Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना १. परमात्मराज स्तोत्र ५. आगमसार २. पार्श्वनाथाष्टक ६. णमोकार गीत ३. पंचपरमेष्ठी पूजा ७. सोलहकारण पूजा ४. द्वादशानुप्रक्षा ८. मुक्तावली गीत इस प्रकार आपके द्वारा रचे गये ग्रन्थोंको संख्या ४४ ज्ञात हो गयी है। सम्भव है कि पुराने भण्डारोंकी छानबीन करनेपर और भी आपकी रचनाएँ उपलब्ध होवें । प्रारम्भमें दिये गये २० ग्रन्थोंके श्लोकोंका प्रमाण ४४३६२ है। तत्पश्चात उल्लिखित २४ ग्रन्थोंका परिमाण यदि ३० हजार श्लोक प्रमाण भी मान लिया जाये, तो आपके द्वारा रचित सर्व श्लोक संख्या ७५ हजारके लगभग पहुँचती है। उक्त ग्रन्थों को देखते हए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आपकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी और आपने चारों अनुयोगोंपर ग्रन्थ-रचना की है। सकलकीतिने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपना कोई विस्तृत परिचय नहीं दिया है, न गुरु आदिका ही उल्लेख किया है, केवल अपने नामका ही निर्देश किया है। किन्तु आपके शिष्य ब. जिनदासने अपने द्वारा रचित जम्बूस्वामीचरित्रमें आपका कुछ परिचय इस प्रकार दिया है श्रीकुन्दकुन्दान्वयमौलिरत्नं श्रीपद्मनन्दिविदितः पृथिव्याम् । सरस्वतीगच्छविभूषणं च बभूव भव्यालिसरोजहंसः ॥२३॥ तत्राभवत्तस्य जगत्प्रसिद्धे पट्टे मनोज्ञे सकलादिकीर्तिः । महाकविः शुद्धचरित्रधारी निग्रंथराजा जगति प्रसिद्धः ॥२४॥ अर्थात-श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके अन्वयमें सरस्वतीगच्छके आभूषण भव्यालिसरोजहंस, जगत्प्रसिद्ध श्रीपद्मनन्दि हुए। उनके जगत्प्रसिद्ध पट्टपर सकलकीर्ति विराजमान हुए, जो कि महाकवि, शुद्धचारित्रके धारक और जगत्में प्रसिद्ध निर्ग्रन्यराज थे। अपने ग्रन्थको समाप्त करते हुए ब्र. जिनदासने लिखा है "इत्याचे श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भट्टारकधीसकलकीर्तितशिष्यब्रह्मचारिश्रीजिनदासविरचिते विद्युच्चरमहामुनिसर्वार्थसिद्धिगमनो नामैकादशः सर्गः ।। उपसंहार इस प्रकार उक्त प्रशस्ति, 'सकलकीतिरास' और जैनसिद्धान्तभास्करके भाग १३वें के प. ११३ पर प्रकाशित ऐतिहासिक पत्रसे आपके जीवन और समय आदिका परिचय प्राप्त हो जाता है। सकलकोर्तिकी दोतीन रचनाओंके सिवाय शेष सभी रचनाएँ अप्रकाशित हैं। उनके प्रकाशनका प्रयत्न किया जाना चाहिए। ८. प्रस्तुत वर्धमानचरित्रकी तुलना और विशेषता भगवान् महावीरके चरित्र-चित्रण करनेवालोंमें गुणभद्राचार्यका प्रथम स्थान है, यह प्रारम्भमें लिखा जा चुका है। उनके द्वारा वणित चरित्रको ही असग कविने एक महाकाव्यके रूपमें रचा है। यही कारण है कि उसमें चरित्र-चित्रणकी अपेक्षा घटनाचक्रोंके वर्णनका आधिक्य दृष्टिगोचर होता है । असगने भ. महावीरके पूर्व भवके त्रिपृष्ठका वर्णन पूरे पाँच स!में किया है। असगने समग्र चरितके १०० पत्रोंमें से केवल त्रिपृष्ठके वर्णनमें ४० पत्र लिखे हैं। असगने भ. महावीरके पाँचों कल्याणकोंका वर्णन यद्यपि बहुत ही संक्षेपमें दिगम्बर-परम्पराके अनुसार ही किया है, तथापि दो-एक घटनाओंके वर्णनपर श्वेताम्बर-परम्पराका भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । यथा (१) जन्मकल्याणकके लिए आया हुआ सौधर्मेन्द्र माताके प्रसूतिगृहमें जाकर उन्हें मायामयी निद्रासे सुलाकर और मायामयी शिशुको रखकर भगवान्को बाहर लाता है और इन्द्राणीको सौंपता है : मायार्भकं प्रथमकल्पपतिविधाय मातुः पुरोऽथ जननाभिषवक्रियायै । बालं जहार जिनमात्मरुचा स्फुरन्तं कार्यान्तरान्ननु बुधोऽपि करोत्यकार्यम् ॥ For Private And Personal Use Only

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