Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
दर असल, पार्यों के पुरोहित वर्ग ने, अपने धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए जिस परिष्कृत/परिमार्जित भाषा को अङ्गीकार किया, वही भाषा, संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों का माध्यम बनी । कालान्तर में इसके स्वरूप-व्यवहार में धीरे-धीरे होता आया परिवर्तन, जब स्थूल रूप में दृष्टिगोचर होने लगा, तब उसे पुनः परिष्कृत करके, एक नये व्याकरण शास्त्र के नियमों में ढाल कर, नया स्वरूप प्रदान कर दिया गया । इस नये परिष्कृत स्वरूप को ही लौकिक संस्कृत के नाम से जाना गया।
___ कुछ आधुनिक भाषा-शास्त्रियों की मान्यता है-संस्कृत का साहित्य भण्डार, यद्यपि काफी प्रचुर है, तथापि, उसे जन-साधारण के बोल-चाल/पठन-पाठन की भाषा बनने का गौरव, कभी नहीं मिल पाया। इन विद्वानों की दृष्टि में, संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जिसमें, सिर्फ साहित्यिक सर्जना भर की सामर्थ्य रही, और है । उसकी यह कृत्रिमता ही, उसे शिष्ट व्यक्तियों के दायरे तक सीमित बनाये रही। इसलिए, इसे 'भाषा' कहने की बजाय 'वाणी' 'भारती' आदि जैसे समादरणीय सम्बोधन दिये गये।
किन्तु, उपलब्ध लौकिक साहित्य में ही कुछ ऐसे अन्तःसूत्र उपलब्ध होते हैं, जिनसे, यह स्पष्टतः फलित होता है कि 'संस्कृत' शिष्ट, विप्र, पुरोहित वर्ग के सामान्य व्यवहार की भाषा तो थी ही, साथ ही, यह एक बड़े जन-समुदाय के बीच भी बोल-चाल के लिए व्यवहार में लायी जाती थी।
__ यह बात अलग है कि इसी मुद्दे को लेकर, विद्वानों में दो अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं उभर कर सामने आ चुकी हैं । एक दृष्टि से, 'संस्कृत' मात्र साहित्यिक भाषा थी। बोल-चाल की सामान्य भाषा 'प्राकृत' थी। दूसरे मत में-संस्कृत, भारतीय जन-साधारण के बोल-चाल की भी भाषा रही। किन्तु, प्राकृत भाषा के उदय के फलस्वरूप, इसका व्यवहार-क्षेत्र कम होता चला गया। तथापि, शिष्ट-वर्ग में, इसका दैनंदिन उपयोग व्यवहार में बना रहा ।
आर्यावर्त के विद्वान् ब्राह्मण 'शिष्ट' माने जाते थे। भले ही, संस्कृत का परिपक्व बोध उन्हें हो, या न हो। पर, आनुवंशिक परम्परा से, उनके बोल-चाल में, शुद्ध संस्कृत का प्रयोग अवश्य होता रहा । यही वजह थी, उनके प्रयोगों को आदर्श मानकर, दूसरे लोग भी, उनकी देखा-देखी शब्दों का शुद्ध प्रयोग किया करते थे। इन शब्दों के उच्चारण में अशुद्धि होती रहे, यह एक दूसरी बात थी। क्योंकि वे,
१. एतस्मिन् आर्यावर्ते निवासे ये ब्राह्मणाः कुम्भीधान्याः अलोलुपा: अगृह्यमानकारणाः
किञ्चिदन्तरेण कस्याश्चित् विद्यायाः पारङ्गताः, तत्र भवन्तः शिष्टाः । शिष्टाः शब्देषु प्रमाणम् ।
-६-३-१०६ अष्टाध्यायी सूत्र पर भाष्य
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