन्ततिकारिणः ॥६५॥ सेवातन्द्राः सुरेन्द्राद्याः क्रूरो मारश्च किंकरः। यस्यामद्भुतमाहात्म्यसंगताऽसंगता ततः ॥ ६६ ॥ परिग्रहग्रहोन्मुक्तेरभ्रान्ता स्वान्तसन्ततिः। निजानंदामृतामन्दस्यन्दिनी कैर्न वर्ण्यते ॥६७ ॥ स्यान्मनोज्ञामनोज्ञाक्षपंचकार्थेषु वर्जनम् । भावनापंचकं रागद्वेषयोरपरिग्रहे ॥ ६८॥ महान्तमर्थ मोक्षं यत् साधयन्ति महान्ति तत् । व्रतान्याचरितानीति वा महद्भिः सुधीधनैः॥६९ ॥ व्रतत्राणाय कर्त्तव्यं रात्रिभोजनवर्जनम् । सर्वथान्नान्निवृत्तिस्तत्प्रोक्तं षष्ठमणुव्रतम् ॥ ७० ॥ रात्रिभुक्तौ व्रतानां स्यान्नाशः शंका च तत्क्षये। प्राणितस्याऽऽत्मनो हानिरकयङ्गविषसंगमात् ॥७१॥ ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गकर्मसु। संयत्नादितयः पंचवृत्तयः समितिप्रथाः ॥७२॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे AAAAKARAJARAMAAAAnantarnak सार्दी कर्दमशेवालजलपुष्पफलाविलाम् । इलां त्यक्तांकुरानीकप्राणिबीजव्रजाकुलाम् ॥ ७३ ॥ काष्ठेष्टकाष्मलोष्ठादिकृतवर्माऽसमं चलं। त्यत्तवा संशयितं चात्मपातासंयमहेतुकम् ॥ ७४ ॥ मार्ग रथाश्वगोयूथनरादिचरणाहतिः । प्रासुकेऽपगताऽऽयातप्राणिप्रालेयजालके ।। ७५ ॥ प्रभाकरकरवातस्पष्टज्ञेयार्थसार्थिनी। योगिनस्तीर्थयात्रात्मगुरुकार्यादिभागिनः ॥ ७६ ॥ स्थित्वा कार्यवशान्मन्दं मृगवद्दिग्विलोकिनः । पुरो युगान्तरे प्राणिवीक्षणार्पितचेतसः ॥ ७७ ॥ मन्दं न्यस्तपदापास्तद्रुतातीवविलंबिनः । द्विपेन्द्रमन्दयानस्य स्यादीर्यासमितितिः॥ ७८॥ षट्रम् । सत्यमोषोभयासत्यमोषभेदाच्चतुर्विधा। भाषाद्या सत्यबोधार्थवाग्घटे घटवाग्यथा ॥ ७९ ॥ मोषभाषा विपर्यासव्यवसायार्थगोचरा। यथा मरीचिकाचक्रे वाक्सिाऽनेकभेदगा ॥ ८ ॥ धमैर्विवक्षितैः सत्येऽसत्ये चार्थविवक्षितैः । वाक् प्रवृत्तोभयाख्या सा भाषेतीहेष्यते यथा ॥ ८१ ॥ घटाकृतिव्यपेताया धारणाद्भरि वारिणः । कुंडिकाया घटाख्यैवं बहुभेदमिदं वचः ॥ ८२॥ युग्मम् । आमंत्रणामाज्ञापनं याश्चावाक् प्रच्छनावचः । प्रज्ञापनावचः प्रत्याख्यानसंशयभाषणम् ॥ ८३ ॥ इच्छाऽनुलोमवचनमनक्षरमयं वचः। इत्येवमादयः सत्यमोषभेदाः सहस्रशः॥ ८४॥ तत्रामंत्रणमन्यस्य परत्राऽऽसक्तचेतसः। आभिमुख्यकरं हंहो नरेन्द्रेत्यादिकं वचः॥८५॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः। ३७ आज्ञापनं प्रभुत्वेनाऽऽदेशो यः स्वोक्तकारिणा। तत्किंचिदाशु कर्त्तव्यं यन्मया दिश्यते तव ॥ ८६ ॥ याञ्चा मयाऽर्थितं किंचिद्यत्तद्देयमिति त्वया। कथ्यतां यन्मया पृष्टं तदित्याप्रच्छनावचः॥ ८७ ॥ मत्पृष्टं यत्तदादेश्यमिति प्रज्ञापना गुरौ। प्रत्याख्यानमहं किंचित्त्यजामीति निवृत्तिवाक् ॥ ८८॥ संशीत्यैतत्किमित्यादि वचः संशयवाड्मता। तवेष्टं पुष्टं कुर्वेहमित्याद्येच्छानुलोमवाक्॥८९॥ बालादिसंझ्यसंध्यंगिवागनक्षरवागिमाः। न सत्यं स्पष्टताऽभावान्नासत्यं वाच्यसंभवात् ॥ ९० ॥ मितसत्यहितस्योक्तिर्मनः सन्देहभेदिनः । वचसोऽनुभयस्यापि भाषासमितिरिष्यते ॥९१॥ अपवित्रमिदं गात्रं विण्मूत्रादिमलाविलम् । क्षयि न्यक्षोग्ररोगादिपीड़ानीडं जडात्मकम् ॥ ९२ ॥ साहचर्यमनेनाऽऽर्यः कथं कुर्यादुरात्मनः। अन्यः स्वान्यपरिज्ञानापेतचेतोहतात्मनः ॥ ९३ ॥ मिताशनादिदानेन नेयः कायस्तथाप्यऽयम् । यथा रथोऽक्षसंम्रक्षणेन स्तंभैः कुटुंबिनाम् ॥९४ ॥ अप्राप्तावसरेणैषा रक्षणीयो मुमुक्षुणा । कायो वहति नो लोकः किं मून दग्धुमिन्धनम् ॥ ९५॥ एतद्रत्नत्रयीपात्रं नांगत्यंगं विनाऽशनम् । पुष्यात्तत्तेन सिद्ध्यर्थ स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता ॥ ९६ ॥ मत्वति द्रव्यदेशात्मदेहप्रकृतिनिश्चितः। कालं गवेषणस्यैषणस्य ज्ञात्वाऽर्कचारतः ॥९७ ॥ पूर्णोदरचरत्तोकैरगारबलिकर्मणा। छायया मुशलध्यानधूमशान्त्यादिकैरपि ॥ ९८ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे शुद्धकायः पुरीषादिमलोत्सर्गविधानतः। परिमृष्टात्मपूर्वापरांगभागो विलोक्य च ॥ ९९ ॥ ततः पंच गुरून्नत्वा भूत्वैकाग्रमतिर्यतिः। कुर्याच्चर्या नगर्यादावदीनाननमानसः ॥ १०० ॥ वर्येयासमितिभॊतिभ्रान्तिप्रीत्यादिवर्जितः। भटकुक्कुटडिंभस्त्रीयुद्धनृत्यादिवीक्षणे ॥१०१ ॥ विहायोल्लघनं जानुदेशादुन्नतवस्तुनः । नाभिनीचं च संकीर्ण द्वारं मार्ग च दुर्गमम् ॥ १०२ ॥ परिहृत्य च दूरेण कासरायुयशृंगिणः। कुंजरोष्ट्रतुरंगाग्नींश्चोन्मत्तश्च नृपोत्रिणः ॥१०३ ॥ कुलं तलारकारूणां सूनामैरेयकारिणाम् । त्यक्त्वा प्रसूतिकाबन्दिवादित्रत्रयजीविनाम् ॥ १०४॥ प्रपापण्याङ्गनाऽनाथाऽवातकाऽभक्तमन्दिरम् । वार्यमाणं विवाहादिमंगलं लोकनिन्दितम् ॥ १०५॥ यज्ञभोजनशालां च कदर्यमृतकालयम् । बद्धं गेहं कवादादिस्थगितादिकमीदृशम् ॥ १०६ ।। अतिप्रसंगसंक्लेशावज्ञादुःकीर्त्यसंयमः। श्रुतलोकविरोधाद्या यत्स्युस्तदेहसंश्रयात् ॥१०७ ॥ क्रमेण योग्यागारालि पर्यटन्प्रांगणं मितम् । विशेन्मौनी विकारांगसंज्ञायाच्योज्झितो यतिः॥१०८॥ इन्दोर्वन्द्या गतिर्यद्वन्नक्षत्रक्षेत्रचारिणः। तद्वन्मुनेश्च पुण्यानुग्राह्यगेहानुसारिणः ॥ १०९॥ यथा वाऽदीनता रत्नदर्शकव्यवहारिणः । गात्रदर्शनमात्राल्पकांक्षभिक्षोस्तथैव सा ॥ ११० ॥ अदीनजैनमार्गस्थः प्रात्यप्राप्तिसमाशयः। कः किं कुत्र कथं मह्यं दास्यतीतीहनोज्झितः ॥ १११ ॥ अस्थापितो निवर्तेत प्रविष्टं मन्दिरादिकम् । पुनर्न प्रविशेदन्यग्रामादींश्चाऽशनाशया ॥ ११२ ॥ ___ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः। धारयेन्नैव विण्मूत्रवेगं निर्गत्य तं बहिः। व्युत्सृजेन्न विशेत्पश्चात्स्वस्थानं धीरधीव्रजेत् ॥ ११३ ॥ कुलं विषण्णव्यग्रोग्रताकुकादिकुलाकुलम् । सन्मार्जनाद्यवयं च वन्द्यमानोऽपि नो विशेत् ॥ ११४ ॥ शृंगारनृत्यचित्रादिशालामुद्यानमिन्द्रिय-। द्विपेन्द्रक्रीड़नस्थानं स्थानमन्यच्च तादृशम् ॥ ११५॥ प्रतिग्रहप्रणामाभ्यां स्थापितो योग्यदातृभिः । तर्णकैलकवालादीननुलंध्य विशेग्दृहम् ॥ ११६ ॥ प्रकाशजनसंचारवत्यशुच्यङ्गिवर्जिते। विस्तीर्ण संवृते शस्ते सम्मते तत्र संवृतः ॥११७ ॥ आत्मोचिताऽऽसनाऽऽसीनो दातृप्रक्षालितकमः। ऊर्ध्वाधःपार्श्वदिक्कोणनिक्षेपाद्यनिरीक्षणः ॥११८॥ वर्णी पूर्णप्रतिज्ञोऽथ सिद्धभक्तिं विधाय तत् । प्रत्याख्यानं विनिष्ठाप्य प्रेरितो भक्तदातृभिः ॥ ११९ ।। समांगुलचतुष्कांतरांघ्रिः स्थित्वा समुध्दृते । पात्रापिंडे करद्वन्द्वमानाभेौतमुत्क्षिपेत् ॥१२० ॥ पुटं पाण्योरभित्वाऽन्यक्षिप्तं भुंजीत तं मतं । विना विकारवेगार्त्तिमांद्याऽऽसक्तिस्वनादिभिः॥१२१ ।। यावदस्ति बलं स्थातुं मिलत्येतत्करद्वयम् । तावडुंजे त्यजाम्यन्यथेति संधा यतेर्यतः॥१२२ ॥ पुरा रत्नसुवर्णादिनानाभाजनभाजिनः । दीनता सज्यते तेभ्यो हीनभाजनभोजने ॥१२३ ॥ तत्सन्न विश्वगेहाय्यं तद्गृहक्षालनादिना । यत्संगाऽसंयमौ च स्तस्तस्मात्पाणिपुटाशनम् ॥१२४ ॥ कान्तातारुण्यलावण्यलीलालोकनजल्पन-। स्मेरास्याब्जपदन्यासविलासायनिरीक्षणः॥ १२५॥ ___ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आचारसारे गौर्यथाऽत्ति तृणत्रातं क्षिप्तं भुंजीत यत्नतः । तथाऽऽन्नाद्यमनास्वाद्य गोचारज्ञो यथोचितम् ॥ १२६ ॥ भृंगः पुष्पासवं यद्वत् गृह्णात्येक गृहेऽशनम् । गृहिबाधां विना तद्वद्भुजीत भ्रमराशनः ॥ १२७ ॥ यथालब्धेन भक्तेन कुर्यादुदरपूरणम् । यद्वन्मृदादिना लोकैः क्रियते श्वभ्रपूरणम् ॥ १२८ ॥ तोषरोपव्यपेतस्य ज्ञानध्यानप्रसिद्धये । इत्येषा यत्नतो भुक्तिरेषणासमितिर्मता ॥ १२९ ॥ विहायाssदान निक्षेपौ सहसाऽनवलोक्य च । दुःप्रमार्जनमप्रत्यवेक्षणं चार्द्रमानसः ॥ १३० ॥ विधायोपधित देशवीक्षणं प्रतिलेखनैः । लब्धस्वेदरजः सूक्ष्मलतातिमृदुभिः पुनः ॥ १३१ ॥ तौ प्रमृज्योपधेर्यत्ना निक्षेपाऽऽदानयोः कृतिः । यतेरादाननिक्षेपसमितिः परिकीर्त्तिता ॥ १३२ ॥ त्रिकम् । कृष्टप्लुष्टादिदेशेंऽगिछिद्रहीने घने च यः । व्युत्सर्गोऽङ्गमलादेः स्याद्वयुत्सर्गसमितिर्यतेः ॥ १३३ ॥ वीक्षितेऽस्मिन्दिने हस्तबाह्यस्पर्शपरीक्षिते । रात्रौ सत्यंगिनो नो वेत्यंगिहीने तमुत्सृजते ॥ १३४ ॥ सीग्याढ्यश्चेव्दितीयेऽत्र तृतीये वांगिसंगते । विवशो विमृजेदल्पप्रायश्चित्तो यतिस्ततः ॥ १३५ ॥ यद्वद्वज्रतनुत्राणः शराऽऽसाराऽपराजितः । यतिः समितिगात्रत्रस्तद्वत्पापेषु दुर्जयः ॥ १३६ ॥ दोषेभ्यो गोपनं रक्षावतानां गुप्तिरिष्यते । सा मानसवचःकायदंडत्रितयदंडनी ॥ १३७ ॥ मनःपंचेन्द्रियेभेन्द्रस्वैरचारनिवारिणी । स्वगोचरे मनोगुप्तिर्ज्ञानध्यानरता मतिः ॥ १३८ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः। ४१ गजाश्वशस्त्रशास्त्रादिव्याख्यायाः क्लेशकारिणः । सत्यस्याऽपि निवृत्तिर्वाग्गुप्तिर्वाचंयमोऽथ वा॥१३९ ॥ कायावधक्रियात्यागः कायगुप्तिर्मताऽथ वा। कायोत्सर्गः समुत्सर्गः संगस्य द्विविधस्य यः ॥१४०॥ पुरस्य परिखा रक्षा क्षेत्रस्य च वृतिर्यथा। तथा व्रतानामेतास्तु गुप्तयो गुप्तयः स्मृताः॥१४१॥ परिहारेण दोषाणां शुद्धिर्यस्मिन्स संयमः । परिहारविशुद्धिः स्यादृद्धिरीदृग्विधस्य सा ॥ १४२ ॥ भुक्त्वा प्रोज्झितभोगस्य त्रिंशद्वर्षस्य जन्मनः । प्रत्याख्यानाख्यपूर्वाम्बुराशिपारगयोगिनः॥ १४३ ॥ समापृथक्त्वं तीर्थशपादपावनिवासिनः। त्यक्त्वा सन्ध्यात्रय नित्यं गव्यूतिद्वयगामिनः॥१४४॥ त्रिकम् । जीवराशौ चरंश्चैष पापालेपो यथांभसि । वसत्सरोजिनीपत्रं पयोलेपविवर्जितम् ॥ १४५॥ सूक्ष्मोऽल्पः सांपरायः कषायोऽस्मिन्निति संयमः। स्यात्सूक्ष्मसांपरायसामायिकद्वितयात्मकः॥१४६ ॥ यथा विरागं स्वं रूपं तथैवाऽऽख्यात इत्ययम् । यथाख्यातो मतोऽघौघघनसंघप्रभंजनः ॥१४७॥ सं सम्यग्दर्शनज्ञानपावनः पापघातनः। यो द्वन्द्वद्वितयस्य स्याद्यमस्त्यागः स संयमः ॥१४८॥ सम्यग्दृग्बोधमूलं व्रतसमितिततिस्कन्धशाखानुबन्धं शीलस्तोमप्रवालं गुणकुसुमगणं सत्सुखालीफलाविम् । गुप्तिवाताऽऽलवालाऽमृतपरिकलितं सत्वसंतापनोदं सम्यक्चारित्रकल्पद्रुममहमतुलं संश्रितोऽस्मीष्टपुष्टयै ॥१४९॥ मोहोद्दामतमोघटाविघटनः स्फारैर्विशेषोत्करैः दुर्वारापरदुःकृतोत्पलकुलप्लोषी जगद्वन्दितः। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे MARY प्रोन्मीलन्नवकेवलादिकमलः सन्मार्गसन्मंडनः स्तान्मच्चित्तनभःस्थले स्थिरतमश्चारित्रचण्डद्युतिः ॥१५०॥ नमिर्वरश्रीः प्रणयकभूमि र्जिनः स नः पातु दयानिधानः। अलं गलत्यार्जितकर्मजालं यस्येक्षणान्मंक्षु महोदयस्य ॥१५१ ॥ ॥ इति श्रीवीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणीते श्रीआचारसारनानि ग्रन्थे चारित्राचारवर्णनात्मकः पंचमोऽधिकारः ॥ ५॥ अथ षष्ठोऽधिकारः। - -- वन्दे मुदा श्रीशजिनाभिनन्दनं शश्वत्पदानम्रसुखाभिनन्दनम् । तपः स्फुरद्वह्निनिमग्नमन्मथं विनेयसन्दर्शितमुक्तिसत्पथम् ॥ १ ॥ तपः पोतेन येनाऽसौ संसारोरुसरित्पतिः । तीर्यते त्वरयेदानीं तत्तपः प्रतिपाद्यते ॥२॥ तपः प्राहुरनुष्ठानं मानसाक्षनियामकम् । बाह्याभ्यन्तरभेदं तत्प्रत्येकं षड्विधं मतम् ॥ ३ ॥ अनशनावमौदर्ये वृत्तिसंख्यारसोज्झिती। विविक्तशयनासनं कायक्लेशो बहिस्तपः ॥४॥ अशनत्यागोऽनशनं साकांक्षाकांक्षभेदगम् । तदाद्यमेकद्विव्यादिषण्मासानशनान्तगम् ॥ ५॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः। साकारसर्वतोभद्रसिंहनिःक्रीडितादयः। साकांक्षस्योपवासस्य भेदाश्चैकान्तरोदयः॥६॥ निःकांक्षोऽसौ भवेद्भक्तप्रत्याख्यानेंगिनीमृतिः । प्रायोपगमनेष्वायुरन्तसंन्यासकर्मसु ॥७॥ देहदर्पविनाशाय संयमद्वयसिद्धये । कुर्यादनशनं लाभसत्कारायनपेक्षया ॥ ८॥ ग्रासहीननिजाहाराङ्नाहाराशनव्रतम् । तपः स्यादवमौदर्यमक्षकक्षदवानलः ॥९॥ उपवासोतिमात्राशनोत्पन्नश्रमदोषहृत् । ध्यानस्वाध्यायनिद्रार्तिजयाद्यर्थमिदं मतम् ॥ १० ॥ वृत्तिर्वाटगृहाऽऽहारपात्रदातृषु वर्त्तनम् । संख्या तन्नियमो वृत्तिपरिसंख्या निजेच्छया ॥११॥ इयमाशानिरासायादीनताभावनाप्तये। गात्रयात्रानिमित्तान्नमात्रकांक्षस्य योगिनः ॥ १२॥ दधिक्षीराऽऽज्यतैलादेः परिहारो रसस्य यः। तपो रसपरित्यागो मधुरादिरसस्य वा ॥ १३ ॥ कायकान्तिमदाक्षेभक्षोभवारणकारणम् । परिहारो रसस्यायं स्याज्जितेन्द्रिययोगिनः ॥ १४ ॥ विविक्तऽध्ययनध्यानबाधकोत्करवर्जिते । शयनं चाऽऽसनं यत्तद्विविक्तशयनासनम् ॥१५॥ तरुकोटरशून्यागाराऽऽरामोऽधरादयः । विविक्ताः कामिनीषण्ढपशुक्षुद्रांगिवर्जिताः ॥ १६ ॥ सुखोपलालितः कायो नाल सद्ध्यानसिद्धये । तद्देहदमनं कायक्लेशः क्लेशैमतोचितैः ॥ १७॥ निर्दयं मर्दनीयोऽयं कायः क्लेशकरः पुरा । चिरं रिपुरितीवैषः कायक्लेशरतो यतिः ॥१८॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आचारसारे वीरस्वस्तिकवज्राब्जहस्तिशुण्डासनादयः। व्युत्सर्गः शवगोदंडचापशय्यादयश्च ते॥१९॥ तपो बाह्यमिदं बाह्यलोकानन्दैकमन्दिरम् । आभ्यन्तरतपः क्षीरसागरन्दुं नमाम्यहम् ॥२०॥ तत्प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं जगनुतम् । स्वाध्यायो भवेद्वयुत्सर्गो ध्यानं चाभ्यन्तरं तपः॥२१॥ येनागो गलति प्रत्नं प्रायश्चितं तदुच्यते । कर्म प्रायोजनस्तस्य चित्तं चेतोहरं यतः॥२२॥ आलोचनप्रतिक्रमणोभयानि विवेचनम् । व्युत्सर्गस्तपश्छेदमूलपरिहारदर्शनम् ॥ २३ ॥ प्रायश्चित्तस्य भेदाः स्युर्दशैवं तत्र संश्रये। दोषाणां यत्प्रमोदाद्यैराचं तेषां निवेदनम् ॥ २४॥ युग्मम् । ज्ञातश्रुतरहस्याय प्रशान्तस्वान्तवृत्तये। अपरित्राविणे शस्तैकान्तस्थायैव सूरये ॥ २५ ॥ विनयेनोपसृत्योपविश्य पार्श्वे कृतांजुलेः। वालवद्गहतोऽवक्रमित्येतत्स्याद्विशुद्धये ॥ २६॥ युग्मम् । आकंपिताऽनुमापितदृष्टवादरसूक्ष्मगम् ।। छन्नं शब्दाकुलं बह्वव्यक्ततत्सवितान्यपि ॥२७॥ दशेत्यालोचनाऽऽगांसि त्याज्यान्यात्महितैषिणा। सदा हि साधयन्त्यार्याः परलोकममायया ॥ २८॥ युग्मम् । ददात्यल्पं मम प्रायश्चित्तं भीत्यति सूरये । परोपकरणानां यदानमाकंपितं मतम् ॥ २९ ॥ ग्लानः क्लेशासहोऽस्म्यल्पं प्रायश्चित्तं ममार्ण्यते। चेद्दोषाख्यां करिष्यामीत्यादिः स्यादनुमापितम् ॥३०॥ परिरक्षितागः संकीर्तिः स्यादृष्ट बादरं स्मृतम् । स्थूलानामेव दोषाणामालस्याबैनिवेदनम् ॥ ३१ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः। ४५ सूक्ष्मागःकीर्तनं सूक्ष्मदोषस्याऽपि विशोधकः। इति ख्यात्यादिहेतोः स्यात्सूक्ष्म स्थूलोपगृहनम् ॥ ३२ ॥ दोषे सतीदृशे देयं किं प्रायश्चित्तमित्यलम्। प्रश्नः स्वच्छादनेन स्याच्छन्नं लज्जाभयादिभिः ॥ ३३ ॥ व्रतिव्रातघनध्वाने स्वदोषपरिकीर्तनम् । लज्जाद्यैः पाक्षिकादौ यत्तच्छब्दाकुलितं मतम् ॥३४॥ प्रायश्चित्तमिदं युक्तं न वेत्यल्पतदाशया। बहुसूरिपरिप्रश्नो यावदल्पं स बह्विति ॥ ३५ ॥ स्वसमानज्ञानतपोवालस्याऽऽलोचनं भवेत् । अव्यक्तं हृीभयप्रायश्चित्तभीत्यादिहेतुतः ॥ ३६॥ मादृशो वेत्यसावेव ममागोऽस्मै यदर्पितम् । तन्ममेति स्वदोषोक्तिरस्मै तत्सेवितं मतम् ॥ ३७ ॥ साऽऽमांगसंगतं यद्वन्नौषधं व्याधिबाधकम् । तथाऽनालोचनाशुद्धं नैनोनाशकरं तपः ॥ ३८ ॥ द्याश्रयं संयतानां स्यादार्यिकाणां त्रिगोचरम् । सप्रकाशप्रदेशे तु तच्चारित्रविभूषणम् ॥ ३९ ॥ आलोच्यार्पितप्रायश्चित्तवृत्तिविवर्जितः । सन्मंत्रनिश्चयेऽप्युद्योगोनवत्फलवर्जितः ॥४०॥ मिथ्यामदाऽऽगोऽस्त्वित्याद्यैर्यद्दोषेभ्यो निवर्तनम् । प्रतिक्रमणमल्पापराधस्यैकाकिनो मुनेः॥४१॥ स्यात्तदुभयमालोचनाप्रतिक्रमणद्वयम् । दुःस्वपदुष्टचिन्तादिमहादोषसमाश्रयम् ॥४२॥ परिहर्जुमशक्तस्य दोषं द्रव्यादिसंश्रयम् । तद्रव्यादिपरित्यागो विवेकः कथितोऽथ वा ॥४३॥ . अप्रासुकस्य सेवायां त्यक्तस्य प्रासुकस्य च। प्रमादेन पुनः स्मृत्वा स तदा तद्विसर्जनम् ॥ ४४ ॥ युग्मम् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे ध्युत्सर्गान्तमुहूर्तादिकालं कायविसर्जनम् । सद्ध्यानं तन्मलोत्सर्गनद्याद्युत्तरणादिषु ॥४५॥ तपः स्यादुपवासैकस्थानादिर्व्यसनादिभिः। व्रतातिचारे सत्येतत्प्रायश्चितं तु षडिधम् ॥ ४६ ॥ दिवसादितपश्छेदश्छेदसंयमपर्यये। सदर्पकृतदोषस्य चिरदीक्षहितैषिणः ॥४७॥ पुनर्दीक्षाग्रहो मूलं सर्वा पूर्वी तपःस्थितिम् । छित्वोन्मार्गस्थपार्श्वस्थप्रभृतिश्रमणेष्विदम् ॥४८॥ सच्चारित्रामृतापात्रं स्युः पार्श्वस्थः कुशीलकः। संसक्तोऽप्यवसन्नश्च मृगचारीति पंच ते ॥ ४९ ॥ वसत्युपधिसंगस्थः पार्श्वस्थः स्यात्कुशीलकः। संघाहितकरस्तीनकषायो व्रतवर्जितः॥५०॥ संसक्तो वैद्यमंत्रावनीशसेवादिजीवनः। ज्ञानचारित्रहीनोऽवसन्नः स्यात्करणालसः॥५१॥ स्वच्छन्दो यो गणं त्यक्तुं चरत्येकाक्यसंवृतः। मृगचारीत्यमी जैनधर्माऽकीर्तिकरा नराः॥५२॥ परिहारोऽनुपस्थापनपारंत्रिकभेदभाव । निजान्यगणभेदं तत्राद्य तत्राद्यमुत्तमम् ॥ ५३ ॥ द्वादशाब्देषु षण्मासषण्मासानशनं मतम् । जघन्यं पंच पंचोपवासं मध्यन्तु मध्यमम् ॥५४॥ द्वत्रिंशदंडदूरालयस्थेन वसतेर्यतीन् । सर्वान् प्रणमताऽपेतप्रतिवन्दनसाधुना ॥ ५५॥ स्वदोषाख्यातये पिच्छं विभ्राणेन पराङ्मुखम् । सूरीतरैः सहोपात्तमौनेनैतद्विधीयते ॥५६॥ प्रमादेनाऽन्यपाखंडिगृहस्थयतिसंश्रितम् । वस्तु स्तेनयतः किंचिच्चेतनाचेतनात्मकम् ॥ ५७ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः। ४७ यतीन्प्रहरतोऽन्यस्त्रीहरणादींश्च कुर्वतः। दशनवपूर्वज्ञस्य त्र्याधसंहननस्य तत् ॥ ५८ ॥ युग्मम् । करोति यदि दर्पण दोषान् पूर्वविभाषितान् । सोयमन्यगणानुपस्थापनेन विशुद्धयति ॥ ५९॥ प्रायश्चित्तं तदेवात्र किन्तु स्वगणसूरिणा। आलोच्य प्रेषितः सप्तसूरिपार्श्वमनुक्रमात् ॥ ६०॥ आलोच्य तैस्तैरप्राप्तप्रायश्चित्तोऽन्त्यसूरिणा। तमाद्यं प्रापितस्तेन दत्तं चरति पूर्ववत् ॥ ६१ ॥ युग्मम् । स्वधर्मरहितक्षेत्रे प्रायश्चित्ते पुरोदिते। चारः पारंचिकं जैनधर्मात्यन्तरतेर्मतम् ॥ ६२॥ संघोर्वीशविरोधांतःपुरस्त्रीगमनादिषु । दोषेष्ववंद्यः पाप्येष पातकीति बहिः कृतः॥६३ ॥ चतुर्विधेन संघेन देशान्निष्कासितोऽप्यदः । चरत्येवाऽऽर्यवैराग्यसत्त्वज्ञानबलो व्रती ॥ ६४ ॥ युग्मम् । दर्शनं यत्पुनस्तत्त्वश्रद्धानं तन्महाव्रतैः। सार्द्ध यतेः स्थितस्यत्वा मिथ्यात्वं तदुदीरितम् ॥६५॥ देशं कालं बलं ज्ञात्वा गणी वैद्यवदंगिनाम् । अल्पानल्पेषु दोषेषु कुर्यात्तद्विशोधनम् ॥ ६६ ॥ कृतागसैव कर्त्तव्यं प्रायश्चित्तं त्रिशुद्धितः। ग्लानस्यैव प्रयत्नेन युक्तमौषधसेवनम् ॥ ६७॥ दोषव्युदासनैः शल्यमर्यादा संयमस्थिति। स्वान्तप्रशान्तिसंपत्तिप्रमुखार्थमिदं मतम् ॥ ६८ ॥ विनयः स्याद्विनयनं कषायन्द्रियमर्दनम् । स नीचैर्वृत्तिरथवा विनया यथोचितम् ॥ ६९॥ सदृग्ज्ञानतपश्चारित्रोपचारप्रपंचकः । तत्र दृग्विनयत्यागः शङ्कादीनाममी च ते ॥ ७॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ आचारसारे शंकाऽऽकांक्षाजुगुप्साऽन्यहग्प्रशंसन संस्तवाः । नाम्ना ज्ञेयास्त्रयोन्त्यौ तु मनोवाग्विषये स्तुती ॥ ७१ ॥ द्रव्यादिशोधनं वस्तुप्रमाणावग्रहादिकम् । बहुमानः श्रुतज्ञेषु श्रुतज्ञाऽऽसादनोज्झनम् ॥ ७२ ॥ वयःशीलश्रुतोनाधिकाद्युपाध्यायकीर्त्तनम् । चानिह्नवेन येनाऽयं ज्ञानावरणकारणम् ॥ ७३ ॥ स्वराक्षरपदग्रन्थार्थाहीनाध्ययनादिकम् । स्याज्ज्ञानविनयः सम्यग्ज्ञानस्वर्मोक्षकारणम् ॥ ७४ ॥ त्रिकम् । आवश्यक क्रियाशक्तिर्नानोत्तरगुणोन्नतिः । तपस्तद्वत्प्रमोदश्च स्यात्तपोविनयो यतः ॥ ७५ ॥ भक्तिचारित्रवस्त्वन्यवृत्ताऽनिन्दनमुद्यमः । परीषहजयादौ च चारित्रविनयो मुनेः ॥ ७६ ॥ उपोपसृत्य यश्चारैः “ उपचारो " यथोचितः । स प्रत्यक्ष परोक्षात्मा तत्राद्यः प्रतिपाद्यते ॥ ७७ ॥ अभ्युत्थानं नतिः सूरावागच्छति सति स्थिते । स्थानं नीचैर्निविष्टेऽपि शयनोच्चासनोज्झनम् ॥ ७८ ॥ गच्छत्यनुगमो वक्तर्यनुकूलं वचो मनः । प्रमोदीत्यादिकं चैवं पाठकादिचतुष्टये ॥ ७९ ॥ युग्मम् । आचार्यादिष्वसत्स्वेवं स्थविरस्य मुनेर्गणे । प्रतिरूपकालयोग्या क्रिया चान्येषु साधुषु ॥ ८० ॥ आर्यादेशयमाऽसंयतादिषूचितसत्क्रिया । कर्त्तव्या चेन्यदः प्रत्यक्षोपचारोपलक्षणम् ॥ ८१ ॥ ज्ञानविज्ञानसत्कीर्तिर्नतिराज्ञाऽनुवर्त्तनम् । परोक्षे गणनाथानां परोक्षप्रश्रयः परः ॥ ८२ ॥ विना येन विहीनस्य भिक्षोः शिक्षाऽमृतश्रियः । संश्रयाय निदानं नो तथा चाभ्युदयश्रियः ॥ ८३ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः। जिनाज्ञावर्त्तनं कीर्तिमैत्री मानापनोदनम् ।। गुणानुरागिता संघसम्मदाद्याश्च तद्गुणाः॥ ८४ ॥ किमत्र बहुनोक्तेन पदं सर्वेष्टसंपदाम् । रत्नत्रयीविभूषायां येन मुक्तिनिबन्धनम् ॥ ८५ ॥ व्यापत्प्रतिक्रिया वैयावृत्त्यं स्यात्सूरिपाठके। तपस्विशैक्ष्यग्लानेषु गणे संघे कुले यतौ ॥ ८६ ॥ मनोज्ञेच तपस्व्येषु नानाऽनशनवर्तनः । शैक्षो ज्ञानादिसंशिक्षो ग्लानो नानागदार्दितः ॥ ८७॥ गणः स्थविरसन्तानश्चातुर्वर्ण्यकदम्बकम् । संघः स्याद्दीक्षकाऽऽचार्यशिष्याम्नायः कुलं मतम् ॥ ८८॥ चिरप्रव्रजितः साधुर्यतिः शेषो हि संयमी। दीक्षोन्मुखो मनोज्ञाख्योऽसंयतो वा सुदर्शनः ॥ ८९ ।। विद्याजात्यादिविख्यातो मिथ्यादृग्वाऽस्य संग्रहः। जिनप्रवचनस्यायं लोके गौरवकारकः ॥ ९०॥ [ पंचकम् ] परीषहसमाश्लेषेऽमीषां यच्छेमुषीमुदः । संपादनं त्रिरत्नात्यै वैयावृत्त्यं त्रिशुद्धितः ॥ ९१॥ आवासाशनपानाद्यैःप्रासुकैः क्लेशनाशिभिः । तदभावे स्वकायेन स्वोपकारानपेक्षया ॥ ९२ ॥ विण्मूत्रश्लष्मसिंघाणकादेहादपोहनात् । । यत्नेनोत्क्षेपनिक्षेपपरिवर्तक्रियादिभिः ॥ ९३ ॥ अस्मिन्निर्विचिकित्सत्ववत्सलत्वसनाथता। यशोऽभ्युदयनिश्रेयःसुखाप्तिप्रमुखा गुणाः ॥९४ ॥ स्वस्मै योऽसौ हितोऽध्यायः स्वाध्यायो वाचनादिकः । तपो वर्यमतो नान्यत्तपःसु द्वादशस्वपि ॥ ९५ ॥ नोर्ध्वमन्तर्मुहूर्तात्सध्यदानमध्ययनं पुनः। सदैनोनिर्जराकारि किन्तु न स्यात्कृतात्मनाम् ॥ ९६ ।। ___ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे मनः सदर्थे वाक् पाठे वर्णेऽक्षणी तच्छ्रुतौ श्रुती। प्रसक्ते निष्क्रियेऽक्षेऽन्ये तदैकाग्यमिहाप्यलम् ॥ ९७ ॥ अस्मात्तत्त्वपराभ्यासः प्रशमश्च विरागता। भवेत् प्रभावनैकान्तवादिमानप्रमर्दनम् ॥ ९८॥ शरीरान्तर्बहिःसंगसंगव्युत्सर्जनं मुनेः। व्युत्सर्गः स्यात्समीचीनध्यानसंसिद्धिकारणम् ॥ ९९॥ ध्यानं तपः परं चित्तैकार्थलीनप्रवर्तनम्। कीर्त्यतेन्तर्मुहूर्तावस्थानं स्वर्मोक्षसाधनम् ॥१०॥ विशिष्टमिष्टं घटयत्युदारं दूरस्थितं वस्त्वतिदुर्लभं च । जैनं तपः किंबहुनोदितेन स्वर्गश्रियं चाक्षयमोक्षलक्ष्मीम् १०१ नमोऽस्तु तस्मै मुनिसुव्रताय साक्षात्कृतन्यक्षचराचरो यः। व्रतानि सत्त्वैकहितानि यस्य सन्ति क्रमप्रह्वजगत्रयस्य ॥१०२ ॥ इति श्रीमद्वीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणीते श्रीआचारसार. नाम्नि ग्रन्थे तपआचारवर्णनात्मकः षष्ठोधिकारः ॥६॥ अथ सप्तमोऽधिकारः॥७॥ सदृत्तिः सुमतिः पतिस्त्रिजगतां नेता विमुक्तेः सृतेर्यस्यात्यद्भुतचित्तशक्तिहुतभुग्ज्वालाकलापैरलम् । तन्मार्गानुगमार्गबन्धनमहासंघातिनिर्बन्धिनः प्लुष्टो दुष्टपरीषहोगटभटः सोऽयं जिनः पातु नः॥१॥ क्षुत्तुदशीतमलोष्णदेशमशंकर्यारोगशय्यातृणस्पर्शक्लेशवधानलाभमरतिं निर्दर्शनं स्त्रीलमम् । प्रज्ञाऽज्ञानभवौ सनाग्न्यशयनान्सत्कारयाञ्चानिषयोद्भतांश्च परीषहान्विजयते यो वीर्यचर्यो यतिः॥२॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः। ५१ क्षुत्तीक्ष्णानशनादिजाक्षनिकरं स्वज्ञेयवीक्षाक्षम स्वान्तं भ्रान्ततरं करोति बलवत्प्राणान्प्रयाणोन्मुखान् । याऽन्यादीनजनेऽफलाऽतिसफला त्यागात्तपः पुष्टये तस्या धृत्यमृताशनेन शमनं कुर्वन्व्रती क्षुज्जयः ॥३॥ चंडचंडकरः स्थलस्थितपयः संचारिणः प्राणिनो भ्रष्टप्लुष्टतनूंस्तनोति नितरां यस्मिस्तपे तापने। तस्मिन् स्निग्धविरुद्धभोजनरुजाऽऽतापादिपुष्यत्तृषां त्यक्ते निःस्पृहतामृतेन कृतार्मुष्णाति तृष्णाजयः॥४॥ प्रोत्कंपा हिमभीमशीतपवनस्पर्शप्रभिन्नांगिनो यस्मिन्यान्त्यतिशीतखेदमवशाः प्रालेयकाविङ्गिनः । तस्मिन्नस्मरतः पुरा प्रियतमाश्लेषादिजातं सुखं योगागारनिरस्तशीतविकृतेर्निर्वाससस्तज्जयः ॥५॥ प्राणाघातविभीतितस्तनुरतित्यागाच्च भोगास्पृहः स्नानोद्वर्तनलेपनादिविगमात्प्रस्वेदपांसूदितम् । लोकानिष्टमनिष्टमात्मवपुषः पामादिमूलं मलं गोत्रत्राणमिवादधाति वृजिनं जेतुं मलक्लेशजित् ॥६॥ ग्रीष्मे शुष्यदशेषदेहिनिकरे मार्तडचंडांशुभिः संतप्तात्मतनुस्तृषानशनरुक्क्लेशादिजातोष्णजम्। शोषस्वेदविदाहखेदमवशेनाप्तं पुराऽपि स्मरन् तन्मुक्त्यै निजभावभावनरतिः स्यादुष्णजिष्णुव्रती ॥ ७ ॥ शून्यागारदरीगुहादिशुचिनि स्थाने विविक्ते स्थितस्तीक्ष्णैर्मत्कुणकीटदंशमशकाद्यैश्चंडतुंडैः कृतां। स्वांगाति परदेहजार्त्तिमिव तां यो मन्यमानो मुनिनिःसंगः स सुखी च दंशमशकक्लेशं क्षमी तं नुमः ॥ ८॥ शार्दूलैर्मिलितेच्छभल्लभुजगाऽऽभोगे भयैकास्पदे गन्धान्धद्विरदोत्करे करिरिपुकडैिकनीडे वने । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आचारसारे स्वैरं कण्टककर्करादिपरुषेऽप्यत्राणपादश्वरनेकः सिंह इवार्तिभीतिविजयी व्रज्यार्तिजित्संयमी ॥ ९ ॥ कंडू या गलगंडपांडुवथुग्रन्थिज्वरश्लीपदश्लेष्मोदुंबरकुष्ठपवनश्वासादिरोगार्दितः । भिक्षुः क्षीणबलोऽपि भेषजसुहृन्मंत्रानपेक्षः क्षमी दुःकर्मारिविनिर्मिताऽऽर्तिविजयी स्याद् व्याधिबाधाजयः ॥ १०॥ झंझावात हतार्तकौशिकशिवा फेत्कारघोरस्वरां शंपाक्रूररदां स्फुरनुचितडिज्जिह्वां क्षपाराक्षसीम् । यो तं द्राग्गमयत्यसौ शयनजातायासजिद्धीरधीर्ध्वान्तात्यन्तकरालभूधरदरीदेशे प्रसुप्तः क्षणम् ॥ ११ ॥ श्रान्तः सन् श्रुतभावनाऽनशनसङ्ख्यानाऽध्वयानादिभिः स्तोकं कालमतिश्रमापहृतये शय्यानिषद्ये भजन् । शुद्धोर्वीतृणपत्रसंस्तरशिलापट्टेषु तत्पीड़नः कंड्यादिसहो भवेदिह तृणस्पर्शक्षमी संयमी ॥ १२ ॥ रुष्ठैः पूर्वभवापकारकलनात्तज्जन्मवैरात्खलै-म्लेच्छोर्नः करुणैरकारणगुणद्वेषैश्च पापात्मकैः । देहच्छेदन भेदनादिविधिना यो मार्यमाणोऽप्यलं देहात्मात्मविभेदवेदनभवक्षान्तिर्वधार्तिक्षमी ॥ १३ ॥ हो ! देह ! सहायतां तव समुद्दिश्यैव पोष्यो मया पूर्त्तो मत्तपसो गृहावविमतो भ्रान्त्वाऽप्यनाप्तेऽशने । दोषः कोऽपि न विद्यते मम पुनर्लाभादलाभक्षमा तां पूर्ति प्रतनोत्यतः प्रियतमैषैवेत्यलाभक्षमा ॥ १४ ॥ दुर्बीरेन्द्रियवृन्दरोगनिकर क्रूरादिबाधोत्करैः प्रोद्भूतामरतिं व्रतोत्करपरित्राणे गुणोत्पोषणे । मंक्षु क्षीणतरां करोत्यरतिजिद्वीरः स वंद्यः सतां यो दंड दंडनाहितमतिः सत्यप्रतिज्ञो व्रती ॥ १५ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः । ५३ वर्ण्यन्ते बहवस्तपोऽतिशयजाः सप्तद्धिपूजादयः प्राप्ताः पूर्वतपोधनैरिति वचोमात्रं तदद्यापि यत् । तत्त्वज्ञस्य ममाऽपि तेषु न हि कोऽपीत्यार्त्तसंगोज्झिता चेतोवृत्तिरदृक्पषिहजयः सम्यक्त्वसंशुद्धितः॥ १६ ॥ जेता चित्तभवस्त्रयस्य जगतां यासामपांगेषुभिस्ताभिर्मत्तनितंबिनीभिरभितः संलोभ्यमानोऽपि यः। तत्फल्गुत्वमवेत्य नैति विकृतिं तं वर्दीधैर्मन्दिरं वन्दे स्च्यार्त्तिजयं जयन्तमखिलानर्थ कृतार्थ यतिम् ॥ १७ ॥ प्रत्यक्षाऽक्रमविश्ववस्तुविषयज्ञानात्मनः स्वात्मनो गर्वः सर्वमतश्रुतज्ञ इति यः प्राप्ते परोक्षे श्रुते । सर्वस्मिन्नपि नो तनोति हृदये लज्जां स किं तामिति प्रज्ञोत्कर्षमदापनोदनपरः प्रज्ञार्तिजित्तत्त्ववित् ॥१८॥ ज्ञानध्यानरता मतिर्मम तपस्तीनं न चोत्पद्यते ज्ञानं पूर्णमयं जडः पशुरिति श्रोतुं वचोऽहं क्षमः । नेत्यज्ञानपरीषहं स सहते प्रत्यक्तवस्तुस्थितिर्यः कार्य भवति स्वहेतुयुगले सत्येव नेत्यन्यथा ॥ १९ ॥ भूषावेषविकारशस्त्रनिचयत्यागात्प्रशस्ताकृतेर्बालस्येव मनोजजातविकृतिश्चितस्य लज्जेति ताम् । हित्वा मातृसमानमेव सकलं कान्ताजनं पश्यतः पूज्यो नाग्न्यपरीषहस्य विजयस्तत्त्वज्ञतापोदयः॥२०॥ वर्णी कर्णहृदां विदारणकरान् कूराशयैः प्रेरितानाक्रोशान् घनगर्जतर्जनखरान् शृण्वन्नशृण्वन्निव । शक्त्याऽत्युत्तमसंपदाऽपि सहितः शान्ताशयश्चिन्तयन् यो बाल्यं खलसंकुलस्य शयनक्लेशक्षमी तं स्तुवे ॥ २१ ॥ ख्यातोऽहं तपसा श्रुतेन च पुरस्कार प्रशंसां नतिं भक्त्या मे न करोति कोऽपि यतिषु ज्येष्ठोऽहमेवेति यः। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आचारसारे ग्लानिं मानकृतां न याति स मुनिः सत्कारजातार्तिजिदोषो मे न गुणा भवन्ति न गुणा दोषाः स्युरित्यन्यतः ॥ २२॥ प्राज्यं राज्यमुदस्य शाश्वतपदप्राप्त्यै तपोवृंहणे देहो हेतुरयं हि भुक्त्यनुगता चास्य स्थितिस्तत्कुतः । भिक्षायै भ्रमणं हियः पदमिदं यस्मान्महार्थास्पदं नीचैर्वृत्तिरनिन्दितेति विचरन् याञ्चाजयः स्यान्मुनिः ॥ २३ ॥ सर्वाशाशसहान्धकारपुरुजाऽऽयामां त्रियामां यमी योगैर्योगमयत्यवार्यमहिमाऽऽभोगेर्मुहूर्त्त यथा । क्षेत्रे स्त्रीजन पश्ववद्यरहिते हृद्ये निषद्यास्थितः सन्नत्युग्रनिशाचराप्रतिहतध्यानो निषद्याजयी ॥ २४ ॥ देशं कालं स्वकीयं बलमपि नृपतिः सम्यगालोच्य यद्वच्छव्रातस्य जेता भवति यतिरपि स्वीयकर्मोदयेन । जातस्यास्यार्त्तिजातोद्भटभटकटकस्योरुधैर्यस्तथा यः सोऽयं स्याद्वर्यवीर्याचरणचणनुतो वीरलक्ष्मीनिवासः ॥ २५ ॥ चक्रं विक्रममानमर्दनमुरुज्यां प्राज्यराज्यं च यः कुन्धुर्मन्थविरागतातिशयतस्त्यक्त्वात्मरूपाप्तये । तत्प्राप्तौ तु परं क्षमादिकमरं तद्धर्मचक्रं दधद्वंद्योऽभूद्भवनत्रयस्य तदिदं चित्रं चरित्रं मुनेः ॥ २६ ॥ इति श्रीमद्वीरनन्दिसिद्धान्ति चक्रवर्त्तिप्रणीते श्रीआचारसारनाम्नि शास्त्रे वीर्याचारवर्णनात्मकः सममोऽधिकारः ॥ ७ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः । अथाष्टमोऽधिकारः ॥८॥ पद्मप्रभं कोकनदोदरप्रभं पद्माविनोदायतनं सनातनम् । सर्वात्मनीनोरुदयं महोदयं जिनेश्वरं नौमि विशुद्धधीश्वरम् ॥१॥ शुद्धयोऽष्टौ विधीयन्ते पंचाचारविशुद्धये। भूषा मनोहराऽऽकारस्याऽतिशोभाश्रिये न किम् ॥ २॥ स्युर्भाववाक्यकायेर्याभिक्षाविनयसंश्रयाः। शयनाऽऽसनव्युत्सर्गगेति चेत्यष्टशुद्धयः॥३॥ सदाऽपेतप्रमादा या वाचनादिरता मतिः। शंकादिङमलापता मार्दवादिगुणान्विता ॥४॥ स्याद्भावशुद्धिराचारः सत्यामस्यां प्रवर्द्धते । यद्वदुप्तो विशुद्धोव्यां सम्यग्बीजबजस्तथा ॥५॥ (युग्मम् ) कन्या प्रदानयोग्येयं क्षेत्रादिलवनोचितम् । प्रोत्खाताः परिखाः कूपवाप्यः शास्या दुरीहिताः ॥ ६ ॥ गीतवादित्रनृत्यानि हृद्यानीयं वरांगना। भेटेभमल्लयुद्धानि सुकृतानि वनं वरम् ॥ ७॥ रोग्यंधः पंगुरित्यादिव्यवहारा श्रिता प्रियासंयतोचितवाकूत्यागाद्देशकालसभोचिता॥ ८॥ मृदुमधुरगभीरा वाङ्मोक्षमागोपदेशना। वाक्यशुद्धिर्गुणांभोधिविधुदीधितिरीरिता ॥९॥(चतुष्कम् ) विभंभोपादिका लोकस्याऽस्तसंस्कारसंहतिः। कायशुद्धिः क्षमा मूर्तिभूतेवाऽऽभाति निस्पृहा ॥ १० ॥ विरागतालतोद्भूतिभूमि तिविवर्जिता। जातरूपमनोहारिण्येषां भूषा तपःश्रियः ॥ ११ ॥ ( युग्मम् ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ आचारसारे भयविस्मयविभ्रान्तिलीलाविकृतिलंधनप्रधावनाद्यपेतेर्यापथशुद्धिर्दयान्विता ॥ १२ ॥ समाहितप्रशान्ताङ्गा प्रलंबितकरा वरा। गतिश्चारित्रसंपत्तिहेतुर्नीतिरिव श्रियः॥१३॥ आरंभः प्राणिनःप्राणव्यपरोप उपद्रवः । उपद्रवणमंगच्छेदादिर्विद्रावणं मतम् ॥ १४॥ संतापकरणं तस्य परितापनमेतकैः। चतुर्भिरत्नं निष्पन्नमधः कर्मातिनिन्दितम् ॥ १५ ॥ (युग्मम् ) वाक्चित्तकायकारितकृतानुमतकर्मणा। नवभेदं तदेतेन कर्मणा परिवर्जिता ॥ १६ ॥ योद्गमोत्पादनैषणदेषैिः संयोजनेन च । प्रमाणांगारधूमाख्यैर्व्यपेता कारणान्विता ॥१७॥ एषणासमितिप्रोक्तकमाप्ताशनसेवना। भिक्षाशुद्धिर्गुणत्रातरक्षादक्षा स्मृता नुता ॥१८॥ (त्रिकम् ) उद्दिष्टाध्यवधिपूतिमिश्राणि स्थापितं वलिः। प्राभृतं च प्राविःकृतं क्रीतप्रामुष्यसंज्ञकौ॥ १९ ॥ परिवृतश्चाभिहतं दोष उद्भिन्ननामकः। मालिकाऽऽरोहणा छेद्या निसृष्टानीति चोद्गमाः२०॥ (युग्मम्) यत्स्वमुद्दिश्य निष्पन्नमन्नमुद्दिष्टमुच्यते। अथ वा यमिपाखंडिदुर्बलानखिलानपि ॥ २१ ॥ प्रगता यस्मादसवस्तत्स्यात्प्रासुकमित्यलम् । शुद्धमप्यन्नमात्मार्थ कृतं सेव्यं न संयतैः॥ २२॥ मत्स्यार्थ वा कृते मत्स्या माद्यन्ति मदनोदके। नो दर्दुरास्तथा भिक्षुर्दोष्युद्दिष्टान्नसेवकः ॥ २३॥ तंदुलांब्वधिकक्षेपः स्वार्थ पाके यतीन्प्रति। स्यादध्यवधिरोधो वा पाकान्तं तत्तपस्विनाम् ॥ २४॥ ___ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः। ५७ पूति प्रासुकपात्रादि मिश्रमप्रासुकेन यत् । मिश्रसंगे हि पाखंडियतिभ्यो यद्वितीर्यते ॥ २५ ॥ स्वगृहेऽन्यगृहे वा यत् स्थापितं पाकभाजनात् । अन्यस्मिन् भाजनेऽन्नादि निक्षिप्य स्थापितं मतम् ॥ २६ ॥ यक्षादेवलिदानावशिष्टाहारो बलिर्मतः। संयतागमनार्थ वा करणं बलिकर्मणः ॥ २७ ॥ वेलादिवसमासर्तुवर्षादिनियमेन यत् । यतिभ्यो दीयमानान्नं प्राभृतं परिकीर्तितम् ॥ २८ ॥ गेहप्रकाशकरणं यत्याविष्कृतमीरितम् । संस्कारो भाजनादीनां वा स्थानान्तरधारणम् ॥ २९॥ विद्याद्रव्यादिभिः क्रीतं क्रीतं प्रामृष्यमिष्यते । स्तोकर्ण वृद्धयवृद्धिभ्यां यतिदानार्थमर्जितम् ॥ ३०॥ व्रीहिरादिभिः शालिकूरादेः परिवर्तनम् । यद्दास्यामीति यतये परिवर्तः प्रकीर्तितः॥ ३१॥ स्यादायातमभिहतं ग्रामवारगृहान्तरात् । योग्यमृजुसमासन्ना ऽऽलप्तमाद्गहतो यदि ॥ ३२ ॥ विमुद्रादिकमुद्भिनं मालिकाऽऽरोहणं मतम् । मालिकादिसमारोहणेनातीतं धृतादिकम् ॥ ३३ ॥ नृपतस्करभीत्यादेर्दत्तमाच्छेद्यमुच्यते । अनिसृष्टमीशानीशाऽनभिमत्या यदर्यते ॥ ३४ ॥ धात्रीदूतभिषग्वृत्तिनिमित्तेच्छाविभाषणम्। पूर्व पश्चात्स्तुतिः क्रोधचतुष्कं वश्यकर्म च ॥३५॥ स्वगुणस्तवनं विद्यामंत्रचूर्णोपजीवनम् । चेत्येते षोडशोत्पादनाख्या दोषा विभाषिताः ॥ ३६ । बाललालनशिक्षादिर्धात्रीत्वं दूतता मता। दूरबन्धुजनानां वाग्मयनानयनक्रिया ॥३७॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आचारसारे गजाऽश्वजांगुलीबालवैद्यार्नीचवृत्तिभिः । भिषग्वृत्तिर्मता तादृगन्यैरप्यशनाऽर्जनम् ॥ ३८॥ स्वरान्तरिक्षभौमांगव्यंजनच्छिन्नलक्षणस्वमाष्टांगनिमित्तैर्यनिमित्तमशनार्जनम् ॥ ३९ ॥ दीनाद्यन्नाद्यदानेन पुण्यं ननु भवेदिति। पृष्ठेऽभ्युपगमानार्थ भवेदिच्छाविभाषणम् ॥४०॥ दाता ख्यातस्त्वमित्याद्यैर्यद्गह्यानन्दनन्दनम् । पूर्व पश्चाच्च भुक्तेस्तत्पूर्व पश्चात्स्तवद्वयम् ॥४१॥ क्रोधाद्यन्नार्जनं क्रोधचतुष्कं वश्यकर्म यत् । वश्यकृन्मंत्रतंत्रादिदेशनेनाशनार्जनम् ॥ ४२ ॥ स्वतपः श्रुतजात्यादिवर्णनं स्वगणस्तवः । विद्यागः सिद्धविद्यादिप्रभावादिप्रदर्शनम् ॥ ४३॥ पाठसिद्धादिमंत्राणामङ्गशृंगारकारिणः। चूर्णादेर्देशने स्यातां मंत्रचूर्णोपजीवने ॥४४॥ दोषाः शंकितम्रक्षिते निक्षिप्तं पिहितोज्झिते। व्यपहारो दातृमिश्रापक्वलिप्ता दशैषणाः ॥४५॥ शंकितं शंकितं सेव्यमेतदन्नं न वेति यत् । सस्नेहहस्तपात्रादिदत्तं यन्म्रक्षितं मतम् ॥ ४६ ॥ सचित्रपद्मपत्रादौ क्षिप्त निक्षिप्तसंज्ञितम् । सचित्तेनाब्जपत्रादिना वृतं पिहिताशनम् ॥४७॥ स्यादुज्झितं बहु त्यक्त्वा यच्चताद्यल्पसेवनम् । पानादि दीयमानं वाऽनल्पेन गलनेन तत् ॥४८॥ यत्यर्थ संभ्रमाच्चेलपात्रादेरसमीक्ष्य यत् । समाकर्षणमाम्नातं व्यपहार इति श्रुते ॥ ४९ ॥ नग्नः शौण्डः पिशाचोऽन्धः पतितो मृतकाऽनुगः। तीव्ररोगी व्रणी विंगी नीचोच्चस्थानसंस्थितः ॥५०॥ ___ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः । आसन्नगर्भिणी वेश्या दास्यन्तरिताऽशुचिः । भक्षयन्ति किमप्येवमाद्या दोषास्तु दातृगाः ॥ ५१ ॥ ( युग्मम् ) मिश्रं षट्जीवसम्मिश्रमपक्कं पावकादिभिः । द्रव्यैरत्यक्तपूर्वस्ववर्णगन्धरसं विदुः ॥ ५२ ॥ लिप्तमप्रासु कैस्तोय मृत्तिकातालकादिभिः। लिप्तैर्दर्वी कराद्यैर्यदीयमानाशनादिकम् ॥ ५३ ॥ स्वादार्थमन्नपानानां यत्संयोजनकर्म तत् । प्रोक्तं संयोजनं नानारोगाऽसंयम कारणम् ॥ ५४ ॥ अन्नेनार्द्ध तृतीयांशं कुक्षः पानेन पूरयेत् । वायोः सुखप्रचारार्थं चतुर्थमवशेषयेत् ॥ ५५ ॥ प्रमाणादतिरेकोऽस्मात्प्रमाणागो भवेद्यतः । ध्यानाध्ययनभंगार्ति निद्राऽऽलस्यादयोंऽगिनः ॥ ५६ ॥ रागेणेष्टान्नपानाप्तौ सेवांगारो निगद्यते । धूमोऽनिष्टान्नपानाप्तौ यद् द्वेषेण निषेवनम् ॥ ५७ ॥ क्षुच्छान्त्यावश्यकप्राणरक्षाधर्मयमा मुनेः । वैयावृत्त्यं च षट् भुक्तेः कारणानीति यन्मतम् ॥ ५८ ॥ ततः शरीरसंवृद्धयै तत्तेजोबलवृद्धये । स्वादार्थमायुः संवृद्धयै नैव भुंजीत संयतः ॥ ५९ ॥ महोपसर्गाissiniगसंन्यासांगिदयातपोब्रह्मचर्याणि भिक्षोर्षट् कारणान्यशनोज्झने ॥ ६० ॥ एतद्दोषविहीनान्नभुक्तेरन्तरकारिणः । अन्तरायाः कियन्तोऽत्र वर्ण्यन्ते वर्णिनामिमे ॥ ६१ ॥ रसपूयाऽस्थिमांसासृक्चर्मामिध्यादिवीक्षणम् । काकाद्यमेध्यपातोंगे वमनं स्वस्य रोधनम् ॥ ६२ ॥ अश्रुपातच दुःखेन पिंडपातः स्वहस्ततः । काकादिपिंडहरणं पतनं त्यक्तसेवनम् ॥ ६३ ॥ ५९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे पादान्तरालात्पंचाक्षगतिः पंचेन्द्रियात्ययः। स्वोदरकृमिविण्मूत्ररक्तपूयादिनिर्गमः ॥ ६४ ॥ निष्ठीवनं सदंष्ट्रांगिदशनं चोपवेशनम् ।। पाणिपात्रेऽत्र सांगास्थिनखरोमादिदर्शनम् ॥६५॥ प्रहारो ग्रामदाहो ऽशुभोग्रबीभत्सवाक्श्रुतिः। उपसर्गाः पतनं पात्रस्यायोग्यगृहाशनम् ॥६६॥ जानुदेशाधः स्पर्शश्चेत्येवं बहवो मताः। लोकसंयमवैराग्यजुगुप्साभवभीतिजा॥६७॥ षभिः कुलकम्। ज्ञात्वा योग्यमयोग्यं च द्रव्यं क्षेत्रत्रयाश्रयम् । चरत्येव प्रयत्नेन भिक्षाशुद्धिमतो यतिः ॥ ६८ ॥ कुलचिजातिरूपाज्ञातपोज्ञानबलोद्भवैः । मदैविहीना विनये शुद्धिः सद्गुणसन्नतिः ॥ ६९ ॥ कार्याऽहत्सिद्धोपाध्यायसूरिसाध्वादिकेष्वसौ। समीक्ष्य क्षेत्रकालाऽवस्थासभादि यथागमम् ॥ ७० ॥ नाऽत्यासन्नो न दूरस्थो न पार्श्वस्थो न पृष्ठगः । नोच्चस्थो वा गुरुं पृच्छेत्पृच्छेदभिमुखो नतः ॥७१ ॥ स्यिते स्थित्वोपविष्टे सत्युपविश्य गुरौ स्फुटम् । श्रद्धामार्दवभक्त्या ऽऽर्जवादियुक्तः कृतांजुलिः ॥७२॥ वक्तर्यन्यकथास्तस्मिन्विक्षेपोत्पादकं वचः । तत्पावें स्वैरवाग्वृत्तिप्रवृत्ती च त्यजेद्यतिः ॥ ७३ ॥ संस्तरोत्क्षेपनिक्षेपप्रमुखैः परिकर्मभिः। शर्म संपादयेत्सूरेः शमॆषी विनयान्वितः ॥ ७४॥ श्रुत्वोक्तेः स्खलितं नैव हसेत्कस्याऽपि नो वदेत् । अप्रियं हर्षामर्षाभ्यां न कुर्यात्परपीडनम् ॥ ७५॥ इयं विनयशुद्धिर्नुभूषाऽशेषगुणश्रियः। कारणं सुखदं नान्यदिहाऽमुत्र च देहिनाम् ॥ ७६॥ ___ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः । अनात्मोद्देशनिष्पन्ने निरारंभेऽन्यसम्मते। शून्यागारादिदेशे न न स्त्रीक्षुद्रनटादिके ।। ७७॥ व्युत्सर्गादिश्रमोच्छित्त्यै शयनाऽऽसनयोः कृतिः। यतेरत्यल्पकालं सा शयनाऽऽसनशुद्धिधीः ॥७८॥ (युग्मम् ) चूर्णीकृत्य नखात्केशान्विश्लिष्यकैकमुत्सृजेत् । अनुल्बलणमलेपं च श्वेलसिंहाणकादिकम् ॥ ७९ ॥ वीक्ष्य पूर्वापरोर्ध्वाधःपार्श्वभागान्पुरोदिते। स्थाने प्रस्रवणाच्चारं वातं निःशब्दमुत्सृजेत् ॥ ८॥ पश्चाच्छुचिं प्रकृत्येष्टकाविकृत्यादिभिः पुनः। स्यात् क्षालिताऽऽसनकरः सौवीरोष्णजलादिभिः॥८१॥ जरारुजार्दितः कायं संन्यासेन त्यजेदिति। व्युत्सर्गशुद्धिः संशुद्धिं विधत्ते यमिनामियम् ॥ ८२ ॥ पुष्टिं विशिष्टामियमष्टशुद्धिर्विशुद्धभावैः परिभावितेह । करात पंचाचरणस्य यद्वत् सौरीमरीचिः सरसीजलक्ष्मीम८३ छत्रत्रय यस्यं जगत्रयस्य स्वामित्वसंकीर्तिपरं रराज। सन्मंगलं वःस जिनोऽस्तु देवः श्रीवासुपूज्यो भुवनत्रयेड्यः८४ इति श्रीमद्वीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणिते श्री 'आचारसार' नाम्नि शास्त्रे शुद्ध यष्टकवर्णनात्मकोऽष्टमोऽधिकारः ॥ ८॥ नवमोऽधिकारः ॥९॥ श्रीमांस्त्रिलोक्या कृतपादसेवो यः सर्वसत्त्वामृतदिव्यरावः । स्वादिष्टदः सोऽनुपप्रभावः सुपार्श्वदेवो भवकक्षदावः ॥१॥ आवश्यकक्रियाऽवश्यं कार्य कर्माऽवशस्य वा। मुनेः कर्मोदितं सेति कषायाक्षोऽवशोऽवशः॥२॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आचारसारे सा षड्विधोदितत्येवं समतास्तववन्दनम् । सप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायविसर्जनम् ॥ ३ ॥ स्यान्नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्विधा । समता नाम समतैतस्या नाम स्ववाचकम् ॥ ४ ॥ जीवाजीवोभयेष्टार्थजातिद्रव्यगुणक्रिया । नामोत्पत्तिनिमित्तानपेक्षं यन्नाम तन्मतम् ॥ ५ ॥ यत्सेयमित्यभेदेन सदृशेतरवस्तुषु । स्थापनं स्थापनं वाऽर्हत्प्रतिकृत्यक्षतादिषु ॥ ६ ॥ द्रव्यं भविष्यत्पर्यायं गतार्पितविवर्ति च । तदूद्वेधाऽऽगमो नोआगमश्चेत्याद्यस्तयोरयम् ॥ ७ ॥ जीवः स्यादुपयोगो नो विज्ञातसमतागमः । आगमादन्यो नोआगमाख्यः स त्रिविधो यथा ॥ ८ ॥ ज्ञायकांगं भविष्यंस्तद्व्यतिरिक्तमिति त्रिधा । तेष्वाद्यं भाव्यतिक्रान्तवर्त्तमानविकल्पतः ॥ ९ ॥ आधाराऽऽधेयधर्मोपचारेणांगत्रयस्य च । तत्त्वं धनुःशतं भुंक्ते धावतीत्यत्र वा तथा ॥ १० ॥ स्याच्च्युतं च्यावितं त्यक्तमित्यतीतं त्रिभेदगम् । च्युतं त्यागं विनाऽऽयुष्यक्रमक्षयगतात्मकम् ॥ ११ ॥ च्यावितं कदलीघातपतितं त्यागवर्जितम् । त्यक्तं भक्तादिकत्यागैर्घाताऽघातगतात्मकम् ॥ १२ ॥ विषास्त्रघातभीरक्तक्षयसंक्लेशवेदना- । ऽऽहारोच्छ्रासनिरोधाः स्युरायुष्यच्छेदकारिणः ॥ १३ ॥ स्याद्भाव्यर्पितपर्यायो भविष्यन्राजनामभाक् । भविष्यद्राजपर्यायो वोपचारान्नृपात्मजः ॥ १४ ॥ कर्मनो कर्मभेदं स्यात्तृतीयं तत्र कर्म यत् । चरित्रमोहमन्दानुभावद्रव्यैनसस्ततिः ॥ १५ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः। नोकर्ममृत्सुवर्णाश्ममाणिक्याऽहिस्रगादिकम् । समताकारणं बाह्यभावभावावलोकिनः ॥ १६ ॥ अर्पितेन विवर्तेन वर्तमानेन संयुतम् । द्रव्यं भावो भवेद्भावमात्रं वा विनयाश्रयः ॥ १७ ॥ भाव आगमनोआगमद्विभेदस्तयोर्भवेत् । आगमः समताशास्त्रार्थोपयोगयुतो यतिः ॥१८॥ द्विभेद उपयुक्तस्तत्परिणत इतीतरः। शास्त्रं विनोपयुक्तोऽस्यामुपयुक्त इति स्मृतः ॥ १९ ॥ सं यः स्वार्थनिवृत्त्यात्मनेन्द्रियाणामयोऽयनम् । समयः सामायिकं नाम स एव समताह्वयम् ॥ २०॥ समस्यारागरोषस्य सर्ववस्तुष्वयोऽयनम् । समायः स्यात्स एवोक्तं सामायिकमिति श्रुते ॥२१॥ समतोपेतचित्तो यः स तत्परिणताह्वयः । प्रकृतोऽत्रायमन्यासु क्रियास्वेवं निरूपयेत् ॥ २२ ॥ सर्वव्यासंगनिर्मुक्तः संशुद्धकरणत्रयः। धौतहस्तपदद्वन्द्वः परमानन्दमन्दिरम् ॥ ॥२३ ॥ चैत्यचैत्यालयादीनां स्तवनादौ कृतोद्यमः। भवेदनन्तसंसारसन्तानोच्छित्तये यतिः॥ २४॥ (युग्मम् ) यथा निश्चेतनाश्चिन्तामणिकल्पमहीरुहाः। कृतपुण्यानुसारेण तदीष्टफलप्रदाः ॥२५॥ तथाऽहंदादयश्चास्तरागद्वेषप्रवृत्तयः। भक्तभक्त्यनुसारेण स्वर्गमोक्षफलप्रदाः॥ २६ ॥ (युग्मम् ) गरापहारिणी मुद्रा गरुडस्य यथा तथा । जिनस्याऽप्येनसो हंत्री दुरितारातिपातिनः॥२७॥ सुमनः संगमादंगतीहस्तत्रं ? पवित्रताम् । पिष्टःप्रकृष्टमाधुर्य प्रकृष्टक्षुरसाद्यथा ॥ २८॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आचारसारे चपापावादिनिर्वाणक्षेत्रादीनि पवित्रताम् । वंद्यतां च व्रजत्येव वंद्य संगमतस्तथा ॥ २९ ॥ ( युग्मम् ) मत्वेति जिनगेहादिं त्रिःपरीत्य कृतांजलिः । प्रकुर्वस्तच्चतुर्दिक्षु सत्र्यावर्त्ता शिरोनतिम् ॥ ३० ॥ घोरसंसारगंभीरवारिराशौ निमज्जताम् । दत्तहस्तावलंबस्य जिनस्यार्चार्थमाविशेत् ॥ ३१ ॥ ( युग्मम् ) जिनेशतारकाधीशपादसंपादितोत्सवः । श्रीलीलामन्दिरस्वीयलोचनेन्दीवरः पुनः ॥ ३२ ॥ ईर्याssगः शुद्धयै व्युत्सर्ग कृत्वाऽऽसीनोऽनुकंपया । आलोच्य समतां वर्या कुर्यादात्मेच्छयाऽन्यदा ॥ ३३ ॥ (युग्मम् ) लक्षणं समतादीनां पुरोक्तं किन्तु वर्ण्यते । व्युत्सर्गाव सरोच्छ्राससंख्यानामादि साम्प्रतम् ॥ ३४ ॥ क्रियायामस्यां व्युत्सर्गे भक्तेरस्याः करोम्यहम् । विज्ञाप्येति समुत्थाय गुरुस्तवनपूर्वकम् ॥ ३५ ॥ कृत्वा करसरोजातमुकुलालंकृतं निजम् । भाललीलासरः कुर्यात् त्र्यावर्त्ता शिरसो नतिम् ॥ ३६ ॥ आद्यस्य दंडकस्यादौ मंगलादेरयं क्रमः । तदन्तेऽप्यगव्युत्सर्गः कार्योतस्तदनन्तरम् ॥ ३७ ॥ कुर्यात्तथैव ' थोस्सामी.' त्याद्यार्याद्यंतयोरपि । इत्यस्मिन द्वादशावर्त्ताः शिरोनतिचतुष्टयम् ॥ ३८ ॥ ( युग्मम् ) ग्रन्थारंभ समाप्तौ च स्वाध्याये स्तवनादिषु । सप्तविंशतिरुच्छ्रासा व्युत्सर्गे दुर्मनस्यपि ॥ ३९ ॥ व्रतेत्वन्यतमस्याऽतिचारशुद्धेर्दिनस्य च । स्यात्प्रतिक्रमणेऽष्टाग्रशतं रात्र्यास्तु तद्दलम् ॥ ४० ॥ पाक्षिके त्रिशतं चातुर्मासिके स्याच्चतुः शतम् । शतानि पंच संवत्सरस्य षट्सु क्रियान्तगे ॥ ४१ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः । पंचविंशतिरुच्छासा.गोचरेातिचारयोः। जिनसाधुनिषद्यानां विण्मूत्रोत्सर्जनैनसि ॥४२॥ देवतास्तवने भक्ती चैत्यपंचगुरूभयोः। चतुर्दश्यां तयोर्मध्ये श्रुतभक्तिर्विधीयते ॥४३॥ स्यात्सिद्धश्रुतचारित्रशान्तिभक्तिचतुष्टयम् । अष्टम्यां श्रुतभक्त्योनमेतत्तीर्थशजन्मान ॥४४॥ पाक्षिके जिनचैत्ये च यद्यष्टम्यादिकर्मणाम् । संयोगो देवतापूजादर्शनस्तवनैः सह ॥४५॥ प्राक् शान्तिभक्तितस्तेषु चैत्यपंचगुरूभयोः। भक्ती स्तः सिद्धभक्तिः स्यात्सिद्धप्रतिकृतिस्तुतौ॥४६॥ त्रिकं। चतुर्दशीदिने कर्तुं क्रियां न लभते यदि। धर्मकार्यादिनाऽष्टम्याः क्रिया कार्या तु पाक्षिके ॥४७॥ नन्दीश्वरक्रियायां स्तः सिद्धनन्दीश्वरोभयोः । भक्ती पंचगुरूणां च शान्तिभक्तिस्तदन्तगा ॥४८॥ स्यात्सिद्धचैत्ययोः पंचगुरूणां स्नपनस्तवे । भक्ती सशान्तिभक्तिस्तु हीनमध्याद्विभक्त्यदः ॥४९॥ स्थिरेतरप्रतिष्ठायां चतुर्थस्नपने पुनः। चलचैत्यप्रतिष्ठायाः पूर्वोक्तनपनक्रिया ॥५०॥ द्विकम् । स्थिरप्रतिष्ठास्नानेऽस्मिन्नेवाऽऽलोचनाऽन्विता। चारित्रभक्तिः स्यात्किन्तु सिद्धभक्तेरनन्तरम् ॥ ५१॥ सिद्धभक्तिर्मुनौ ज्येष्ठे सिद्धान्तविदि सा युता। श्रुतभक्तयाऽऽचार्यभक्तया तु गणिन्धेतत्रयं पुनः॥५२॥ सूरौ सैद्धान्तिकेऽल्पेऽपि प्रतिमायोगसंस्थिते। सिद्धभक्तिर्भवेद्योगशान्तिभक्ती च संपते ॥ ५३॥ अत्र चरित्रभक्तिश्चेत्सिद्धभक्तरनन्तरम् ।। योगभक्तया परीतिश्च परिनिष्क्रम क्रिया ॥ ५४॥ ___ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६६ आचारसारे ज्ञानोत्पत्तौ क्रियैषैव सिद्धभक्तेरनन्तरम् । श्रुतभक्तिश्च स्यात्किन्तु जिननिर्वाणभूष्वपि ॥ ५५ ॥ परिनिर्वाणभक्तिस्तु योगभक्तेरनन्तरम् ।। परिनिर्वाणभक्तया तु त्रिः परत्यि क्रिया भवेत् ॥५६॥ (युग्मम्) सिद्धनिर्वाणयोः पंच गुरूणां भक्तिरप्यतः । स्याच्छान्तिभक्तिः श्रीवर्द्धमाननिर्वाणवासरे ॥ ५७ ॥ समाधिविधिना सम्यक सामान्ये संयते मृते सिद्धभक्तिर्भवेद्योगशान्तिभक्तिद्वयं ततः॥ ५८ ॥ यद्यत्र श्रुतभक्तिः स्यात्सिद्धभक्तरनन्तरम् । कृतिकर्मेति निर्दिष्टं साधौ सिद्धान्तवेदिनि ।। ५९ ॥ सामान्यमुनिकर्मैव व्रतिन्युत्तरयोगिनि । स्यात्तु चरित्रभक्तिश्च सिद्धभक्तेरनन्तरम् ॥ ६०॥ स्यात्सिद्धश्रुतचारित्रयोगभक्तिचतुष्टयम् । शान्तिभक्तिश्च सिद्धान्तवेदिन्युत्तरयोगिनि ॥६१ ॥ आचार्येषु चतुर्थेषु योगभक्तेरनन्तरम् । सूरिभक्तिर्भवेदष्टौ निषद्यादेहयोरिमाः॥६२ ॥ सिद्धश्रुतयोर्भक्ती श्रुतपंचम्यां तु वाचना। स्वाध्यायः शान्तिभक्त्यन्तमस्य निष्ठापनं ततः॥१३॥ एतत्संन्यासप्रारंभे शान्तिभक्तिर्न हीह तु। श्रुतपंचमीक्रिया स्यादस्य निष्ठापने पुनः॥ ६४॥ महत्यो भक्तयः स्वाध्यायेषु संन्यासगे मुनौ योगभक्तिर्विधातव्या योगग्रहणमोक्षयोः ॥ ६५ सिद्धप्रतिक्रमणनिष्ठितकरणभक्तयः । चतुर्विशतितीर्थेशभक्तिश्च नियमे यतेः॥६६ । पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिककर्मसु । प्रतिक्रमणसंज्ञेषु नियमोक्तक्रियैव तु ॥६७ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः । पश्चाच्चारित्रभाक्तः स्यात्सिद्धभक्तेः क्रियान्तगाः। चारित्रबृहदालोचनाध्वाचार्यत्रिभक्तयः॥ ६८॥ (युग्मम्) चारित्रबृहदालोचगुरुभक्तिद्वयं विना।। शेषाः शेषेषु कर्त्तव्याः स्युः प्रतिक्रमणेषु ताः ॥ ६९॥ प्राक सिद्धयोगभक्ती स्तो दीक्षाग्रहणढुंचने । तल्लुचनावसाने तु सिद्धभक्तिर्विधीयते ॥ ७० ।। स्तः सिद्धयोगभक्ती द्वे प्रत्याख्याने तदन्तगा। सूरिभक्तिर्भवेत्सिद्धभक्तिनिष्ठापनेऽस्य तु ॥७१॥ ताः स्युमंगलगोचरप्रत्याख्याने तु भक्तयः। महत्यः शान्तिभक्तिश्च सूरिभक्तेरनन्तरम् ॥ ७२ ॥ श्रुतसूरिभक्तिपूर्व स्वाध्यायं प्रविधाय तु। निष्ठापयेदमुं काले श्रुतभक्त्या यथोदिते ॥ ७३ ॥ भवेन्मंगलगोचारमध्याह्ने स्नपनस्तवः । सवर्षाकालयोगस्याऽऽदाननिष्ठापनेपि तु ॥ ७४ ।। योगभक्तिर्भवेदत्र सिद्धभक्तेरनन्तरम् । सिद्धान्तवाचनायाः श्रुतपंचम्याःक्रियोदिताः॥७५॥ (युग्मम्) सिद्धान्तार्थाधिकाराणामादावन्ते च भक्तयः। तिस्रः सिद्धश्रुताऽऽचार्यसंश्रिताः परिकीर्तिताः॥७६॥ कुर्याद् व्युत्सर्गमेकैकं समाप्तौ भक्तिपूर्वकम् । सिद्धान्तार्थाधिकाराणां विद्याविद्याफलाप्तये ॥ ७७॥ ज्ञानविज्ञानसंपन्नः स्थविरः प्रश्रयाश्रयः । गुरूणां सन्निधौ सिद्धसूरिभक्ती विधाय तु ॥ ७८॥ गुर्वाज्ञया समादाय गणेशपदवीं ततः। शान्तिभक्तिं यतिः कुर्याद्वर्वादीनामपि स्तवम् ॥ ७९ ॥ युग्मम्। ऋज्वंगस्थाने व्युत्सर्गे लीलाऽऽलंबितदोर्युगे। समांगुलीचतुष्कान्तरस्थपादेऽप्यकंपिते ॥ ८०॥ ___ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे कुड्याश्रितं लतावकं स्तंभावष्टंभकुंचिते। स्तनेक्षाकाकदृक्शीर्षकंपितं युगकन्धरम् ॥८१॥ भ्रूक्षेपोत्तरितोन्मत्तपिशाचाष्टदिशेक्षणम् । ग्रीवाऽवनमनं मूकसंज्ञा चांगुलिचालनम् ॥ ८२॥ निष्ठीवनं खलिनितं शबरीगुह्यगृहनम् । कपित्थमुष्टिग्रीवोन्नमनं शृंखलिताह्वयम् ॥ ८३ ॥ मालिकोद्वहनं स्वांगस्पर्शनं घोटकांघ्रि च । स्थानं द्वात्रिंशदित्येते त्याज्या दोषास्तथा परे ॥८४॥पंचकम् । वामान्तर्गुल्फवामस्य गुल्फो बाह्यः स्थितस्तयोः । पादयोरूरुमूलस्थं पल्यंके पाणियुग्मकम् ॥ ८५ ॥ गुल्फस्थोत्तानवामस्थोत्तानावामकरः समः । पल्यंकेऽत्रासने स्याञ्चेत्कायोत्सर्गः सुसौष्ठवः ॥८६॥ युग्मम् । त्रिशुद्धौ द्वादशावत द्विनिषण्णे चतुर्नतौ। बद्धांजुलौ त्यजेद्दोषान् कृतिकर्मव्रजेऽप्यमून् ॥ ८७॥ स्तब्धः प्रविष्टोऽनालब्धमालब्धं परिपीडितम् । दोलायितं मनोदुष्टं मत्स्योद्वर्त्तनभेषितम् ॥ ८८ ॥ हीनाधिकद्धिगौरवशेषगौरवघर्घरम् । भेष्यत्वं स्तनितं मूकमुन्मत्तकमनाद्रुतम् ॥ ८९ ॥ तर्जितं शब्दितं संघकरमोचितं कुंचितम् । वेदिकाबद्धक्रोधादिशल्याचार्यादिदर्शनम् ॥ ९०॥ प्रत्यनीकं सुललितादृष्टे कच्छपरिंगितम् । हलितं त्रिवलितं चेति द्वात्रिंशदमी मताः॥ ९१ ॥ चतुष्कम् । नष्टदुष्टाष्टकर्माणस्ते पुष्टाष्टगुणर्द्धयः । त्रिलोकीमस्तकोत्तंसाः सिद्धा नः सन्तु सिद्धिदाः॥९२॥ श्रीपादेंदूदयस्यासीदमरीचिकुरोऽम्बरम् । यस्य स्याद्वादिनो विश्ववेदिनः पातु नो जिनः ॥९३ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः । विपक्षक्षयजानंतानंतज्ञानादिसद्गुणः । दद्यादद्य स नः प्राज्यं वृजिनारिजयं जिनः ॥ ९४ ॥ निराकृत्यान्तरं ध्वान्तं सूरिसूरः करोत्वरम् । सन्मानसांबुजानंदममन्दं वाक्करैवरैः ॥ ९५ ॥ कुर्वन्नखर्वदुर्वादिमदद्विरदमर्दनम् । स्याद्वादाद्रावुपाध्यायसिन्धुरारिर्विजृंभताम् ॥ ९६ ॥ रत्नत्रयामृतांभोधिविधवः साधवः श्रियम् । दद्युरात्मर्द्धिनिर्धूतदुरितध्वान्तवृत्तयः ॥ ९७ ॥ त्रिजगद्गुरवः सर्वैर्गुणैर्गुरव इत्यमी । गुरवः पंच नः पान्तु पापापायनिकायतः ॥ ९८ ॥ लोकत्रयेशदत्तार्घ्यमप्यनयै महोदयम् । रत्नत्रयं पवित्रं नः पुनातु हृदयं सदा ॥ ९९ ॥ स्तुत्यः स्तुतिशतैर्धर्मः शर्मदो यो गुणाधिकः । गुणिनः सद्गुणाञ्चैते भवन्तु मम मङ्गलम् ॥ १०० ॥ यत्कान्तकान्तिः कुमुदं वितन्वती तनोत्यलं तत्कमलोत्सर्वं नवः । निरस्तदोषाऽभ्युदयाक्षयश्रियं क्रियात्स चंद्रप्रभदेववल्लभः ॥ १०१ ॥ इति श्रीमद्दीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणीते श्रीआचारसारनाम्नि शास्त्रे नवमोऽधिकारः ॥ ९ ॥ ६९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे अथ दशमोऽधिकारः ॥१०॥ यद्वाक्यामृतमाजवंजवदवोत्तप्तात्मनामात्मनां नानैनश्चिततापलोपनपरं श्रीशीतलः शीतलम् । यस्यांगस्य मरीचिमंडलमिलानंदेदिरामन्दिरं पायात्पार्वणशीतरश्मिरुचिरः सोऽयं जिनाधीश्वरः॥१॥ दीक्षां पीठिकयोदितेन विधिना शिक्षा गृहीत्वा समाचारेणानुमतो गणेन गणिना प्राप्तश्च सत्सूरिताम् । षत्रिंशद्गुणभूषणो व्यपगतव्यापद्गणं सद्गणं रक्षन् यः समयं नयत्यतितरां धन्यः स मान्यो मुनिः॥२॥ ज्योतिः शास्त्रविनूतजातकमतान्नानानिमित्तक्षणाप्रश्नाच्चायचयग्रहावलिबलक्षीणत्वसंप्रेक्षणात् । प्रश्नस्याक्षरलक्षणेक्षणवशात्कालागमात्स्वायुषो मानं द्वादशवर्षसंमितमतो हीनं च निश्चित्य सः॥३॥ पश्चाञ्चारुतरात्मसंस्करणधी/रो मुमुक्षुर्गुणी प्रीत्या पालितमात्मनात्मनि महान्नेहानुबंधे महत् । वृन्दं तुन्दिलबालरोगिसुतपः शैक्षादिभिश्वन्वितं प्रारोप्यात्मभरं वरं गणधरे सद्वृत्तलक्ष्मीधरे ॥४॥ रक्षादक्षतमं गणस्य गणिनं सर्व गणं चादरा दाहूय प्रियवाक्चयामृतरसासारेण चेतोगतम् । तापं तस्य निरस्य दुस्तरतरं जातं वियोगाद्गुरोः स्वस्यातो नियतं विहारमपरं कुर्वन्मुनीन्द्रोत्तमः॥५॥त्रिकम् । प्रेक्ष्यन्ते बहुदेशसंश्रयवशात्संवेगिताद्याप्तयस्तीर्थाधीश्वरकेवलोद्गममही निर्वाणभूम्यादयः। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हशमोऽधिकारः । ७१ स्थैर्य धैर्यविरागतादिषु गुणेष्वाचार्यवर्य क्षणाद्विद्यावित्तसमागमादधिगमो नूत्नार्थसार्थस्य च ॥६॥ सद्रूपं बहुसूरिभाक्तिकयुतं क्षामादिदोषोज्झितं क्षेत्रं पात्रमपीक्ष्यते तनुपरित्यागस्य निःसंगता। सर्वस्मिन्नपि चेतनेतरबहिःसंगे स्वशिष्यादिके गर्वस्यापचयः परषिहजयः सल्लेखना चोत्तमा ॥७॥ सम्यकायकषायकार्यकरणं सल्लेखनाद्या वरैयोगैर्वर्षचतुष्टयं रसपरित्यागैस्तथाब्दद्वयम् । सौवीरानरसोज्झनैरभिषवान्नेनाब्दमेतद्दलं बार्मिन्दतपोभिरुग्रनियमैरब्दार्धमंगार्दनम् ॥८॥ कालं कायबलं च देशमशनं पानं प्रकृत्यादिकं ज्ञात्वा पित्तकफानिलैर्निजगतेन स्याद्यथा विक्रिया। कर्तव्या विदुषा तथोक्तविधिभिर्बाद्यैस्तपः प्रक्रमैराचार्याऽनुमतैः समाधिफलदैरेषांगसल्लेखना ॥९॥ सध्यानप्रकरैः कषायविषया सल्लखना श्रेयसी स्वेष्टानिष्टवियोगयोगयुगजे बाधानिदानोद्भवे । इत्यातस्य चतुर्विधस्य विजयो हिंसामृषास्तेयसंरक्षानन्दविभेदतोऽशुभकृतो ध्यानस्य रौद्रस्य च ॥१०॥ ध्यातृध्यानविचिंत्यचिंतनफलान्यंगानि चत्वारि तैः स्याद् ध्यानं सदसच्च तत्र भवति ध्यातोत्तमैरन्वितः। आद्यैः संहननैस्त्रिभिस्त्रिभिरुपतोऽन्त्यैः स नाऽस्मिन्पुनः चिन्तातर्वहिरंगकारणसृणिप्रेर्यो हि कार्यद्विपः ॥ ११ ॥ एकस्मिन्विषयेऽग्रमाननमभूदस्या मतेरित्यसावेकाना विषयोपयोगनिरता चिन्ता निरोधोऽचलावस्था स्यानिजगोचराचलमनो ध्यानं तदंतर्मुहूविस्थानमतीवदुर्धरतया नाऽतः परं तिष्ठति ॥ १२ ॥ ___ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे मिथ्यात्वोरुतमस्तिरस्कृतसुदृरज्ञानोऽधिकक्रोधवान् स्तब्धः सत्स्वपि वंचनांचितमतिर्लुब्धः परार्थेष्वपि। दुर्लेश्यावशगाशयश्च भवति ध्याताऽशुभध्यानयोध्येयं ध्यानविशेषलक्षणविनिर्देशक्षणे लक्ष्यते ॥ १३ ॥ जीवाजीवकलत्रपुत्रकनकाऽगारादिकादात्मनः प्रेमप्रीतिवशात्मसात्कृतबहिःसंगाद्वियोगोद्गमे । क्लेशेनेष्टवियोगजार्त्तमचलं तच्चिन्तनं मे कथं न स्यादिष्टवियोग इत्यपि सदा मन्दस्य दुःकर्मणः ॥१४॥ कूरैर्व्यन्तरचौरवैरिमनुजैालैर्मृगैरापदि प्राप्तायां गरलादिकैश्च महती तन्नाशचिन्ताऽऽपदा। संयोगो न भवेत् सदा कथमिति क्लेशातिनुन्नं मनः श्वार्तध्यानमनिष्टयोगजनितं जातं दुरन्तैनसः॥१५॥ बाधासंजनितार्त्तमर्तिनिहितं स्वान्तं नितान्तस्थिरं तीव्राद्विश्वपरीषहान्मम कदा विश्लेष इत्यगिनः । दीनस्यास्तविशिष्टवस्तुविषयज्ञानस्य न स्यात्कथं क्लेशाल्या मम जातु संगम इति क्लिष्टं च तत्स्यान्मनः ॥१६॥ नानोपायचयेन नीचचरितान्त्वा विशालामिलामाभीलं मकराकरं च बहुशो तुच्छेच्छया प्राप्य यत् । प्राप्यं पुण्यवता जनेन कनकं कान्तं च कान्तादिकं तत्कांक्षाक्षुभिता मतिर्बत निदानात महार्तिप्रदम् ॥ १७ ॥ ग्लान्यश्रूद्गमशोकशोषजडतामूछोगकंपोत्कता निःश्वासस्वरभंगकाष्र्ण्यकृशतामौनाऽभिवीक्षामृतिप्रस्वेदाऽनिमिषेणास्थितिरुजायाञ्चामृषोत्यादयः स्पष्टाः स्वस्य परस्यवाऽऽतजनितास्तज्ज्ञापकाः कायिकाः१८ अतिदुःखमसातजातजनितं स्यादातमत्तौ भवं पापाऽऽदाननिदानमाईसिचयं यद्वद्रजःसंश्रयम् । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः । मिथ्यादृष्टिगुणादिषडुणपदं येन प्रमादास्पदं दुर्लेश्यात्रयजं सुदुःखजनकं तिर्यग्गतिप्रापकम् ॥ १९ ॥ हिंसानन्दमसातका रणगणैहिंसारुचिर्देहिनां भेदच्छेदविदारणासुहरणैरन्यैश्च तैर्दारुणैः । रोषेर्ष्याद्युदितैरसत्यवचनैरन्यस्य हान्या मृषानंद रौद्रमसातसन्ततिपदे मिथ्याप्रलापे रुचिः ॥ २० ॥ स्तेयानन्दमवाप्य यत्परधनं वंद्यादिनिंद्येहितैरानंदित्वमवाप्तुमुत्सुकतरं चेतश्च तैस्तद्भवेत् । स्वं संरक्ष्य विपक्षदूरमुदिता तोषोग्रता या तु संरक्षानंदमपि स्ववस्तु निखिलं निर्वैरि कुर्वे इति ॥ २१ ॥ अक्षापाटवमाननाऽक्ष्यरुणता दाहश्च देहे महान् हेत्युत्क्षेपविरूक्षवाग्भृकुटयः शक्तिप्रशंसात्मनः । स्वेदस्वाधरनिष्ठुरग्रहकराघातांगकंपादयः कायांकाः स्वपरावबोधविषयास्तद्रौद्रभावोद्भवाः ॥ २२ ॥ रुद्रःक्रूरतराशयो गतदयो रौद्रं हि रुद्रे भवं आई चर्म यथोरुधूलिनिलयं तद्वत्कुकर्मालयम् । पंचस्वादिगुणेषु तीव्रतरतत्कृष्णत्रिलेश्योद्गतं ७३ प्रोद्यत्तीव्रतरार्त्तिनारकगतिप्राप्तर्निमित्तं मनम् ॥ २३ ॥ 'ध्याताऽपेतजनोक्तगीतवितताऽऽतोद्यादिकोलाहले स्थाने स्थावरजंगमांगिरहिते पूते नितांतं समे । निछिद्रे निरुपद्रवे पृथुशिललाद्ये मुखस्पर्शिनि प्रध्यानाभिरतः स्थितो न नियम' स्वभ्यस्तयोगे त्वयम् ॥ २४ ॥ नांगावयवप्रचालनवचोजृंभाद्यभावो मुनि युत्सर्गेण समावलंबकशिलास्तंभो निखातो यथा । पर्यकेन यथासुखं स्वमनसः शय्यादिभिर्वा स्थितो निःसंगोऽस्तसमस्तबाह्यविषयव्यापृत्यशेषेन्द्रियः ॥ २५ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आचारसारे प्राणापानविनिग्रहादतितरां भ्रांतिर्मतेरुच्छ्रसन्मन्दं मन्दमतो न नेत्रयुगलं सम्यग्निमीलन्न च । प्रोन्मीलन्दशनैर्मनाग्दशनपंक्त्यग्राणि विभ्रन्मनःशांतिं मूर्तिमतीमिवार्तिजयिनी स्वां मूर्तिमप्यूर्जिताम्॥२६॥ सदृष्टिर्मृदुताऽऽर्जवादिसहितः श्रेण्योरशेषश्रुतः स्याद् ध्याता दशपूर्वविच्च नवपूर्वज्ञो परत्राऽपि च ध्येयन्यस्तमना निरस्तनियमः कालेषु संध्यादिषु निर्वाणोचितमाद्यसंहननमेवाऽस्मिन्पुनातरि॥२७॥(त्रिकम्) धर्म्य शुक्लमिति विभेदमुदितं सद्ध्यानमायं तयोराज्ञाऽपायविपाकगाच्च विचयात्संस्थानगात्स्याच्चतु-। भेंदं भूरि विकल्पजालकलितं जैनान्नयान्नैगमात्सर्वं सर्वविदो वचो न हि नयापेतं यतो वस्तु च ॥ २८ ॥ विज्ञातुं न तु शक्यमावृतियुताध्यक्षानुमानादिनात्यक्षानंतविवर्त्तवतिसकलं वस्त्वस्तदोषाहताम् । आज्ञावाग्विचयस्तयोक्तमनृतं नैवति तद्वस्तुनश्चिन्ताज्ञाविचयो विदुर्नयचयः संज्ञानपुण्योदयः ॥ २९ ॥ दुःकर्मात्मदुरीहितैरुपचितं मिथ्याविरत्यादिभि ापज्जन्मजरामृतिप्रभृतयो वाऽपाय एन कृताः। जीवेनादिभवे भवेत्कथमतोऽपायादपायः कदा कस्मिन्केन ममेत्यपायविचयः सत्कारणादीक्षणम् ॥ ३०॥ गत्यादौ परिणामतस्तनुभृतां प्राप्तोदयोदीरण क्लेशाश्लेषकरं सुखोत्करकरं कर्माशुभं तच्छुभम् । शक्त्या युक्तमसंख्यलोकमितषट्स्थानान्वितस्थानया इत्येवं विचयो विपाकविचयः प्रत्यस्तदोषोच्चयः॥३१॥ संस्थानं यदनित्यताऽशरणता संसार एकाकिताऽन्यत्वं चाशुचिताऽऽस्रवः सुनयतः स्यात्संबरो निर्जरा। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः । लोको बोध्यतिदुर्लभत्वमपरो धर्मस्तदित्यन्वितं भेदैः स्वैर्विचयोऽस्य चिंतनमनुप्रेक्षा स्मृतं द्वादश ॥ ३२ ॥ उत्पत्तिः प्रलयश्च पर्ययवशाद्रव्यात्मना नित्यता वस्तूनां निचये प्रतिक्षणमिहाज्ञानाज्जनो मन्यते। नित्यत्वं द्रवदंबुदीपकलिकास्थैर्य यथार्थादिके नष्टे नष्टयुतिः करोति बत शोकार्ती वृथाऽऽत्मीयके ॥ ३३॥ मंत्रास्तंत्रततिस्तदन्वितकृतिर्दुर्गा द्विषदुर्गमा भृत्याः किं न भृताः सुहृत्ततिरपीत्येतेषु सत्स्वप्यगुः। सर्वे पूर्वमहीभृतः क्षतिमतः कस्यापि कालत्रये त्राताऽत्रास्ति न नाशमीयुषि पुरा पुण्यार्जिते वाऽऽयुषि॥३४॥ वृत्त्या जातिगतिष्ववाप्तकरणोऽनंतांगहारः सदा प्रोद्भूतिप्रलयो नरामरमृगाद्याहार्यपर्यायवान् । हित्वा सात्त्विकभावजातीमतरैर्भावैः स्वकर्मोद्भव र्जीवोऽयं नटवद्रमत्यभिनवः सर्वत्र लोकत्रये ॥ ३५ ॥ कोऽप्याप्तः स्वजनोऽनुगोऽस्ति न परो वा याति जन्मांतरं जीवे जन्मनि वाऽत्र मित्रनिकरैः किं नाशितं वा हृतम् । चित्रं गात्ररुजादि हृदयज वाऽसातमेकस्ततो मृत्युत्पत्तिनिवृत्तिषु प्रणयिनोऽन्येऽर्थेष्वनों निजः ॥ ३६॥ चैतन्यं जडतैकताऽवयविसंदोहोदिताऽनेकता नित्यत्वं क्षयिता च मूर्तिवियतिमूर्तत्वमित्यादिभिः । भेदं देहिशरीरयोरगणयन् कि नेक्षते वृद्धिमदेहं खेदिनि देहिनि स्थितमतिकांतेऽत्र दुर्मित्रवत् ॥ ३७॥ रेतः शोणितजातिधातुनिचितं प्रच्छादितं चर्मणा सान्द्रोद्रिक्तगलन्मलं बहुविलैरंग जुगुप्सानुगाम् । भीतिं किं न तनोत्यसंस्कृतिबहिश्चर्मात्रगात्रे न चेत् स्पष्टुं द्रष्टुमपि क्षमोऽस्ति किमिदं त्रातुं पतव्यादितः॥ ३८॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ आचारसारे देहे स्नेहयुते लगत्यविरतं रेणोर्गणोऽयं यथा मिथ्यावृत्तकषाययोगकलुषेऽजस्रं सजत्यंगिनि । तद्वत् स्वैकशरीरगाः सुमिलिताऽनंताणवो वर्गणा , विश्वात्मावयवेष्वनंतगणना नो कर्मणां कर्मणाम् ॥ ३९ ॥ दष्टे दुष्टविषाहिनांऽगिनि यथा नष्टप्रचेष्टे विषं पुष्यज्जांगुलिकेन मंत्रबलिना संस्तंभितं तिष्ठति । सम्यक्त्वव्रतनिष्कषायपरिणामाऽयोगताभिस्तथा मिथ्यात्वादिचतुःस्वहेतुविगमानूत्नैनसां नागमः ॥४०॥ संश्लिष्टात्मबलस्य निर्गलनतो निःशेषविश्लेषतश्चान्तर्बाह्यचतुः स्वहेतुवशतः स्वर्णोपले स्वर्णता। यद्वद्देहिनि कर्मणोंऽशगलनानिःशेषविश्लेषतः सम्यक्त्वग्रहणाद्यनेककरणैस्तद्वद्विशुद्धात्मता ॥४१॥ मध्यांशः परितोऽप्यनंतवियतो लोकस्त्रिवाताऽऽवृतः पंचद्रव्यचितः प्रकर्तृरहितो नित्यः सदाऽवस्थितः । संस्थानेन तु सुप्रतिष्ठकसमोऽसंख्यप्रदेशप्रमो मध्यस्थत्रसनालिरत्र भविना स्पृष्टं न दृष्टं पदम् ॥४२॥ नैकाक्षर्विकलाक्षपंचकरणासंज्ञव्रजैर्जातु या लब्धा बोधिरगण्य पुण्यवशतः संपूर्णपर्याप्तिभिः । भव्यैः संज्ञिभिराप्तलब्धि विधिभिः कश्चित्कदाचित् क्वचित् प्राप्या सा रमतां मदीयहृदये स्वर्गापवर्गप्रदा ॥४३॥ दाताऽभीष्टविशिष्टवस्तुनिचयस्याकांक्षिणेऽपि क्षणाद्ध र्तेनरनारकादिभवसंभूतेः स्मृतेर्भीकृतेः। हंताऽऽकान्तजगत्रयांतकरिपोर्यः स्वान्तगः संस्तुतस्त्राताऽत्राणशरीरिणां न हि परो धर्मात्सुशर्मप्रदात् ॥४४॥ श्रद्धानं सदशंकितादिसदनं तत्त्वार्थसंचिन्तनं संवेगः प्रशमोदयेन्द्रियदमः प्राज्योधमः संयमः। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः। ७७ वैराग्यं वरगुप्तिताऽतिमृदुता निर्मायिताऽसंगता धर्मस्येति समस्तवस्तुपरमोपेक्षा च लक्ष्मोदितम् ॥ ४५ ॥ धर्म्य स्यानिखिलार्थसार्थनिहितं चित्तं समं संस्थितं सम्यग्दृष्टययतादिसप्तमगुणांतेषु प्रवृद्धं क्रमात् । साक्षात्संवरनिर्जरादिकरणं नानात्मनां कर्मणां सऽल्लेश्यात्रयजं च नाकसुखदं प्राग्रं क्रमात्सिद्धिदम् ॥४६॥ शुक्लध्यानमतश्चतुर्विधमिदं प्रोक्तं वितौ पृथतवेकत्वानुगतावुभावपि सवीचारेतरौ स्तः क्रमात् । कार्यस्यातिशयेन जातपरमाह्वानं तु सूक्ष्मक्रिय ध्यानं प्रतिपाति तादृशसमुच्छिन्नक्रियं चेत्यपि ॥४७॥ आद्यं शुक्लमनेकधा स्वविषये वृत्त्या पृथक्त्वेन यत् सर्वद्रव्यगतश्रुतस्य परमस्यास्मिन् वितर्कस्य यः। संचारोऽर्थवचस्त्रियोगगहने वीचार एषो भवे यानं सार्थकनामधाम तदिदं स्यादिष्टसंपत्पदम् ॥४८॥ एकत्वेन न पर्ययान्तरतया जातो वितर्कस्य ययो वीचार इहैकवस्तुनि वचस्येकत्र योगेऽपि च। नार्थव्यंजनयोगजालचलनं तत्सार्थनामेत्यदो ध्यानं घातिविघातजातपरमार्हन्त्यं द्वितीयं मतम् ।। ४९ ॥ शुक्लेऽभ्यन्तरबाह्यकारणगणो न्यक्षं च तल्लक्षणं धर्म्य वा प्रथम क्षयोपशमयोर्मोहस्य हेतुईयोः। श्रेण्योर्मोक्षविनाकदं विलयकृद्धातित्रयस्यापरं वर्य क्षीणकषाय एव यमलं तच्छुक्ललेश्योद्भवम् ॥ ५० ॥ ध्यानं चिन्तनमेकवस्तुनि कियत्कालं मतं तच्छुतज्ञानं स्वावरणक्षयोपशमजं ध्यानोपचारस्ततः। शश्वद्विश्वनिरन्तरावृतिहतिप्रत्यक्षबोधेऽर्हति कर्मस्थित्यनुभागघातगलनाद्यर्थस्य तत्रेक्षणात् ।। ५१ ॥ ___ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आचारसारे सूक्ष्मा कृष्टिगता क्रियति तनुगो योगोऽत्र सूक्ष्मक्रियं ध्यानं घप्रतिपात्यनश्वरमिदं नामाऽस्य तत्सार्थकम् । तन्नात्युद्यतराघघातनसमुघातक्रियाऽनन्तरं योगिन्यहति जीविते समुदभूदन्तर्मुहूर्ते स्थिते ॥ ५२ ॥ योगोऽस्मिन्महतो बभूव हि समुच्छिन्नक्रियं सुस्थितं ध्यानं घप्रतिपाति तेन तदभूदन्वर्थनामास्पदम् । लेश्यातीतमयोगकेवलिजिने शुक्लं चतुर्थ वरं निर्मूलप्रविलीनसंसृतिगदं स्वात्मोपलब्धिप्रदम् ॥ ५३॥ संस्कारातिशयः प्रसन्नहृदयस्त्यागी क्षमी प्रोद्यमी प्रव्यक्तस्वपरस्थितिः शुभवचोरत्नावलीराजितः। शूरः शीलपरो गुणस्थिररुचिर्भव्योऽभिमानी परं साध्वीं साधयति स्वभावसुभगामाराधनां नायिकाम् ॥ ५४॥ शेषेऽल्ये निजजीवने जनहितं देशं महीशान्वितं नानाजैनजनास्पदं सुखपदं सत्संगिनां योगिनाम् । संप्राप्यात्ममनोगतं बहुमतं सम्यनिवेद्य स्थितः सूरिभ्यः सकलैश्च तैः सुविदितः संघान्वितैः स्वीकृतः ॥५५॥ आचार्यैः परिचर्ययाऽऽहितहितैः सद्वयनपंचाशता द्वाम्यां वाऽतिजघन्यतः परिवृतःप्रीत्यात्तमार्थार्थ्यतः । आलोच्याऽऽत्मकृतं कृती त्रिकरणैर्दोष विशुद्धाशयः श्रुत्वातः प्रवरं प्रतिक्रमणमप्यारुह्य सत्संस्तरम् ॥५६॥ प्राज्ञोऽसौ क्रमशोऽशनं परिहरनेकैकमास्वाद्य तत्सम्यग्दर्शितमिष्टमिष्टमसकृत्कांक्षाक्षयार्थ बुधैः। हित्वाऽतस्त्रिविधाशनं धृतिकरं किं स्तोकमतन्मया भुक्तात्पूर्वमनेकमेरुमहतो मे तृप्तिकस्येत्यतः॥ ५७ ॥ त्यक्त्वाऽतः कुशलः क्रमेण विविधं धीरःसमाध्याप्तये पान सिक्थयुतं विलेपि सरसं निःस्नेहमच्छं पयः। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः । किं तृप्तिर्भवतीयती भवभवे पीतादजातेत्यतो नानानीरधिनीरतोऽतिमहतो मे कर्मघातिनः ॥ ५८ ॥ ज्ञाताऽऽस्वादसमस्तवस्तुभिरलं बाबैरसारैः परं जैनेन्द्रं वचनामृतं जननमृत्यातंकनाशीति तत् । धृत्वा पंचगुरून्मनस्यविचलं तन्मंत्रमुच्चारयन धर्म्य शुक्लमपि प्रकृष्टफलदं ध्यायंस्तनु व्युत्सजेत् ॥ ५९ ॥ (चतुष्कम् ) देवैस्तिर्यगचेतनैश्च मनुजैः प्राप्तोपसर्गस्तदा त्यक्त्वाऽऽहारशरीरसंगमखिलं बाधाऽविरामावधि । सावधं सकलं च निर्मलमना ध्याने प्रशस्ते स्थितस्तिष्ठेत्पंचगुरूनभिमतफलप्राप्त्यभ्युपायानपि ॥ ६०॥ इंगिन्यां चान्यसंपादितहितविरतौ वर्णितो योऽत्र भक्तप्रत्याख्याने क्रमोऽसौ निरतिशयमृतौ स्वोपकारप्रवृत्तौ। ज्ञेयः प्रायोपगत्यां स्वपरहितकृत्त्यक्तवांच्छाप्रवृत्ती ताभिः सप्ताष्टजन्मस्वपगतदुरिता मेाक्षलक्ष्मीं लभन्ते ॥६१ ॥ दीक्षामादाय शिक्षामथ गणधरतां रक्षणार्थ गणस्य संस्कारं स्वस्य भावः शमदमविभवेयोऽत्र सल्लेखनां च । .. क्रोधादीनां विधाय प्रथितपृथुयशाः साधयेदुत्तमार्थ सः स्यात्सद्भव्यसस्योत्पलनिकरमुदे मेघचन्द्रो मुनीन्द्रः॥६॥ श्रेयोनाथ ! सरस्वतीश्वरतया रत्नाकरत्वेन तु . गांभीर्येण वरेण निर्मलतया वार्द्धिः समोस्तु त्वया। किं वंद्या जलधेः सदा प्रमुदितत्रैलोक्यसंसेव्यता लक्ष्मीश्चाक्षयसंगमाऽस्ति परमा मूर्तिमनोहारिता ॥ ६३॥ इति श्रीमद्वीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणीते श्री 'आचारसार' नाम्नि ग्रन्थे ध्यानवर्णनात्मको दशमोऽधिकारः ॥१०॥ .. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे AMAVA LIAAAAAA अथैकादशोऽधिकारः ॥ ११ ॥ --+re:श्रियं ममैनस्तिमिरक्षयोज्ज्वलां सन्मार्गगः श्रीविमलः क्रियात्सदा । जिनो निजानंतवरैर्गुणोत्करैविराजमानो जनताब्जभास्करः॥१॥ जीवस्य कर्मणो भेदवेदनायेदमुच्यते । संक्षेपेणाज्ञसंज्ञप्त्यै जीवकर्मप्ररूपणम् ॥२॥ जीवो गुणोऽस्य पर्याप्तिः प्राणः संज्ञा तु मार्गणाः। चतुर्दशोपयोगश्चेत्याचं विंशतिभेदगम् ॥३॥ प्रसादीनां चतुर्युग्मेष्वविरुद्धोदयान्वितात् । जातिकर्मोदयाज्जीवसमासाः स्युश्चतुर्दश ॥४॥ त एते स्थूलसूक्ष्मैक क्षद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः। संझ्यसंड्यंगिपंचाक्षपर्याप्ततरसंज्ञकाः॥५॥ संगृहीतविशेषद्विसामान्यत्वादितीरिताः। नैगमाश्रयणादेवमन्यत्राऽपि निरूपयेत् ॥६॥ (युग्मम् ) सचित्ताऽचित्तमिश्रोष्णा शीता मिश्रा च संवृता। विवृतेत्यंगिनामष्टौ स्युः सन्मूर्छनयोनयः॥७॥ सचित्ताचित्तयोमिश्रा संवृतेतरयोरपि । शीतोष्णमिश्राः पंचैवं जीवानां गर्भयोनयः ॥ ८॥ उपपादयोनयः स्युः शीतोष्णाचित्तसंवृताः। संवृतैकेन्द्रियेऽन्येषु विवृतोष्णा त्वग्निकायिके ॥९॥ जरायडजपोताः स्युर्गर्भेऽप्येवोपपादिकाः । नाकिनो नारकाश्चान्ये स्युः सम्मूर्छनयोनयः ॥१०॥ सप्तसप्तनिगोदद्वयोतिोयाग्निवायुषु । प्रत्येके दशयोनीनां षडपिंडद्विकलेन्द्रिये ॥११॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः । पंचाक्षे नारके देवे चत्वारि तु चतुर्दश। नरे चतुरशीतिः स्युर्लक्षाण्येव विशेषतः ॥ १२ ॥ न जन्म शंखावर्तायां तीर्थशाश्चक्रिणो बलाः। कूर्मोन्नतायां स्युश्चान्ये वंशपत्राकृतौ परे ॥ १३ ॥ आदीन्द्र के त्रिहस्ताः स्युराद्यामन्तिमेन्द्रके। सप्तचापास्त्रिहस्ताश्च षडंगुल्यस्तनूच्छयः ॥ १४॥ द्वितीयायुर्वरान्तेन्द्रकेषु स्याद्विगुणः क्रमात् । नारकाणामयं हानिवृद्धी स्यातां परेषु तु ॥१५॥ ऋज्व्या गत्या समुत्पन्नस्तृतीयसमये वरः । देहः सूक्ष्मनिगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य च ॥ १६ ॥ पल्याऽसंख्येयभागेन विभक्तं स्यादनांगुलम् । चतुर्वृद्धियुतोऽप्यस्मादालापादीदृशो मतः ॥ १७॥ लब्धिनिर्वृत्यपर्याप्तपर्याप्तेष्ववरो वरः । निर्वृत्यपूर्णपूर्णेषु विशेषः केषुचिद्यथा ॥ १८ ॥ घनांगुलस्य संख्येयभागः स्यादवरः क्रमात् । पूर्णद्वित्रिचतुःपंचाक्षाणां संख्यातसंगुणः ॥ १९ ॥ तज्जघन्यमणुंधर्या कुंथावप्यवगाहनम् । स्याकाणमक्षिकायां च सिक्थमत्स्ये यथाक्रमम् ॥ २० ॥ वरं त्रिचतुर्वक्षा प्रतिष्ठितेगमपूर्णके। पंचाक्षे च ततः पूर्णेऽमीषां संख्यातसंगुणम् ॥ २१ ॥ जंबूद्वीपः सुवृत्तोऽसौ मध्यलोकाऽतिमध्यगः । लक्षयोजनविस्तारस्ततः स्याल्लवणार्णवः ॥ २२ ॥ धातकीखंडद्वीपोऽतः स्यात्कालोदकवारिधिः। स्तः पुष्करवरौ द्वीपसागरौ वारुणीवरौ ॥ २३ ॥ तथा क्षीरवरक्षौद्रवरनन्दीश्वरादयः। मध्ये प्रशस्तनामानोऽसंख्येयाः समनामकाः ॥२४॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ आचारसारे स्वयंभूरमणद्वीपसागरावन्तसंस्थितौ । सर्वे सार्द्धद्विकोद्धारसागरोपमसम्मिताः ॥ २५ ॥ जंबूद्वीपान्तु विष्कंभा द्विगुणद्विगुणाः क्रमात् । पूर्व पूर्व परिक्षिता वलयाकृतयोऽखिलाः ॥ २६ ॥ स्वस्वनामरसास्वादा लवणो वारुणीवरः । वार्द्ध क्षीरघृतवरौ चत्वार इति कीर्त्तिताः ॥ २७ ॥ कालोदकपुष्करवर स्वयंभूरमणार्णवाः । जलास्वादास्त्रयः क्षौद्र रसाः शेषास्तु सागराः ॥ २८ ॥ आमानुषोत्तरान्मर्त्त्या यतः सोन्वर्थसंज्ञकः । पुष्करद्वीपमध्यस्थः स गिरिर्वलयाकृतिः ॥ २९ ॥ स्वयंभूरमणद्वीपमध्यस्थाद्वलयाकृतेः । स्वयंप्रभाचलात्सर्वा कर्मभूमिर्वहिः स्थिता ॥ ३० ॥ स्वयंप्रभाचलादारात्परतो मानुषोत्तरात् । मध्याभूरन्तरद्वीपा जघन्या भोगभूमयः ॥ ३१॥ कोशोनं योजनं दैर्घ्यमेकं द्वादश साधिकम् । सहस्रयोजनं गोभ्यां भृंगे शंखेऽम्बुजे वरम् ॥ ३२ ॥ सम्मूर्च्छनजपर्याप्ते स्वयंभूरमणांबुधौ । सहस्रयोजनं मत्स्ये सरित्संगेऽस्य तद्दलम् ॥ ३३ ॥ लवणाब्धौ सरित्संगमेऽस्याष्टादशतद्दलम् । कालोदकान्ध तत्संधुसंगे च द्विगुणं ततः ॥ ३४ ॥ जलस्थलखगापूर्णे खगपूर्णे च गर्भजे । सम्मूर्च्छनस्थलखगे पूर्णे चापपृथक्त्वगः ॥ ३५ ॥ जलस्थलखगापूर्ण स्यात्सम्मूर्च्छनजन्मनि । वरो वितस्तिहाल्पः कुंथुमात्रः पयश्चरे ॥ ३६ ॥ १ रक्तवृश्चिके । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः । जलगे गर्भजे पूर्णे स्यात्पंचशतयोजनम् । स्थलगे गर्भजे पूर्णे त्रिकोशं तिर्यगंगिनि ॥ ३७ ॥ त्रिभोगभूजे त्रिद्वयेकक्रोशाः स्युः कर्मभूमिजे । चापाः पंचशतं पंचविंशतिश्च नरे वरम् ॥ ३८ ॥ चापाः स्युरसुरे पंचविंशतिः शेषभावन । व्यन्तरेषु दशोत्सेधो ज्योतिष्के सप्त देहगः ॥ ३९ ॥ कल्पेषु द्विद्विचतुर्षु चतुर्षु द्वयोर्द्वयोः । सप्त षट् पंच चत्वारस्त्रयः सार्द्धाः करास्त्रयः ॥ ४० ॥ त्रित्रित्रियैवेयकेष्वनुदिशानुत्तरेष्वतः । स्युः सार्द्ध द्विद्विद्वयद्वैककराः काये दिवौकसाम् ॥ ४१ ॥ कुलानां कोटिलक्षाणि स्युर्भूतोयाग्निवायुषु । द्वयुत्तरा विंशतिः सप्त त्रीणि सप्त यथाक्रमम् ॥ ४२ ॥ अष्टाविंशतिः सप्ताष्टौ नवार्द्धनित्रयोदश । वनस्पतौ द्वयक्षे त्र्यक्षे चतुरक्षे पयश्चरे ॥ ४३ ॥ नव दश द्वादशोरः परिसर्पे चतुष्पदे । विहंगे द्वादश नरे नारके पंचविशतिः ॥ ४४ ॥ देवे षड्विंशतिस्तेषां कोटिलक्षाणि पिंडतः । सार्द्ध सप्तनवत्यग्रशतमात्राणि देहिनाम् ॥ ४५ ॥ भौमभावनयोरायुर्जघन्यं चादिमेन्द्रके । दशाब्दानां सहस्राणि घर्मायां नवतिर्वरम् ॥ ४६ ॥ लक्षाणां नवतिः पूर्वकोट्योऽसंख्या दशांशकः । रत्नाकरोपमस्यास्यां द्वितीयादीन्द्रकत्रये ॥ ४७ ॥ एकत्रितप्ताद्युपमा दश सप्तदश क्रमात् । द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिंशदाद्युर्व्याद्यन्तिमेन्द्रके ॥ ४८॥ प्रथमादिवरायुष्यं समयोत्तरमीरितम् । द्वितीयादिजघन्यायुरिति कल्पेष्वयं क्रमः ॥ ४९ ॥ ८३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे आयुरन्तर्मुहूर्तः स्यादेषोऽप्यष्टादशांशकः। उच्छासस्य जघन्यं नृतिरश्चां लब्ध्यपूर्णके ॥ ५० ॥ शुद्धोायुः सहस्राणि द्वादश व्ययविंशतिः । खरो- सप्त वर्षाणां तोयेऽनौ स्याद्दिनत्रयम् ॥५१॥ त्रीण्यब्दानां सहस्राणि वायुजीवे वनस्पतौ। सहस्राणि दश द्यक्षे द्वादशाब्दानि केवलम् ॥ ५२ ॥ दिनान्यकोनपंचाशत् ब्यक्ष्ये स्युश्चतुरिन्द्रिये । मासाः षडिहगेऽब्दानां सहस्राणि द्विसप्ततिः॥ ५३॥ द्विचत्वारिंशदब्दानां सहस्राणि भुजंगमे । नवोऽरःपरिसर्पाणां पूर्वांगानि वरायुषि ॥ ५४॥ पूर्वकोट्यवरे संज्ञिन्यप्येतौ भोगभूमिषु । त्रसाः सम्मूछिनो ये च न भवन्ति स्वभावतः ॥ ५५॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभोगभूमिष्ववस्थितम् । स्यादेकद्वित्रिपल्यायुर्नित्यास्वन्यासु तद्वरम् ॥ ५६ ॥ पूर्वकोट्येकपल्यं च पल्यद्वयामिति त्रयम् । समयेनाधिकं तासु नृतिर्यविवरं कमात् ॥ ५७ ॥ कर्मभूमिषु सर्वासु पूर्वकोटी मता स्थिातः । वरार्यम्लेच्छखंडोत्थवियच्चरनरेषु तु ॥ ५८ ॥ पूर्वकोटी वरं कर्मभूष्वायुस्तुर्यकालवत् । अनित्यकर्मभूषु स्यान्म्लेच्छविद्याधरक्षितौ ॥ ५९॥ असुरेऽर्णवोपमः स्यान्नागे पल्यत्रयं क्रमात् । सुपर्णद्वीपशेषेषु भौमे चाभर्द्धहीनकम् ॥६०॥ लक्षसहस्रशताब्दर्युक्तं पल्यं विधाविने । शुक्र क्रमाद्गुरौ पल्यं ग्रहेष्वन्येषु तद्दलम् ॥ ६१ ॥ परा पल्यचतुर्भागः स्थितिस्तारासु तद्दलम् । जघन्या पल्यमेकं स्यात्सौधर्मेशानकल्पयोः॥६२॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः : देवेषु द्वौ वरा सप्त स्थितिर्दश चतुर्दशः । कल्पे द्वाविंशतिर्यावत् द्वयुत्तराः सागरोपमाः ॥ ६३ ॥ उपर्यकोत्तरस्तावत्स्यस्त्रयस्त्रिंशदन्तिमे । सौधर्मेशानजा एव देव्यः स्युः स्वस्वकल्पगाः ॥ ६४ ॥ अल्पं कल्पद्वये पल्यं साधिकं जीवनं वरम् । सौधर्मे पंच पत्यानि तानीशानादिषु क्रमात् ॥ ६५ ॥ एकादशसु कल्पेषु द्वयधिकानि तु चतुर्ष्वतः । सप्तोत्तराणि देवीनामहमिन्द्रस्ततः परम् ॥ ६६ ॥ यत्किल्विषिक सन्मोहा लान्तवान्तं भवन्ति ते । अच्युतावधि कंदर्पा आभियोग्यसुरा अपि ॥ ६७ ॥ सारस्वतादयो ब्रह्मलोके लौकान्तिकामराः । तेषामष्टावरिष्टे तु नवायुः सागरोपमाः ॥ ६८ ॥ आहारस्मृतिरुच्छ्रासः सागरोपमसंख्यकैः । समासहस्त्रैः पक्षैश्च यथासंख्यं सुरायुषि ।। ६९ ।। मिथ्यादृष्टिः सासादनो मिश्रः सुहगसंयतः । देशव्रती प्रमत्तः स्यादप्रमत्तश्च संयतः ॥ ७० ॥ स्यातामपूर्वकरणानिवृत्तिकरणौ ततः । स्युः सूक्ष्म सांपरायोपशान्तक्षीणकषायकाः ॥ ७१ ॥ जिनः सयोगोऽयोगः स्युश्चतुर्दश गुणा इति । मोहयोगसमुद्भूताः सिद्धास्तद्गुणनिर्गताः ॥ ७२ ॥ ( त्रिकम् ) स्युराहारशरीराक्षोच्छ्रासभाषामनस्त्विमाः । पर्याप्तयः समन्तादात्मस्थशक्तिसमृद्धयः ॥ ७३ ॥ सादिदेहोदयादाप्तां प्रारंभोऽकमतः क्रमात् । अन्तर्मुहूर्ते निष्पत्तिरपर्याप्तिस्त्वपूर्णता ॥ ७४ ॥ एकाक्षे विकलाक्षेषु चासंज्ञिनि संज्ञिनि । चतस्रः पंच पंचैताः षड् भवन्ति यथाक्रमम् ॥ ७५ ॥ ८५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसार नारकाणां खरः कायोऽत्यशुभाभिन्नविक्रियः। करालः कालो दुर्गन्धो धातूनोन्तर्मुहूर्ततः ॥ ७६ ॥ अणिमादिगुणं सप्तधात्वपेतं मनोहरम् । जायतेऽन्तर्मुहूर्तेन देवांगे नवयौवनम् ॥ ७७॥ पंचाक्षायुर्मनोवाकाथाऽऽनापाना दशांगिनः । प्राणंत्येभिरिति प्राणा बाबैरन्नादिभिर्यथा ॥ ७८ ॥ संड्यादौ स्युर्दशैकैकहीनास्तेन्त्ये द्विवर्जिताः। पूर्णे त्वपूर्णके सप्त सप्तैकैकविहीनकः ॥ ७९ ॥ संज्ञा वाञ्छाश्चतस्त्रः स्युरत्राऽमुत्र च दुःखदाः। आहारे भयतो मैथुनेगिनां ताः परिग्रहे ॥८०॥ ते गताविन्द्रिये काये योगे वेदकषाययोः । संयमे दर्शने ज्ञाने लेश्याभव्यत्वयोरपि ॥ ८१ ॥ सम्यक्त्वसंज्ञित्वाऽऽहारे गुणिनो मार्गणा इति । मृग्यन्त एभिरिति वा स्वकर्मभ्यश्चतुर्दश ॥ ८२ ॥ (युग्मम्) गतयो नारकतिर्यमनुष्यामरपर्ययाः चतस्रो गतिकर्माणि तत्तन्निर्मापकानि वा ॥ ८३ ॥ स्पर्शनादीन्द्रियैर्युक्ता रसनायेकवृद्धिभिः। एकद्वित्रिचतुःपंचाक्षांगिनः स्वोक्तकर्मभिः ॥ ८४ ॥ भूवारिवन्हिवातांगा ये वनस्पतिकायिकाः। स्थ्लाः सूक्ष्माश्च ते सर्वे भवंत्येकेन्द्रियांगिनः ॥ ८५ ॥ शंखशुक्तिनखक्षुल्लकक्षेदिककपर्दिकाः। गंडूपदोदरकृम्याद्याश्च ते द्वीन्द्रियांगिनः ॥ ८६ ॥ गोभीन्द्रगोपवृश्चिकधूकालिक्षापिपीलिकाः। कुन्थुस्त्रीमत्कुणाद्याश्च जिनेन्द्रैस्त्रीन्द्रियाः स्मृताः ॥ ८७॥ मृगः पतंगः कीटश्च दंशो मशकमक्षिके । मधु गोमक्षिकाद्याश्च देहिनश्चतुरिन्द्रियाः ॥ ८८ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एकादशोऽधिकारः । ८७ जलस्थलखगास्ते ये मीननागशुकादयः। ज्ञेयाः पंचेंद्रियाः सर्व नारकाश्च नराः सुराः॥ ८९॥ पृथिव्यतजोवायुवनस्पतित्रसकायिकाः। जीवाः षडिति पृथ्व्यादिनामकर्मविशेषजाः ॥ ९० ॥ मसूरिकापयोबिन्दुसूचीवृन्दध्वजोपमाः। कायाश्चतुषु पृथ्व्यादिष्वन्त्ययोर्विविधाः स्मृताः ॥९१॥ समचतुरस्र न्यग्रोधस्वाती द्वे च वामनम् । कुब्जं हुंडमिति प्रोक्तं संस्थानं षड्डिधं जिनैः ॥ ९२ ।। हुंडं पुनारकैकाक्षाद्यसंड्यंतेषु सामरे । भोगभूजे भवेदाद्यं सर्वाण्यन्येषु देहिषु ॥९३ ॥ रसरत्नशिलालोहवालुकागैरिकादयः। मृदश्च पृथ्वीतत्कायाः पृथिवीकायिकांगिनः ॥ ९४॥ नदीनदसमुद्रादिजलवर्षाम्बुसीकराः । स्युः प्रालयादयश्चापस्तदप्कायाः स्वकायिकाः ॥९५॥ स्युरंगाराः स्फुलिंगाश्च ज्वालाश्चाप्यन्यवन्हयः । तेजांसि तच्छरीरा ये ते तेजस्कायिकाः स्मृताः ॥ ९६॥ वातो वात्या महावाता व्यजनादिभवाश्च ये। ते वातास्तच्छरीराः स्युरंगिनो वातकायिकाः ॥९७॥ ते वनस्पतयो वृक्षापवल्लीतृणादयः। उद्वेजनक्रियाभाजस्त्रसाः स्युर्तीन्द्रियादयः ।। ९८॥ कर्मादाननिमित्तात्मप्रयत्नो योग इष्यते। देहनामैनसः पाकात्प्रदेशस्पंदलक्षणः ॥ १९ ॥ मनोयोगः स वाग्योगः काययोग इति त्रिधा । मनोवचनपर्याप्तिकायवत्सु क्रमेण नुः ॥ १०॥ स्त्री पुमान् षण्ड इत्येवं भावा वेदास्त्रयोंऽगिषु । ते स्त्रीपुंषण्ढवेदैनः प्रदेशोदयसंभवाः ॥ १०१॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आचारसारे numan.arrrrrrror... स्त्रीपुवेदाः सुरा भोगभूमिजाताश्च नारकाः। षण्ढाः सम्मूर्च्छिनश्चान्ये नृतियञ्चस्त्रिवेदिनः ॥ १०२॥ ईशानान्ते प्रवीचारः स्याहृयोस्त्रिचनुव॑तः। शरीरे स्पर्श रूपे च शब्दे चित्ते ततो न सः ॥१०३॥ चतुःकषायाः क्रुन्मानमायालोभा विपाकजाः । चतुःकषायाः सामान्यक्रोधादिद्रव्यकर्मणः ॥ १०४॥ ज्ञानमष्टविधं ज्ञातं पुरा स्युः सप्त संयमाः। चारित्रपंचकं देशसंयमासंयमान्वितम् ॥ १०५॥ प्रत्याख्यानकषायोदयेन स्याद्देशसंयमः। विविधाऽसंयमो भावोप्रत्याख्यानकषायतः॥१०६ ॥ दर्शनं ग्रहणं सामान्यात्मनस्तच्चतुर्विधम् । अचक्षुश्चक्षुरवधिः केवलं चेति वर्णितम् ॥ १०७॥ चक्षुःशेषेन्द्रियज्ञानहेत्वचक्षुरचक्षुषी। विभंगावधिहेतुः स्यादेकं त्ववधिदर्शनम् ॥ १०८ ॥ चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणैनसाम् । क्षयोपशमतश्चक्षुर्दर्शनादित्रयं भवेत् ॥ १०९ ॥ समं केवलबोधेन केवलं दर्शनं भवेत् । निजावरणनिःशेषक्षयात्क्षायिकमक्रमात् ॥ ११० ॥ कृष्णनीलकपोताख्या लेश्यास्तिस्रोऽशुभाः शुभाः। स्युस्तेजःपद्मशुक्लाख्याः कषायोन्मिश्रयोगजाः ॥ १११॥ निर्वाणयोग्यता भव्यताऽन्याऽनिर्वाणयोग्यता। अष्टकर्मोदयाज्जाते अप्येते पारिणामिकौ ॥११२ ॥ षट् सम्यक्त्वानि पूर्वोक्तवेदकादिरुचित्रयम् । मिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वसासादनगुणैः सह ॥ ११३ ॥ मिथ्यात्वकर्मणः पाकान्मिथ्यात्वं मिश्रता भवेत्। सम्यमिथ्यात्वकर्मोदयात्तु श्रद्धानघातिनः ॥ ११४ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः । दृमोहस्योदयादिभ्यो यन्न सासादनो गुणः । जात औदयिकोऽपि स्यात्तदयं पारिणामिकः ॥ ११५॥ संज्ञित्वं समनस्कत्वं शिक्षाऽऽदानादियोग्यता। भवेदसंज्ञिता संज्ञिलक्षणालक्षितत्त्वतः ॥ ११६ ॥ नोकर्माऽऽदानमाहारः सादिदेहत्रयोदयात् । नोकर्माऽऽहरणाभावस्त्वनाहारः प्ररूपितः ॥ ११७॥ साकार उपयोगः स्यादुपयोगोऽष्टबोधजः । अनाकारश्चतुर्दर्शनोत्थस्तो जीवलक्षणम् ॥ ११८ ॥ नृतिर्यक्संज्ञिपर्याप्तकर्मभूगर्भजे जनिः। सुराणां नारकाणां च सप्तम्याः स्यात्तिरश्चि तु ॥ ११९ ॥ तीर्थशाश्चरमांगाश्च संयता देशसंयताः । तुर्यादिसप्तम्यंताभ्यश्च्युता नो नारकाः क्रमात् ॥ १२० ॥ नारकोऽनन्तरं न स्यान्चक्रेशः केशवो बलः । शलाकपुरुषा नैव ऋतिर्यग्भावनत्रयम् ॥ १२१ ॥ च्युतो न केशवोऽनुदिशानुत्तरविमानतः। संज्ञिपूर्णेषु जायन्ते आसहस्रारतश्च्युताः॥१२२ ॥ भवन्त्यनन्तरं देवा ये आईशानतश्युताः। अप्रतिष्ठितप्रत्येकस्थूलभूतोयपूर्णगाः ॥ १२३ ॥ तिर्यक्षु मर्त्यतिर्यंचस्ते तेजोवायुवर्जिताः। नृषु पंचेंद्रियाः पूर्णा नारकेष्वमरेष्वपि ॥१२४ ॥ अष्टवाराद्विवारान्तं धर्मोादिष्वसंज्ञिनः। सरीसृपाः खगाः सर्पाः सिंहाः कान्ता नरापचराः ॥१२५॥ भौमभावनयोः पूर्णो असंज्ञी भोगभूमिजाः। तापसप्रवराश्चापि जायन्ते भुवनत्रये ॥ १२६॥ स दृष्टिभोगभूजाताः सौधर्मेशानकल्पयोः। पर्याप्ताः कर्मभूसंज्ञिमानवा भोगभूमिषु ॥ १२७ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० आचारसारे परिव्राड् ब्रह्मकल्पान्तं यात्युग्राचारवानपि । आजीवकः सहस्रारकल्पान्तं दर्शनोज्झितः ॥ १२८ ॥ यान्त्यच्युतान्तमुत्कर्षात्तिर्यचो मानवा अपि । सम्यग्दर्शनसंपन्नाऽसंयता देशसंयताः ॥ १२९ ॥ मर्त्यासंयतसदृष्टिदशव्रतिकुदृष्टयः । येन्त्यग्ग्रैवेयकान्तं ते यान्ति सद्रव्यसंयमात् ॥ १३० ॥ यान्ति सर्वार्थसिध्यतं नराः संयमिनॠयुताः । सर्वार्थसिद्धिजा मोक्षगाः स्युर्लोकान्तिका अपि ॥ १३१ ॥ सलोकपालाः शक्रादिदक्षिणेन्द्रा दिवच्युताः । शकाग्रमहिषीयुक्ता नृषु निर्वात्यनन्तरम् ॥ १३२ ॥ यस्यां जातिजरामृत्युक्शाश्लेषो न विद्यते । सोक्ता सिद्धगतियति तां मर्त्या गुणभूषणाः ॥ १३३ ॥ प्ररूपणानामन्योन्ययोजनक्रमबुद्धये । गुणस्थानानि योज्यन्ते मार्गणादिषु केषुचित् ॥ १३४ ॥ चत्वारि पंच सर्वाणि चत्वारि नरकादिषु । पंचेन्द्रिये से सर्वाण्याद्यं त्वन्याक्षकाययोः ॥ १३५ ॥ संज्ञ्याद्याः क्षीणमोहान्ताः संयोगान्ताश्च ते क्रमात् । मोषोभयमनोवाक्षु मनोवाक्ष्वपरेष्वपि ॥ १३६ ॥ पर्याप्तद्वन्द्रिया आदिस्तुरीयवचने पुनः स्थावरादिसयोगान्ताः पूर्णा औदारिके मताः ॥ १३७ ॥ कुदक्सासादनोऽ पूर्णः सुदृक् पुंवेद्यसंयतः । कवायोगी तन्मिश्रे मर्त्यतिर्यक्षु तद्द्वयम् ॥ १३८ ॥ पूर्णे वैक्रेयिकोsपूर्णे तन्मिश्रः सुरनारके । मिश्र न मिश्रः सासादनोत्पत्तिर्नरकेषु न ॥ १३९ ॥ आहारदेहपर्याप्त्या पूर्णापूर्णप्रमत्तयोः । अन्तर्मुहूर्तकालौ तु आहाराऽऽहारमिश्रकौ ॥ १४० ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः । कुक्सासादनसुदृचतुर्गतिगविग्रहे। कार्मणस्तु सयोगस्य प्रतरे लोकपूरणे ॥ १४१ ॥ स्थावरादिस्ववेदाऽनिवृत्त्यंताः स्युनपुंसके । असंड्यादिस्ववेदानिवृत्त्यन्ताः शेषवेदयोः ॥१४२ ॥ कुडगाद्यनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्भागगा गुणाः। क्रोधत्रये कमाल्लोभे सूक्ष्मलोभान्तिका दश ॥ १४३ ॥ एकेन्द्रियादिपर्याप्तसंड्याद्याद्यगुणद्वये । स्यातां मतिश्रुताज्ञाने विभंगोऽपि यथाक्रमम् ॥ १४४॥ चतुर्थषधप्रभृतिक्षीणमोहान्तगाः क्रमात् । ज्ञानत्रये मनःपर्ययेऽहत्सिद्धेषु केवलम् ॥१४५ ॥ असंयमे चतुर्थान्ताः पंचमो देशसंयमे । प्रमत्ताद्यनिवृत्त्यंता यमे सामायिकद्वये ॥१४६॥ परिहारौं प्रमत्ताप्रमत्तौ सूक्ष्मलोभकः । स्यात्सूक्ष्मसांपरायेऽन्ये यथाख्याते तनी न सः ॥ १४७ ।। चतुरक्षकाक्षायतसदृष्ट्याद्यास्तु दर्शने। छद्मस्थान्ताः स्मृताश्चक्षुष्यचक्षुष्यवधी क्रमात् ॥१४८॥ केवले जिनसिद्धाः स्युः स्थावरायाश्चतुर्गुणाः। अप्रशस्तत्रिलश्यासु प्रमत्तान्ताश्च कीर्तिताः॥१४१॥ शुभलेश्यासु संझ्यादिसप्तमान्तास्ततोऽपरे । शुक्लायां स्युः सयोगान्ता लेश्यातीतास्ततः परे ॥ १५० ॥ भव्ये सर्वगुणस्थानान्यभव्ये प्रथमो गणः । मिथ्यात्वादित्रये मिथ्यादृष्टयाद्याः स्युस्त्रयो गुणाः ॥ १५१ ॥ वेदकाद्योपशमयोश्चतुर्थाद्याश्चतुर्गुणाः। चतुर्थायुपशान्तान्ता द्वितीयोपशमे मताः ॥ १५२ ॥ सिद्धान्ताः स्युश्चतुर्थाद्याः सम्यक्त्वे क्षायिके वरे । संज्ञिनि द्वादश गुणा मिथ्यादृष्टिरसंक्षिनि ॥ १५३ ॥ ___ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे कुदृष्टयादिसयोगान्ता आहारे कार्मणे स्थिताः। अयोगिनश्चानाहारे सिद्धा निर्धूतकार्मणाः ॥१५४॥ चतुर्दशसु मिथ्यादृक्पूर्णेऽपूर्णे च संज्ञिनि । सासादनायतसुहकप्रमत्तास्तु गुणास्त्रयः॥१५५॥ पूर्ण जीवसमासे स्युः संज्ञिनोऽन्ये जिनौ विना । एवं जीवसमासेषु मार्गणा अपि योजयेत् ॥ १५६ ॥ सप्तम्याः श्रेण्यसंख्यातभागमात्रास्ततः क्रमात् । घर्माया नारका यावदसंख्यातगुणाः स्मृताः॥१५७॥ पंचाक्षाः प्रतराऽसंख्यभागमात्रास्ततोऽधिकाः। चतुस्त्रिद्वीन्द्रया जीवाः कमात्ते त्रसकायिकाः॥१५८॥ असंख्यलोकाः स्युस्तेजस्कायिकाः क्रमशोऽधिकाः। तदसंख्येयभागेन पृथ्व्यप्पवनकायिकाः ॥ १५९ ॥ अनंतानंतसंख्याता निगोदाः क्रमशोऽधिकाः । वनस्पतय एकाक्षास्तिर्यञ्चश्च यथोचितम् ॥ १६० ॥ अन्तरद्वीपकुनराः संख्याता गुणिताः क्रमात् । संख्यातरूपैः कुरुषु हरिरम्यकवर्षयोः ॥ १६१ ॥ हैमवतभूहैरण्यवतो? गभूमिजाः। भरतैरावतक्षेत्रे विदेहे पूर्णमानवाः ॥ १६२ ॥ युग्मं । लब्ध्यपूर्णा जगच्छ्रेण्यसंख्यभागमिता मताः। भरतादिषु कर्मावनीषु तेभ्योऽधिका नराः॥ १६३ ॥ असंख्यश्रेणिवैमानिकेभ्योऽसंख्यगुणाः क्रमात् । भावना वाना ज्योतिष्कास्तेभ्यः संख्यातसंगुणाः॥ १६४॥ मर्येभ्योऽसंख्यगुणिता असंख्यश्रेणिनारकाः । तेभ्यो देवास्ततः सिद्धाश्चासंख्यानंतसंगुणाः ॥ १६५ ॥ तिर्यचोऽनंतगुणितास्तेभ्यः संसारिणोऽधिकाः। सिद्धराशिप्रमाणेन सर्वे जीवास्ततोऽधिकाः॥१६६ ॥ ___ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः । आधारे बादराः सूक्ष्माः सर्वत्र त्रसनालिगाः। त्रसास्तु विकलाक्षाः स्युस्तिर्यग्लोके व्यवस्थिताः ॥ १६७॥ कर्मायत्तश्चिरं जीवः संसारे पर्यटत्यसौ। प्रकृत्याऽपविधं त्वष्टचत्वारिंशच्छतं च तत् ॥ १६८ ।। यत्तत्राष्टविधं ज्ञानदर्शनावरणीयतः। स्याद्वेदनीयमोहायुर्नामगोत्रान्तरायतः ॥ १६९ ॥ ज्ञानं मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलम् । आवृणोतीति तज्ज्ञानावरणं पंचभेदगम् ॥ १७० ॥ स्त्यानगृद्धिन्द्रिानिद्राप्रचलाप्रचलाद्वयम् । निद्रा च प्रचला चक्षुरचक्षुर्दर्शनावृती ॥ १७१ ॥ अवधेः केवलस्यापि दर्शनस्यावृती इति। चतुर्विधेऽपि स्वावार्ये दर्शनावतयो नव ॥ १७२ ॥ युग्मम् । सातासातद्वयं वेद्यः । मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वं सम्यक्त्वं दृग्विमोहनम् ॥ १७३ ।। क्रोधादिभेदानंतानुबन्धी संज्वलनस्तथा । प्रत्याख्यानः कषायः स्यादप्रत्याख्यान इत्यमी ॥ १७४॥ चारित्रमोहनीयं स्यु!कषायाश्च ते नव। पुरुषस्त्रीषण्ढवेदत्रयं रत्यरती तथा ॥ १७५॥ हास्यशोको भयं चापि जुगुप्सायुश्चतुर्विधम् । निरयायुस्तिर्याय॑सुरायूंषीति वर्णितम् ॥ १७६ ॥ नाम त्रिनवतिर्भेदैर्गतिस्तत्र चतुर्विधा। जातिः पंचविधा पंचभेदभंगं च बन्धनम् ॥ १७७॥ पंचभेदोऽगसंघातः स्युः संस्थानानि षट्र तनोः । त्रीण्यंगोपांगनामानि देहसंहननानि षट् ॥ १७८ ॥ वर्णाः पंच द्विगन्धौ स्युः पंच रसाः स्पर्शाष्टकम् । आनुपूर्व्यश्चतस्रोऽगुरुलध्वेकं शरीरगम् ॥ १७९ ॥ ___ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ आचारसारे उपघातपरघातोच्छ्वासाऽऽतापचतुष्टयम् । उद्योतमेकं द्विविधं विहायोगतिकर्म यत् ॥ १८० ॥ त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकं स्यात् स्थिरं शुभम् । सुभगं सुस्वरादेययशस्कीर्ति च सेतरम् ॥ १८१ ॥ निर्माणमेकं स्यात्तीर्थकरनामाप्यनुत्तरं । उच्चनीचद्विभेदस्य पात्रं तद्गोत्रकर्म यत् ॥ १८२ ॥ स्यादानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायतः। पंचभेदोऽन्तरायोऽयं दानाद्यन्तरमेति यत् ॥ १८३ ॥ त्रिंशव्यायंतरायेषु कोटीकोट्यः परा स्थितिः। सप्ततिर्मोहनीयस्य स्युर्विशतिर्नामगोत्रयोः ॥१८४ ॥ सागराणां त्रयस्त्रिंशत्स्यादायुष्यपरा स्थितिः । वेद्ये मुहूर्ताः स्युर्दादशाष्टौ ते नामगोत्रयोः ॥ १८५॥ शेषेष्वन्तर्मुहूर्तः स्यादात्मना सह संस्थितेः । कालः प्रतिक्षणं बद्धकर्मणां स्थितिरीरिता ॥ १८६ ॥ कर्मस्पर्शगुणो यस्तु सोनुभाग इतीष्यते। लतानिंबगुडायात्मनानाभेदैत्रिजैर्युतः ॥१८७ ॥ संतानापेक्षयाऽनादिः सादिनूतनबन्धनात् । प्रदेशः कर्मणः स्कन्धः प्रकृत्यादित्रयात्मकः ॥ १८८ ॥ जीवकर्मस्वरूपज्ञो विज्ञानातिशयान्वितः। कर्मनोकर्मनिर्मोक्षादात्मा शुद्धात्मतां व्रजेत् ॥ १८९ ॥ श्रीमान्नः परमां रमा निरुपमां दद्यादनंतो जिनो विज्ञानातिशयेन येन दुरितात्मानौ विभिन्नौ कृतौ। संपृक्तौ प्रतिपक्षहीनममितं प्राप्तं सदावस्थितं । शर्मानक्षजमक्षयं स्वतिशयं शुद्धात्मजातं नुतम् ॥ १९०॥ इति श्रीमद्वीरनंदिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणीते श्री ‘आचारसार' नाम्नि शास्त्रे जीवकर्मप्ररूपणात्मक एकादशोऽधिकारः ॥११॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः । अथ द्वादशोधिऽकारः ॥ १२ ॥ सद्वंशजः पेशलविश्वशीलः श्लिष्टो गुणैर्युष्टतरैर्विशिष्टैः। दुरंतदुःकर्महरः कृतार्थो धर्मो जिनः स्ताद्विजयश्रिये नः ॥१॥ धमैर्गुप्तिभिः करणसंज्ञाऽक्षप्राणसंयमैः। अष्टादशसहस्राणि शीलान्ान्योऽन्यसंगुणैः ॥२॥ सत्क्षान्तिमार्दवार्जवशौचाऽऽकिंचन्यसंयमाः। ब्रह्मचर्यतपःसत्यत्यागा धर्मा दश स्मृताः॥३॥ चत्वारः सत्क्षमाद्याः स्युश्चतुःक्रोधादिनिर्जयाः। परिग्रहपरित्यागस्त्यागः शेषाः पुरोदिताः ॥ ४॥ मनोवचनकायानां व्यापाराः करणास्त्रयः। ज्ञातास्त्रिगुप्तयः संज्ञाश्चतस्रोऽक्षाणि पंच च ॥ ५ ॥ प्राणा दशोधतोयाग्निमरुत्प्रत्येककायिकाः । अनंतकायाः स्युर्द्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियांगिनः ॥६॥ क्षमायुक्ते मनोगुप्ते सुमनस्यशनास्पृहे । स्पर्शनोर्वीयमे शीलमाद्यमेवं पराण्यपि ॥ ७॥ एकविंशत्याहिंसाद्या अनतिक्रमणादयः। चत्वारः स्युः शतं प्राणप्राणिघातविवर्जनम् ॥८॥ प्रायश्चित्तानि शीलानामाराधनगुणा दश । आलोचनगुणाश्चैते गुणास्त्वन्योन्यसंगुणाः ॥ ९॥ व्रतान्यक्षनिरोधश्च मार्दवादिचतुष्टयम् । भीरत्यरतिजुगुप्साऽज्ञानपैशून्यवर्जनम् ॥ १० ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे सम्यक्त्वमप्रमादश्च मनोवाकायगुप्तयः। एकविंशतिरित्येवमहिंसादिगुणाः स्मृताः॥११॥ अतिक्रमणव्यतिक्रमानाचारातिचारगाः। त्यागा अनतिक्रमणचतुष्टयमितीरितम् ॥ १२॥ दशप्राणैर्दशप्राणिष्वेकैकस्य वधाच्छतम् । प्राणप्राणिवधास्तेषां त्यागाः शतगुणा मताः ॥ १३ ॥ स्त्रीसंगोऽर्थार्जनं स्वांगमंडनं वृष्यभोजनम् । गीतं वाद्यं नगादिश्च शयनाशनभूषणम् ॥ १४ ॥ रात्रिसंचरणं राजसेवा कुत्सितसंगमः। इत्यमीषां परित्यागा दश शीलप्रसाधकाः ॥१५॥ दशाऽत्र पूर्वमुक्तानि प्रायश्चित्तानि विस्तरात् । आलोचनागस्त्यागाः स्युरालोचनगुणा दश ॥१६॥ सदयेऽतिकमापेते त्यक्तभूभूमिघातने । सालोचने व्यपेतस्त्रीसंगे आकंपितोज्झितं ॥१७॥ आद्यो गुणो भवेदेवं शेषान्नुच्चारयेद्गुणान् । गुणाश्चतुरशीतिः स्युर्लक्षाणीति प्रसिद्धिदाः ॥ १८॥ गुणादौ पंच संख्यानं प्रस्तारः परिवर्तनम्। नष्टमुद्दिष्टमित्येते गुणनादिक्रमा मताः ॥ १९ ।। पूर्वपूर्वेऽखिलाः सार्द्धमेकैकैरुत्तरोत्तरैः। मिलन्तीति क्रमात्तांस्तैर्गुणिते प्रमितिर्मता ॥ २० ॥ निक्षिप्याद्यादिकं पिंडं प्रति पिंडं क्रमात्क्षिपेत् । एकमेकं द्वितीयादेः समप्रस्तारके गुणे ॥ २१ ॥ द्वितीयाद्यौर्मितं पिंडं निक्षिप्याद्यादिमत्र तु । एकमेकं द्वितीयादेः प्रस्तारे विषमे क्षिपेत् ॥ २२ ॥ अन्तं गत्वाऽऽदिगे आये द्वितीयोऽकः सरत्युभौ । अन्तं गत्वाऽऽदिसंस्थौ चेत्तृतीयोऽन्येष्वयं क्रमः ॥ २३ ॥ ॥ ___ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः । Antarva आधसंख्याहृते स्वेष्टभाज्ये शुद्धोन्तसंस्थितः । शेषे शेषमितस्थाने संस्थितोऽकस्ततः परम् ॥ २४ ॥ लब्धं रूपाधिकं भाज्यं भाज्यशेषेऽन्यथा पुनः । लब्धमेव स्वसंख्यायाः क्रियाऽन्या स्यात्पुरोदिता ॥ २५ ॥ ऊर्द्धमात्मप्रमाणने रूपे तस्मिन्नधःक्रमात् । स्वस्वसंख्याहते संख्या सर्वत्राऽनकितोनितौ ॥२६॥ ये पालयंति शीलानि गुणांश्च प्रगुणाशयाः। लभन्ते ते भवच्छदादनंतसुखसम्पदम् ॥ २७ ॥ प्रणतभुवननाथो धर्मतीर्थाधिनाथः प्रहतदुरितवर्गः प्रोक्तसन्मुक्तिमार्गः। प्रशमितजनतार्तिः शुद्धदृग्ज्ञानमूर्तिः प्रवरकनककान्तिः श्रेयसे वोऽस्तु शान्तिः ॥ २८ ॥ मिथ्याभावभवातिदर्पपरतद्दःशासनोच्छेदकं प्रज्ञाज्ञावशवर्त्तमानजनतासत्सौख्यसंपादकम् । नानारूपविशिष्टवस्तुपरमस्याद्वादलक्ष्मीपदं जेजीयाज्जिनराजशासनमिदं स्वाचारसारप्रदम् ॥ २९ ॥ सिद्धान्तार्णवपूर्णतारकपतिस्तर्काम्बुजाहपतिः शब्दोद्यानवनामृतोरुसरणियोगीन्द्रचूडामणिः । विद्यापरसार्थनामविभवः प्रोद्धतचेतोभवः स्थेयादन्यमृतावनीमृदशनिः श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ॥ ३० ॥ यद्वाक्छ्रीरवतंसमंडनमणिवैदग्ध्यदिग्धत्विषां यच्चारित्रविचित्रता शमभृतां सूत्रं पवित्रात्मनाम् । यत्कीर्तिर्धवलप्रसादनधुरं धत्ते धरायोषितः स त्रैविद्याविभूषणं विजयते श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ॥ ३१॥ वैदग्ध्यश्रीवधूटीपतिरतुलगुणालंकृतिर्मेधचन्द्रस्वैविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभूतो भेदने वजपातः। ___ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसारे सैद्धान्तिव्यूहचूडामणिरनुफलचिन्तामणिभूजनानां योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवति महौ वीरनंदी मुनीन्द्रः ॥३२॥ श्रीमेघचन्द्रोज्ज्वलमूर्तिकीर्तिः समस्तसैद्धान्तिकचक्रवर्ती। श्रीवीरनन्दीकृतवानुदार माचारसार यतिवृत्तसारम् ॥ ३३ ॥ इति श्रीमन्मेषचन्द्रवियदेवपादप्रसादाऽऽसादिताऽऽत्मप्रभावसमस्तविद्याप्रभावसकलदिग्वर्तिकीर्तिश्रीमदीरनंदिसैद्धांतिचक्रवर्तिप्रणीते श्री आचारसार' नाम्नि ग्रन्थे शीलगुणवर्णनात्मको द्वादशोधिकारः ॥ १२ ॥ श्लोकप्रमाणमाह । ग्रन्थप्रमाणमाचारसारस्य श्लोकसम्मितम् । भवेत्सहस्रं द्विशतं पंचाशच्चांकतस्तथा ॥१॥ इति श्रीमद्वीरनन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्तिप्रणीतः श्रीआचारसारः समाप्ति पफाण। PAARAMAHALDHIMALAYARIORAIYA हा समाप्तोऽयं ग्रन्थः। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द-ग्रन्थमाला । ( पूर्वप्रकाशित ग्रन्थ ) १ लघीयस्त्रयादिसंग्रह | भट्टाकलंकदेवकृत लघीयस्त्रय सटीक, आचार्य अनन्तकीर्तिकृत लघु सर्वज्ञसिद्धि - बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और अकलंकदेवकृत स्वरूपसंबोधन, इन चार ग्रन्थोंका संग्रह | मू० 1 = ) २ सागारधर्मामृत | पं० आशाधरकृत मूल और स्वोपज्ञटीका सहित। मू०|) ३ विक्रान्तकौरवीय नाटक | कवि हस्तमलङ्कृत । मू० 1 ) ४ पार्श्वनाथचरित । महाकवि वादिराजसूरिकृत उत्कृष्ट काव्य | भू० ॥) ५ मैथिली कल्याण नाटक । कवि हास्तिमल्लकृत । मू० ।) ६ आराधनासार । आचार्य देवसेनकृत मूल ( प्राकृत ) और रत्न कीर्तिर्देवकृत संस्कृतटीका । मू० | ) || ७ जिनदत्तचरित्र | आचार्य गुणभद्रकृत । मू० 1 ) ८ प्रयम्नचरित्र | आचार्य महासेनकृत । मू० ॥ ) ९ चारित्रसार । श्रीमच्चामुण्डरायकृत | मू० 1 =) १० प्रमाणनिर्णय | आचार्य वादिराजकृत । मू० ।-) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Garamirmirmirmwaran, निवेदन। Esernahhhhhhhhhhhhhhnnnes ई इस ग्रन्थमालाकी सहायता करना प्रत्येक धर्मात्माक / है / यह केवल प्राचीन जैनसाहित्यके उद्धारके लिए प्रकाशित 1 की जाती है / प्रत्येक ग्रन्थका मूल्य ठीक लागर के बराबर रक्खा जाता है। इसके प्रत्येक ग्रन्थकी दश दश पाँच पाँच { प्रतियाँ खरीदकर विद्वानोंको, पुस्तकालयोंको, जैनमन्दिरोंको ई धर्मार्थ देना चाहिए। प्रभावनाके लिए इससे अच्छा काम और नहीं हो सकता / ग्रन्थमालाके किसी ग्रन्थकी कमसे कम ई 250 प्रतियाँ लेनेवालोंका फोटू उस ग्रन्थकी तमाम प्रतियोंमें लगवा दिया जाता है। निवेदक नाथूराम प्रेमी, मंत्री माणिकचन्दजैनग्रन्थमाला समिति, हीराबाग, बम्बई। है magmanomame srohrhahnarangan &ormansamannahramones