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सामान्यगुण ं तेरह है।
विशेष गुण
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दर्शन-ज्ञान-सौख्य-वीर्य-चेतना-अचेतना-मूर्त-अमूर्त-सक्रिय-अक्रिय-वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-गतिहेतु-स्थितिहेतुअवगाहनाहेतु -वर्तनाहेतु यह अठारह विशेष गुण है। ज्ञान, विशेष अवबोध रूप है। दर्शन, सामान्य अवबोध रूप है। सुख, परम आनंद स्वरूप है। वीर्य, अनंत शक्ति की प्रवृत्ति स्वरूप है। पहले सामान्य गुणों में चेतन वगैरह छः गुण कहे है उनका यहां अनुसंधान है। चेतन होना, अचेतन होना, मूर्त होना, अमूर्त होना, सक्रिय होना, अक्रिय होना यह छहः विशेष गुण है। अन्य विशेष गुणों की व्याख्या स्पष्ट है।
तीसरा पर्याय द्वार
द्रव्यगुण के विकार है वे पर्याय कहे जाते हैं। द्रव्य में स्वभाव और विभाव रूप पर्याय होते है। स्वभाव के अनेक प्रकार होते हैं। विभाव के भी अनेक प्रकार होते हैं। द्रव्य के शुद्ध स्वरूप में परिणत होना स्वभावपर्याय कहलाता है। स्वभाव पर्याय छहः द्रव्य में होते हैं। उदाहरण के तौर पर जीव द्रव्य का चेतना यह शुद्ध स्वरूप है। उसका चेतना परिणाम स्वभाव पर्याय है। आकाश का अवगाह दान करना यह स्वभाव है। वही उसका शुद्ध स्वरूप है उसमें परिणत होना अर्थात् निरंतर अवगाह दान में प्रवृत्त होना आकाश का स्वभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल के सिवा कोई द्रव्य अपने स्वभाव से अर्थात् शुद्ध स्वरूप से च्युत नहीं होते हैं अतः वे सहज ही स्वभाव पर्याय में होते हैं। जीव और पुद्गल का संबंध होने पर दोनों के स्वभाव में परिवर्तन होता है। सभी द्रव्य के स्वभाव पर्याय होते हैं।
विभाव पर्याय केवल जीव और पुद्गल द्रव्य का होता है। द्रव्य का अशुद्ध स्वरूप में परिणमन होना पर्याय है। विभावि पर्याय जीव और पुद्गल के ही होते हैं।
द्रव्यों के अगुरुलघु विकार को स्वभावपर्याय कहते है। स्वभावपर्याय के बारह भेद हैं। अनंतभागवृद्धि, असंख्यतभागवृद्धि, यह छहः वृद्धि रूप स्वभाव पर्याय है। उसी तरह अनंतभाग हानि, असंख्यात भाग हानि, संख्यात भाग हानि, संख्यात गुण हानि, असंख्यातगुण हानि, अनंतगुणहानि यह छहः हानिरूप स्वभावपर्याय है।
स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय द्रव्य व्यंजनपर्याय और गुणव्यंजन पर्याय के भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं।
अथवा ग्रंथांतर से पर्याय छहः प्रकारके होते है । द्रव्यपर्याय, द्रव्यव्यंजनपर्याय, गुणपर्याय, गुणव्यंजन-पर्याय, स्वभावपर्याय, विभावपर्याय। द्रव्य के असंख्यप्रदेश होना, सिद्ध होना इत्यादि द्रव्यपर्याय है। द्रव्य में गतिविशेष गुण होते है जो अपने अपने अलग कार्य को प्रत्यक्ष रूप से कृति में लाते है उन्हें द्रव्यव्यंजन पर्याय कहते हैं। पर्यायों को पिंडरूप में बांधना, अनंत गुणों का अविभाग रूप में होना गुणपर्याय है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के अवांतर भेद का ज्ञान गुणव्यंजन पर्याय है प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु गुण है। जिसकी वजह से द्रव्य में गुणों की हानिवृद्धि होती है। अगुरुलघु गुण द्रव्य का स्वभाव है। छहः वृद्धि और छहः हानि के भेद से बारह प्रकारका स्वभाव पर्याय है।
कर्मोदय
मनुष्य-तिर्यंच-नरक-देव-गति का अनुभव करना जीव द्रव्यके विभाव पर्याय है। यह जीव के स्वधर्म नहीं है। कृत है अतः विभाव है।
चौथा स्वभावद्वार
जो स्वभाव छहः भी द्रव्य में रहते है वे सामान्य स्वभाव है। जो स्वभाव कुछ एक द्रव्य में है कुछ एक द्रव्य में नहीं है वे विशेष स्वभाव कहे जाते हैं। सामान्य स्वभाव का अभाव कहीं उपलब्ध नहीं होता अतः उन्हे केवलान्वयि