Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 214
________________ १८० स्याद्वादपुष्पकलिका छद्मस्थानां च प्रथमं दर्शनोपयोग: केवलिनां प्रथमं ज्ञानोपयोगः पश्चाद्दर्शनोपयोगः। सहकारिकर्तृत्वप्रयोगाद् उपयोगसहकारेणैव शेषगुणानां प्रवृत्त्यभ्युपगमाद्। इत्येवं स्वतत्त्वज्ञानकरणे स्वरूपोपादानं तथा स्वरूपरमणध्यानैकत्वेनैव सिद्धिः। [७१] अर्थ- हवे श्रीवीतरागना आगमथी जाण्यो जे वस्तु स्वरूप तेने हेयोपादेयपणे निर्धार करवो ते सम्यग्दर्शन कहिये। तिहां तत्त्वार्थने विषे कह्यो छे के जे-तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। (त.स.१.२) उक्तं च उत्तराध्ययने जीवाजीवा य बंधो पुन्नं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मुक्खो संति एतिहिया नव।। तिहियाणं तु भावाणं सब्भावे ऊवएसणं। भावेण सद्दहंतस्स सम्मत्तं ति वियाहिय।। इत्यादिक देशरुचिथी सर्व जाणवं जे तत्वार्थ जीवादि पदार्थनो श्रद्धान निर्धार ते सम्यग्दर्शन कहियें, अने जे सम्यग्दर्शन ते धर्मनं मूल छ। तथा जे हेय ते तजवा योग्य, अने उपादेय ते ग्रहण करवा योग्य, एहवी परीक्षा सहित जे जाणपणो ते सम्यग्ज्ञान छ। जेमां हेयोपयोग संकोच अकरण बुद्धि नथी; पण उपादेयने उपयोगें एहवी चितवणा थाय जे हवे किवारे करूं? ए विना केम चाले? एहवी जो बुद्धी नथी तो ते संवेदन ज्ञान छे तेथी संवर कार्य थाय एवो निर्धार नथी। तथा स्वरूपरमण परभावरागद्वेषविभावादिकनो त्याग ते चारित्र कहिये। ए रत्नत्रयीरूप परिणाम ते मोक्षमार्ग छ। ए मार्गने साधवाथी साध्य जे परम अव्याबाधपद तेनी सिद्धि निष्पत्ति थाय। जे आत्मानो पोतानुं रूप ते यथार्थ ज्ञान छ। तथा चेतना लक्षण तेज जीवपणो छे, अने ज्ञाननो प्रकर्ष बहुलपणो ते आत्माने लाभ छ। ज्ञान तथा दर्शननो उपयोग लक्षण आत्मा छ। तिहां छद्मस्थने प्रथम दर्शनोपयोग पछे ज्ञानोपयोग छे, अने केवलीने प्रथम ज्ञानोपयोग पछे दर्शनोपयोग छ। जे सर्व जीव नवो गण पामे तेनो केवलीने ज्ञानोपयोग ते कालें थाय ते माटे प्रथम ज्ञानोपयोग वर्ते। अने सहकारी जे कर्तृताशक्ति ते जेम हतो तेमज छ। एक गुणने साह्य करे अने बीजा गुणनो उपयोग सहकारें वर्ते छ। सहकार ते ज्ञानोपयोग विशेष धर्मने जाणे ते जाणतां विशेष ते सामान्यने आधारे वर्ते छे ते सहित जाणे एटले विशेष ते भेला सामान्य ग्रहवाणा अने सामान्य ग्रहतां सामान्य ते विशेषताजन (विशेष ते ज्ञान) कहेतां सहित जाणे ते माटे सर्वज्ञ सर्वदर्शीपणो जाणवो। ___ एरीते स्वतत्त्व, ज्ञान करवू। तेथी स्वधर्मनो उपादान कहेता लेवापणुं थाय, पछे स्वरूपने पामवे स्वरूपमा रमण थाय, ते रमण थकी ध्याननी एकत्वता थाय, एटले निश्चें ज्ञान, निश्चं चारित्र, तथा निश्चं तपपणो थाय। जे थकी सिद्धि कहेता मोक्ष निपजे ए सिद्धांत जाणवो। [७२] तत्र प्रथमतो ग्रन्थिभेदं कृत्वा शुद्धश्रद्धानज्ञानी द्वादशकषायोपशमः, स्वरूपैकत्वध्यानपरिणतेन क्षपकश्रेणीपरिपाटीकृतघातिकर्मक्षयः, अवाप्तकेवलज्ञानदर्शनः, योगनिरोधाद् अयोगीभावमापन्नः, अघातिकर्मक्षयानन्तरं समय एवास्पर्शवद्गत्या एकान्तिकात्यन्तिकानाबाधनिरूपाधिनिरुपचरितानायास- विनाशिसम्पूर्णात्मशक्तिप्राग्भावलक्षणं सुखमनुभवन् सिद्ध्यति साद्यनन्तकालं तिष्ठति परमात्मा इति। एतत् कार्यं सर्वं भव्यानाम्। [७२] अर्थ- ते प्रथम ग्रंथिभेद करीने शुद्धश्रद्धावान् तथा शुद्ध ज्ञानी जे जीव ते प्रथम त्रण चोकडीनो क्षयोपशम करीने पाम्यो जे चारित्र ते ध्याने एकत्व थइने क्षपकश्रेणि मांडी अनुक्रमे घातिकर्म क्षय करीने केवलज्ञान केवलदर्शन पामे। पछे ए सयोगी गुणठाणे जघन्यथी अंतर्मुहर्त अने उत्कृष्टो आठ वरस उणा पूर्वकोडी रहीने कोइक केवली समुद्धात करे, कोइक केवली समुद्धात न करे; पण आवर्जिकरण सर्व केवली करे। ते आवर्जिकरण- स्वरूप कहे छ। इहां आत्मप्रदेशे रह्या जे कर्मदल ते पहेला चले छे, पछे उदीरणा थाय छे, पछे भोगवी निजर छ। तिहां केवलीने जिवारे तेरमे गुणठाणे अल्पायु रहे तिवारें आवर्जिकरण करे छ। ते आत्मप्रदेशगत कर्मदलने प्रतिसमये असंख्यातगुण निर्जरा करवी छे तेटला दलने आत्मवीर्ये करीने सर्व चलायमान करी मूके एवं जे वीर्य- प्रवर्तन ते आवर्जिकरण कहिये। एम करतां त्रण कर्मदल वधतां रह्या तो समुद्धात करे नहीतो न करे, ते माटे आवर्जिकरण सर्व केवली करे। __ पछे तेरमा गुणठाणाने अंते योगनो रोध करीने अयोगी अशरीरी, अनाहारी अप्रकंप घनीकृत आत्मप्रदेशी थको, पांच लघु अक्षर जेटलो काल अयोगीगुणठाणे रहीने शेषसत्तागत प्रकृति वेद्यमान तथा अवेद्यमानस्तिबुक संक्रमें सत्ताथी खपावी, सकल पुद्गल संगपणाथी रहित थयी, तेहिज समय आकाश प्रदेशनी बीजी श्रेणिने अणफरसतो थको लोकांते सिद्ध, कृतकृत्य, संपूर्णगुणप्राग्भावी, पूर्ण. परमात्मा, परमानंदी, अनंत केवलज्ञानमयी, अनंत दर्शनमयी, अरूपी सिद्ध थाय। उक्तं च उत्तराध्ययने कहि पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया। कहि बोंदि चइत्ताणं कत्थ गंतूण सिज्झई।(१४१०) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इह बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई। (१४११)इत्यादि। ते सिद्ध एकांतिक, आत्यंतिक, अनाबाध, निरूपाधि, निरूपचरित, अनायास, अविनाशी, संपूर्ण आत्मशक्ति प्रकटरूप सुखप्रते

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