SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवेदन | इस ग्रन्थक रचयिता आचार्य श्रीवीरनन्दि हैं । इनकी गणना बहुत बड़े विद्वानों में है । ये ' सिद्धांतचक्रवर्ती' पदवीसे विभूषित थे और मूल संघ, पुस्तक गच्छ और देशीय गणके आचार्य थे । इनके गुरुका नाम जैसा कि इस ग्रन्थके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिसे मालूम होगा - मेघचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती था । प्रशस्तिमें और श्रवणबेलगुल के शिलालेखों में इनकी बहुत ही प्रशंसा की हुई है । ४७ नम्बरके शिलालेख के नीचे लिखे तीन श्लोकोंको देखिए: तर्क न्याय सुवज्रवेदिरमलार्हत्सूक्तिसन्मौक्तिकः शब्दग्रंथविशुद्धशंखकलितः स्याद्वादसद्विद्रुमः । व्याख्यानोर्जितपोषण प्रविपुलप्रज्ञोद्धवीचीचयो जीयाद्विश्रुतमेघचन्द्रमुनिपस्त्रैविद्यरत्नाकरः ॥ श्रीमूल संघकृतपुस्तकगच्छदेशीयोद्यद्गणाधिपसुतार्किक चक्रवर्ती । सैद्धान्तिकेश्वर शिखामणिमेघचन्द्रस्त्रैविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति ॥ सिद्धान्ते जिनवीर सेनसदृशाः शास्त्राब्जनीभास्करः षट्तर्केण्वकलंकदेव विबुधः साक्षादयं भूतले । सर्वव्याकरण विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं त्रैविद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीभपंचाननः ॥ इन श्लोकों से मालूम होगा कि ग्रन्थकर्ता के गुरु न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त आदि सभी विषयोंके अपूर्व विद्वान् थे । उनके अनेक शिष्य थे, जिनमेंसे प्रभाचन्द्र और शुभचन्द्र आदि कई प्रधान शिष्योंके स्मृतिलेख श्रवणबेलगुलकी शिलाओं पर खुदे हुए हैं । कर्नाटककविचरित्रसे मालूम होता है कि इन मेघचन्द्रने आचार्य पूज्यपाद के समाधितंत्र की एक टीका लिखी हैं और ये अभिनव पंप ( नागचन्द्र ) के गुरु बालचन्द्रके सहाध्यायी थे । मेघचन्द्रकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी : -- गोलाचार्यअभयनन्दि - सोमदेव - सकलचन्द्र और मेघचन्द्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003101
Book TitleAachar Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri, Manoharlal Shastri
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1918
Total Pages106
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy