________________
पांचवा अस्तिद्वार
अस्ति का अर्थ है प्रदेश, काय का अर्थ है समूह। जो द्रव्य प्रदेश के समूह रूप है उन्हें अस्तिकाय कहा जाता है। काल को छोडकर पांचो द्रव्य अस्तिकाय है। पांचो द्रव्य में प्रदेश समूहत्व यह धर्म समान है इसलिये उस धर्म = (अस्तित्वेन अस्तिकायत्व) को लेकर उनमें भेद नही हो सकता। अतः उनके जीव और अजीव ऐसे अवांतर भेद कह कर भेद किया गया है। जीवास्तिकाय के सिवा चार अस्तिकाय अजीव है। अस्तिकादिक द्रव्य जीव और अजीव के भेद से दो प्रकारके हैं। उसमें जीवास्तिकाय एक प्रकारका ही है। दूसरा अजीवास्तिकाय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय यह चार प्रकार का है। अस्तिरूप में अस्तिकायो में कोई भेद नहीं है।
छठवा नयद्वार
स्तु के अनेक अंश होते हैं - अर्थात् द्रव्य के अनंत पर्याय हैं। उन में से जो पर्याय वर्तमान उपयोग का विषय है उसको ग्रहण करके उससे व्यतिरिक्त अंश को गौण करनेवाला अध्यवसाय नय कहलाता है। मूल भेद से नय दो प्रकार का है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक नय के दस भेद हैं।
१) कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक : जीव कर्म उपाधि से युक्त है फिर भी उसमें निरपेक्ष रहकर आत्मा के शुद्ध रूप का ग्रहण करनेवाली दृष्टि कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय कहलाता है। 'संसारी आत्मा सिद्ध के समान शुद्ध है' यह विधान प्रस्तुत भेद का उदाहरण है। संसारी जीव कर्म युक्त है फिर भी इस विधान में इस अंश के प्रति निरपेक्षता देखने मिलती है। अथवा हरेक आत्मा के मध्यवर्ती आठ रुचक प्रदेश हमेशा कर्ममुक्त होते है। इस अपेक्षा से आत्मा शुद्ध है। यहां असंख्य कर्मोपाधियुक्त प्रदेश से निरपेक्ष होकर अष्ट रुचक प्रदेश के शुद्धता को ग्रहण होता है।
२) द्रव्यार्थिक : वस्तु में उत्पाद और व्यय पर्याय है। ध्रुवता द्रव्य है। जिस दृष्टि में वस्तु के उत्पाद और व्यय को गौण करके सिर्फ सत्ता को ही प्रधानता दी जाती है, वह दृष्टि सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक है। जैसे 'आत्मा नित्य है। 'द्रव्य नित्य है। इत्यादि प्रतीति। आत्मा और हर एक द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययशाली है फिर भी इस नय में उसे गौण कर नित्य भाग को प्रधानता दी गई है। नयचक्र आलाप पद्धति में इसको सत्ताग्राहक शद्धद्रव्यार्थिक कहा गया
३) एक द्रव्यार्थिक भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक : जिस दृष्टि में भेद की कल्पना को गौण किया जाता है वह एक द्रव्यार्थिक नय है। द्रव्य से गुण और पर्याय कथंचिद् भिन्न है। फिर भी उस भेद को भूलकर द्रव्य
और गुणपर्याय को एक मानना यह इस नय की दृष्टि है। आत्मा द्रव्य है और मनुष्य पर्याय। वे दोनों भिन्न है फिर भी 'मनुष्य आत्मा है। इस तरह अभेद प्रतीति एकद्रव्यार्थिक नय का विषय है। इस तरह अभेद प्रतीति एकद्रव्यार्थिक नय का विषय है। नयचक्रालाप पद्धति में इसे भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा है। द्रव्य अपने गुण और पर्याय स्वभाव से अभिन्न रूप है। यह इस नय का उदाहरण है।
४) अशुद्ध द्रव्यार्थिक : (कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक) आत्मा के शुद्ध स्वभाव को गौण करके अशद्ध स्वभाव को प्रधानता देनेवाली दष्टि अशद्ध द्रव्यार्थिक नय है। जैसे क्रोध वगैरह भाव कर्म से पैदा होते है। वे आत्मा के नहीं है। फिर भी उन्हें आत्मा के रूप में देखनेवाली दृष्टि इस नय की है। 'आत्मा क्रोध है' इत्यादि इसके उदाहरण है।
५) उत्पादव्यय सापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक : (उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक) यह नय सत्ता