________________
(२) आचार्य वीरनन्दिका मेघचन्द्रके साथ पिता-पुत्रका भी सम्बन्ध था । यथा
वैदग्ध्यश्रीवधूटीपतिरतुलगुणालंकृतिमेघचन्द्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वनपातः। सैद्धान्तव्यूहचूडामणिरनुपमचिन्तामणिभूजनानां
योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवति महौ वीरनंदी मुनीन्द्रः॥ यह श्लोक इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें भी है और श्रवणबेलगुलके ५० वें शिला. लखमें भी।
श्रवणबेलगुलके नं० ४७-५० और ५२ नम्बरके लेखोंसे मालूम होता है कि आचार्य मेधचन्द्रका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ ( वि० संवत् ११७२ ) में और उनके शुभचन्द्र देव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक सं० १०६८ ( वि० १२०३) में हुआ था तथा उनके दूसरे शिष्य प्रभाचन्द्र देवने शक सं० १०४१ (वि० सं० ११७६ ) में एक महापूजा प्रतिष्ठा कराई थी। इससे मालूम होता है कि आचारसारके कर्ता श्रीवीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती इसी समयके लगभग अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दिमें हो गये हैं। __कर्नाटककविचरित्रके कर्त्ताने नागचन्द्र कविका समय वि० सं० ११६२ के लगभग निश्चित किया है और इस कविके गुरु बालचन्द्रको मेघचन्द्रका सहाध्यायी बतलाया है । इससे भी मालूम होता है कि मेघचन्द्रके शिष्य वीरनन्दिका समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दिका उत्तरार्ध ठीक है। _चन्द्रप्रभचरित काव्यके कर्ता महाकवि वीरनन्दि इनसे भिन्न हैं । वे अभय . नन्दिके शिष्य और गुणनन्दिके प्रशिष्य थे। वे हुए भी इनसे पहले हैं।
इनके बनाये हुए अन्य किसी ग्रन्थका नाम हमें मालूम नहीं । इस ग्रन्थका सम्पादन और संशोधन केवल एक प्रतिके आधारसे हुआ है जो कि हमें स्वर्गीय विद्याप्रेमी सेठ माणिकचन्द्रजीके चन्द्रप्रभचैत्यालयके सरस्वतीभंडारसे प्राप्त हुई थी । इस प्रतिपर उसके लिखे जानेका समय नहीं लिखा है, तो भी वह कमसे कम २५०-३०० वर्ष पहलेकी लिखी हुई होगी, ऐसा जान पड़ता है। प्रति बहुत शुद्ध है और किसी विद्वानके द्वारा किये गये टिप्पणसहित है।
निवेदकनाथूराम प्रेमी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org