Book Title: Vruttamauktik
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishtan

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Page 10
________________ सञ्चालकीय वक्तव्य वैदिक छंदों का निरूपण नहीं है पर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य में प्रयुक्त प्रायः सभी छंदों का विस्तृत वर्णन है। जितने छंदों अर्थात् वृत्तों का निरूपण इस ग्रन्थ में किया गया है उतनों का वर्णन इसके पूर्व निर्मित किसी भी संस्कृत छंदोग्रन्थ में नहीं मिलता है। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ छंदःशास्त्र की एक परिपूर्ण रचना है। संस्कृत-साहित्य में पद्य-रचना के अतिरिक्त अनेक विशिष्ट गद्यरचनायें भी हैं जो काव्य-शास्त्र में वर्णित रस और अलंकारों से परिपूर्ण हैं, परन्तु गद्यात्मक होने से पद्यों की तरह उनका गेय स्वरूप नहीं बनता । तथापि इन गद्य-रचनाओं में कहीं कहीं ऐसे वाक्यविन्यास और वर्णन-कण्डिकाएँ, कविजन ग्रथित करते रहते हैं जिनमें पद्यों का अनुकरण-सा भासित होता है और उन्हें पढ़ने वाले सुपाठी मर्मज्ञ जन ऐसे ढंग से पढते हैं जिसके श्रवण से गेय-काव्य का सा आनन्द आता है। ऐसे गद्यपाठ के वाक्यविन्यासों को छन्दःशास्त्र के ज्ञाताओं ने पद्यानुगन्धी अथवा पद्याभासी गद्य के नाम से उल्लेखित किया है और उसके भी कुछ लक्षण निर्धारित किये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में वृत्तमौक्तिककार ने ऐसे विशिष्ट गद्यांशों का विस्तृत निरूपण किया है और इस प्रकार के शब्दालंकृत गद्य की कुछ विद्वानों की विशिष्ट स्वतंत्र रचनायें भी मिलती हैं जो विरुदावली और खण्डावली आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं । ऐसी अनेक विरुदावलियों तथा कुछ खण्डावलियों का निरूपण इस वृत्तमौक्तिक में मिलता है जो इसके पूर्व रचे गये किसी प्रसिद्ध छन्दोंग्रन्थ में नहीं मिलता। इस प्रकार को छन्दःशास्त्र-विषयक अनेक विशेषताओं के कारण यह वृत्तमौक्तिक यथानाम ही मौक्तिक स्वरूप एक रत्न-ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की विशिष्ट मूल-प्रति राजस्थान के बीकानेर में स्थित सुप्रसिद्ध अनूप संस्कृत पुस्तकालय में सुरक्षित है। मूल-प्रति ग्रन्थकार के समय में ही लिखी गई है-अर्थात् ग्रन्थ को समाप्ति के बाद १४ वर्ष के भीतर । यह प्रति आगरा में रहने वाले लालमणि मिश्र ने वि.सं. १६६० में लिख कर पूर्ण की।

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