Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 192
________________ १५८ स्याद्वादपुष्पकलिका नित्यपणे पण छे तथा अनित्यपणे पण छे, एकपणे छे, अनेकपणे छे, भेदपणे छे, अभेदपणे छे, इत्यादिक ते अस्तिधर्ममां अनेकांतता छे तेने ग्रहे छ। केमके वस्तुनो एकगुण तेमां अस्तिपणो छे, नास्तिपणो छे, नित्यपणो छे, अनित्यपणो छे, भेदपणो छे, अभेदपणो छ, वक्तव्यपणो छे, अवक्तव्यपणो छे, भव्यपणो छे, अभव्यपणो छे, ए अनेकांतपणो एह ज स्याद्वाद छ। तेनं सांकेतिक वाक्य ते स्यात्पद छे ए रीते जाणवो। आत्मद्रव्यने विषे स्वधर्मनी अस्तिता छे, परधर्मनी नास्तिता छे, स्वगुणनो परिणमवो अनित्य छे अने तेज गुणपणे नित्य छे, तथा द्रव्य पिंडपणे एक छे अने गुण पर्यायपणे अनेक छ। तथा आत्मा कारणपणे कार्यपणे समय समयमां नवानवापणो जे पामे छे ते भवनधर्म छे। तो पण आत्मानो मूलधर्म जे पलटतो नथी ते अभवनधर्म छ। इत्यादिक अनेक धर्म परिणति युक्त छे ए रीते छ द्रव्यने जाणी निर्धारी जे हेयोपादेयपणे श्रद्धान भासन थाय ते सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन छ। ए जीवनी अशुद्धता ते परकर्ता, परभोक्ता, परग्राहकता टालवाना उपाय- साधन ते साधन करवे आत्मा आत्मापणे मूलधर्मे रहे ते सिद्धपणो। तेनी रुचि उद्यमपणो करवो एहिज श्रेय छ। [३०] स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यरूपास्त्रयः सकलादेशाः सम्पूर्णवस्तुधर्मग्राहकत्वाद्, मूलतः अस्तिभावा अस्तित्वेन सन्ति, नास्तित्वेन सन्ति एवं सप्त भङ्गा एवं नित्यत्वसप्तभङ्गी अनित्यत्वसप्तभङ्गी एवं सामान्यधर्माणां, विशेषधर्माणां, गुणानां, पर्यायाणां, प्रत्येक सप्तभङ्गी तद्यथा [३०] अर्थ- स्यादअस्ति, स्यान्नास्ति, स्याद्अवक्तव्य एत्रण भांगा वस्तुना संपूर्णरूपने ग्रहे माटे सकलादेशी छे, अने शेष रह्या जे चारभांगा ते विकलादेशी छे। ते वस्तुना एकदेशने ग्रहे माटे। तथा वली अस्तिपणाने विषे जे अस्तिपणो ते नास्तिपणे नथी, अने नास्तिपणो नास्तिपणे छे तेमां अस्तिपणो नथी। इहां कोइ पुछे के वस्तुमा जे नास्तिपणो ते अस्तिपणे कहो छो तो नास्तिपणामां आस्तिपणानी ना किम कहो छो? तेने उत्तर जे नास्तिपणो ते अस्ति छे-छतापणे छे अने अस्तिधर्म कांइ नास्तिपणामां नथी माटे ना कही छ। छतिनी ना कही नथी। तथा एमज नित्यपणानी सप्तभंगी, तथा अनित्यपणानी सप्तभंगी, तेमज सामान्य धर्म सर्वनी भिन्न भिन्न सप्तभंगी, तथा सर्व विशेष धर्मनी सप्तभंगी, तेमज गुण पर्याय सर्वनी जूदी जूदी सप्तभंगी कहेवी, तद्यथा कहेता ते कही देखाडे छ। [३१] ज्ञानं ज्ञानत्वेन अस्ति दर्शनादिभिः स्वजातिधर्मैरचेतनादिभिर्विजातिधर्मैर्नास्ति, एवं पञ्चास्तिकाये प्रत्यस्तिकायमनन्ता सप्तभङ्ग्यो भवन्ति। अस्तित्वाभावे गुणाभावात्पदार्थे शून्यतापत्तिर्नास्तित्वाभावे कदाचित् परभावत्वेन परिणमनात् सर्वसङ्करतापत्तिय॑ञ्जकयोगे सत्ता स्फुरति तथा असत्ताया अपि स्फुरणात्पदार्थानामनियता प्रतिपत्तिः। तत्त्वार्थे-तद्भावाव्ययं नित्यम्।(त.सू.५.३०) [३२] अर्थ- हवे गुणनी सप्तभंगी कही देखाडे छे, जेम ज्ञान गुण ज्ञायकादिक गुणे अस्ति छे अने दर्शनादिक स्वजाति एकद्रव्यव्यापि गुण तथा स्वजाति भिन्न जीवव्यापि ज्ञानादिक सर्वगुण अने अचेतनादिक परद्रव्यव्यापि सर्व धर्मनी नास्ति छे, एम पंचास्तिकायने विषे अस्तिकायें अनंती सप्तभंगीओ पामे। ए सप्तभंगी स्याद्वादपरिणामें छे ते सर्व द्रव्यादिकमां छ। हवे वस्तुमध्ये अस्तिपणो न मानियें तो शो दोष उपजे ते कहे छ। जो वस्तुमां अस्तिपणो न मानियें तो गुण पर्यायनो अभाव थाय अने गुणना अभावे पदार्थ शून्यतापणो पामे। तथा जो वस्तुमध्ये नास्तिपणो न मानियें तो ते वस्तु कदाकालें पर वस्तुपणे अथवा परगुणपणे परिणमी जाय, तेथी कोइवारे जीव ते अजीवपणो पामे, अने अजीव ते जीवपणो पामे तो सर्व संकरतादोष उपजे। तथा व्यंजन कहेता प्रकटतानो हेतु तेने योगें छतो धर्म ते फुरे, पण जे धर्मनी सत्ता छति न होय ते फुरे नही। जो नास्तिपणो न मानियें तो असत्तापणे फुरे, अने जे वारें असत्ता स्फुरे ते वारें द्रव्यनो अनियामक कहेता अनिश्चयपणो थइ जाय, ते माटे सर्व भाव अस्तिनास्तिमयी छे। व्यंजकतानो दृष्टांत कहे छ। जेम कोरा कुंभमां सुगंधतानी सत्ता छे तोज पाणीने योगें वासना प्रगटे छ। जो वस्त्रादिकमां ते धर्म नथी तो तेमां प्रगटतो पण नथी एम सर्वत्र जाणवो। __ हवे त्रीजो नित्य स्वभाव कहे छे ते जे वस्तुना भाव तेनो अव्यय कहेता नही टलवो एटले तेमनो तेमज रहेवो ते नित्यपणो कहिये। तेना बे भेद छे ते कहे छ। [३३] (३) एका अप्रच्युतिनित्यता द्वितीया पारम्पर्यनित्यता। तथा द्रव्याणां ऊर्ध्वप्रवचयतिर्यग्प्रचयत्वेन तदेव द्रव्यमिति ध्रवत्वेन नित्यस्वभावो नवनवपर्यायपरिणमनादिभिरुत्पत्तिव्ययरूपो नित्यस्वभाव उत्पत्तिव्ययस्वरूपम् अनित्यम्।

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