Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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विज्ञान और अध्यात्म : द्वन्द्व एवं दिशा
का आधार ले मुक्ति से मुक्ति का आभास कर लेते हैं । लेकिन मैं इन दोन जनों को छोड़ अकेला मुक्त होना नहीं चाहता।" संक्षेप में जिस प्रकार " मेरा घर" "मेरा पुत्र" आदि हम कहकर अपने स्थूल स्वार्थवाद है, उसी प्रकार अध्यात्म जगत् में " अपनी मुक्ति" की बात कहना वदतोव्याघात है क्योंकि "मैं" का लोप ही मुक्ति का साधन है । पर एक का ही आधिपत्य रखते हैं तो "मैं" दृढ़ होता है और दूसरे सभी हैं । संक्षेप में व्यक्तिगत मुक्ति की कल्पना का परिष्कार करना होगा । "मैं" की जगह "हम " को लाना होगा । इसी को "सर्वान्मुक्ति”, “बोधिसत्व" या "सामूहिक मुक्ति" की कल्पना कहते हैं । यदि " अहंता", "ममता" का त्याग ही मोक्ष है तो यह स्वाभाविक है । सांख्य में भी इसी की साधना के लिये "नास्मि", "नामे" और "न अहं" आदि उक्तियाँ बतायी गयी हैं । अतः साधना के नाम पर स्वार्थ चलाना आध्यात्मिकता नहीं है । व्यक्तिगत रूप से सिद्धि प्राप्ति भी एक प्रकार का पूंजीवाद ही है । "मेरा धन", "मेरी विद्या" "मेरी साधना" या " मेरी मुक्ति" ये सब एक ही कोटि का समाधान है ।
भारतीय अध्यात्म की विशिष्ट प्रतिभा को वैज्ञानिक दृष्टि से उजागर करना आवश्यक है । रामानुजाचार्य ने अपने गुरु मंत्र को जगजाहिर करने के लिए खुद नरक भोगा था । ज्ञानदेव, चैतन्य एवं अन्य मध्ययुगीन संत लोगों ने ब्रह्मविद्या को स्त्रियों, शुद्रों, बच्चों और साधारण से साधारण जनता के बीच बाँटते रहे । भारतीय अध्यात्म की मुख्य विशेषता है कि " मन' को मुक्त करें । आज विज्ञान ने सृष्टि के बाहरी बाजू से काम आरम्भ किया है, फिर भी अन्दर की ओर भी वह धीरे-धीरे जाने का प्रयत्न करेगा और उसे अनुभूति एवं प्रयोग की कुछ नयी पद्धतियाँ खोजनी होगी । इन्द्रियों पर आधारित प्रचलित पद्धतियों एवं ऐन्द्रियिक अनुभूतियों से तब काम नहीं चलेगा । हम इन्द्रियों के द्वारा जो स्पर्श, घ्राण, आदि अनुभव करते हैं, फिर भी यही तत्व नहीं है । तत्व द्रव्य-निरपेक्ष (immaterial) नहीं हैं, परन्तु द्रव्य से भिन्न जरूर है । इस अर्थ में द्रव्य ( Matter) भी ताविक (Substance) हो जाता है । इस तरह द्रव्य और चित्त (Matter and Mind) दोनों दो नहीं रह जाते हैं। दोनों पर एक दूसरे का प्रभाव पड़ता है । इसीलिये कौन प्रमुख और कौन गौण आदि सारी चर्चाएँ बिल्कुल निम्न स्तरीय हो जाती हैं । बस, कोई तत्व है, जो चित्त और द्रव्य दोनों से परे है ।
यदि इस साधना
अज्ञानी रह जाते
अध्यात्म और विज्ञान दोनों मनुष्य की आधारभूत प्रेरणा एवं आकांक्षाओं को अभिव्यक्तियाँ हैं । "विज्ञान के बिना अध्यात्म पंगु है तो अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है । " ऐसा आइन्स्टीन ने कहा था । यही कारण था कि ज्ञान-विज्ञान पारंगत नारदमुनि को भी सनत्कुमार के यहाँ अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिये जाना पड़ा था। नारद की इस निरीहता पर ही शंकराचार्य ने कहा था - " सर्वविज्ञान साधन शक्ति सम्पन्नस्य अपि नारदस्य देवर्षि श्रेयोन वभूव ।” यानी विज्ञान भौतिक सुख-समृद्धि तो दे सकता है लेकिन आत्मिक आनन्द मानसिक शांति और श्रेय अध्यात्म से ही मिलेगा । यमराज ने भी नचिकेता को प्रेय और श्रेय का विवेक बताया था । कामायनी में प्रसाद जो ने मानव जीवन की इसी विडम्बना को उजागर करते हुए लिखा है
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