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[१६] . वटामण गाँवमें एक ठाकुर दवाईकी पुड़ियाँ बेचता था। कसलीबाई उसके यहाँसे थोड़ी पुड़ियाँ लायीं और पुत्रको खिलायीं। उससे दस्त हो गये और रोग शांत हुआ। सबको प्रसन्नता हुई। पर लल्लभाई और देवकरणजीने जो गुप्त विचार कर रखा था उसे अब पूरा करनेके लिये खंभातवाले गुरु हरखचन्दजीके पास जानेका उन्होंने निश्चय किया। उस समय वे सूरतमें थे। वहाँ जाना तो है पर चुपचाप जाना है यों विचारकर सम्बन्धियोंके यहाँ जानेके बहानेसे सायला (काठियावाड) गये। वहाँ दो-चार दिन रहकर वढवाण केम्पसे गाड़ीमें बैठकर सूरत गये । गुरुजीको वन्दना करके दोनोंने दीक्षा लेनेके भाव प्रदर्शित किये। माता-पिताकी अनुमति बिना दीक्षा देनेसे उन्होंने इन्कार कर दिया। दीक्षा लेनेकी बात माँके कानमें पड़ी कि वह शंकर मुनीमको साथ लेकर रोती-धोती सूरत आयी और गुरुजीकी साक्षीसे यह स्वीकार किया कि दो वर्ष तक संसारमें रहनेके बाद यदि वैराग्य उत्पन्न हो तो वह दीक्षा लेनेसे नहीं रोकेगी। दूसरा कोई उपाय नहीं रहनेसे लल्लभाई माताजी आदिके साथ वापस घर लौटे और अधिकांश समय धर्मध्यानमें बिताने लगे। संसार छोड़ना ही है ऐसा दृढ़ निश्चय होनेके बाद परवशतासे दो वर्ष तक घरमें रहना पड़ा।
___सं.१९४० में नाथीबाईने एक पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम मोहन रखा गया। सर्वत्र आनन्द हुआ। किन्तु उस समय लल्लभाई और देवकरणजीको पुनः दीक्षा संबंधी विचार-तरंगें उठीं। पुत्र सवा माहका हुआ तब दोनों गुरुको वंदन करने गोधरा गये और दीक्षा देनेकी विनति की। गुरुने वैराग्य बढ़े वैसा उपदेश दिया किन्तु माताकी आज्ञा बिना दीक्षा देनेसे इन्कार किया। तब लल्लुजीने गुरुजीसे वटामण पधारनेकी प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार किया और विहार कर थोड़े दिन बाद वटामण आकर एक माह वहाँ रहे । माताजीको भी वैराग्यका बोध सुनने और गुरुसेवाका लाभ मिला और उनकी सम्मतिसे सं.१९४० के ज्येष्ठ कृष्ण ३ मंगलवारके दिन खंभातमें दोनोंको दीक्षा देनेका निश्चित हुआ। फिर गुरु हरखचंदजी खंभात पधारे और शुभ मुहूर्तमें माताजी आदि संघके समक्ष दोनोंको दीक्षा दी तथा देवकरणजी स्वामीको श्री लल्लुजी स्वामीका शिष्य बनाया।
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श्री लल्लजीके दीक्षा लेनेके पहले खंभात स्थानकवासी सम्प्रदायमें बहुत थोड़े साधु रह गये थे। किन्तु उनके साथ तथा बादमें दीक्षा लेनेवालोंकी संख्या बढ़नेसे थोड़े समयमें १४ साधु हो गये, जिससे सबको और विशेषकर हरखचंदजी गुरुको श्री लल्लुजीके मंगल पदार्पणका प्रभाव समझमें आने लगा। श्री देवकरणजी और श्री लल्लजी साधु समाचारी, शास्त्र, स्तवन, सज्झाय आदि पढ़कर कुशल हो गये। इनमें भी श्री देवकरणजी व्याख्यानमें बहुत कुशल होनेसे विशेष लोकप्रिय हो गये। परंतु सरलता, गुरुभक्ति और पुण्यप्रभावके कारण श्री लल्लजीने गुरुजीसे लेकर सभी साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओंके हृदयमें अभीष्ट पद प्राप्त कर लिया था। सभीके हृदयमें ऐसा लग रहा था कि भविष्यमें गुरुजीकी गद्दीको सुशोभित करनेवाले श्री लल्लजी स्वामी हैं। दीक्षा लेनेके बाद उन्होंने पाँच वर्ष तक. एकान्तर उपवास किये थे, अर्थात् एक दिन आहार लेते और दूसरे दिन उपवास करते । कठोरमें चातुर्मास था तब एक साथ १७ उपवास किये थे। यों बाह्य तपके साथ-साथ कायोत्सर्ग
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