Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 212
________________ १७८ स्याद्वादपुष्पकलिका नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुव्रजति। (प्र.न.त.७.५३) अंशग्राही नैगमः। सत्ताग्राही सङ्ग्रहः। गुणप्रवृत्तिलोकप्रवृत्तिग्राही व्यवहारः। कारणपरिणामग्राही ऋजुसूत्रः। व्यक्तकार्यग्राही शब्दः। पर्यायान्तरभिन्नकार्यग्राही समभिरूढः। तत्परिणमनमुख्यकार्यग्राही एवम्भूत इत्याद्यनेकरूपो नयप्रचारः। जावंतिया वयणपहा तावतिया चेव हंति नयवाया। (वि.आ.भा.४५१) इति वचनाद। उक्तो नयाधिकारः॥ [६९] अर्थ- ए प्रकारे पूर्व कहेता पूर्वलो जे नैगम नय तेनो विस्तार घणो जाणवो अने तेथी ऊपलो नय तेनो परिमित विषय छे एटले थोडो विषय छे केमके सत्तामात्रनो ग्राहक संग्रहनय छ। छति सत्ताने संग्रहनय ग्रहे अने नैगम ते छता भाव अथवा संकल्पपणे अछता भाव सर्वने ग्रहे। अथवा सामान्य विशेष बे धर्मने ग्रहे ते माटे नैगमनो विषय घणो छ। तथा संग्रहनय ते सत्तागत सामान्य विशेष बेहुने ग्रहे छे, अने व्यवहार ते सत् एक विशेषनेज ग्रहे छे माटे संग्रहनयथी व्यवहारनयनो विषय थोडो छे अने व्यवहारनयथी संग्रहनय ते बहुविषयी छ। ___ तथा ऋजुसूत्रनय ते वर्तमान विशेष धर्मनो ग्राहक छे, अने व्यवहारथी ऋजुसूत्रनय ते कालविषयनो ग्राहक छे; ते माटे व्यवहार बहुविषयी छे अने व्यवहारथी ऋजुसूत्र अल्पविषयी छ। __ ऋजुसूत्र ते वर्तमानकाल ग्रहे, अने शब्दनय कालादि वचन लिंगथी वेहेंचता अर्थने ग्रहे, अने ऋजुसूत्रनय ते वचन लिंगने भिन्न पाडतो नथी, ते माटे ऋजुसूत्रथी शब्दनय अल्पविषयी छे, ऋजुसूत्र बहुविषयी छ। अने शब्दनय सर्व पर्यायनो एक पर्यायने ग्रहता ग्रहे, अने समभिरूढ ते जे धर्म व्यक्त ते वाचक पर्यायने ग्रहे; ते माटे शब्दनयथी समभिरूढनय ते अल्पविषयी छ। केमके समभिरूढ ते पर्यायनो सर्वकाल गवेष्यो छे। अने एवंभूतनय ते प्रतिसमयें क्रियाभेदें भिन्नार्थपणो मानतो अल्पविषयी छे; ते माटे एवंभूतथी समभिरूढ बहुविषयी जाणवो अने एवंभूत अल्पविषयी जाणवो। जे नय वचन छे ते पोताना नयने स्वरूपें अस्ति छे, अने परनयना स्वरूपनी तेमां नास्ति छे; एम सर्व नयनी विधिप्रतिषेधे करीने सप्तभंगी ऊपजे, पण नयनी जे सप्तभंगी ते विकलादेशी ज होय अने जे सकलादेशी सप्तभंगी ते प्रमाण छे पण नयनी सप्तभंगी न ऊपजे। उक्तं च रत्नाकरावतारिकायाम्-विकलादेशस्वभावा हि नयसप्तभङ्गी वस्त्वंशमात्रपरूपकत्वात्। सकलादेशस्वभावास्तु प्रमाणसप्तभङ्गी सम्पूर्णवस्तुस्वरूपप्ररूपकत्वात्। ए वचन छ। एटले यथायोग्यपणे नयनो अधिकार कह्यो। [७०] सकलनयग्राहकं प्रमाणम्। प्रमाता आत्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धश्चैतन्यस्वरूपपरिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रभिन्नत्वेनैव पञ्चकारणसामग्रीतः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसाधनात् साधयते सिद्धिम्। स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्। तद् द्विविधम्- प्रत्यक्षपरोक्षभेदात् स्पष्टं प्रत्यक्षम्, परोक्षमन्यद्। अथवा आत्मोपयोगत इन्द्रियद्वारा प्रवर्तते न यज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्। अवधिमनःपर्यायौ देशप्रत्यक्षौ, केवलज्ञानं तु सकलप्रत्यक्षम्। मतिश्रुते परोक्ष। तच्चतुर्विधम् अनुमानोपमानागमार्थापत्तिभेदात्। लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम्। लिङ्गं चाविनाभूतवस्तुकं नियतं ज्ञेयम्, यथा गिरिगुहिरादौ व्योमावलम्बिधूम्रलेखां दृष्ट्वा अनुमानं करोति-पर्वतो वह्निमान् धूमवत्त्वाद, यत्र धूमस्तत्राग्निर्यथा महानसम्। एवं पञ्चावयवशुद्धमनुमानं यथार्थज्ञानकारणम्। सादृश्यावलम्बनेनाज्ञातवस्तुनां यज्ज्ञानमुपमानज्ञानं, यथा गौस्तथा गवयः। गोसादृश्येन अदृष्टगवयाकारज्ञानमम् उपमानज्ञानम्। यथार्थोपदेष्टा पुरुष आप्तः। स उत्कृष्टतो वीतरागः सर्वज्ञ एव। आप्तोक्तं वाक्यमागमः। रागद्वेषाज्ञानभयादि दोषरहितत्वाद् अर्हतो वाक्यमागमः। तदनुयायिपूर्वापराविरुद्धं मिथ्यात्वासंयमकषायभ्रान्तिरहितं स्याद्वादोपेतं वाक्यमन्येषां शिष्टानामपि वाक्यमागमः। लिङ्गग्रहणाद् ज्ञेयज्ञानोपकारकमर्थापत्तिप्रमाणं, यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते तदा अर्थाद्रात्रौ भुङ्क्ते एव। इत्यादिप्रमाणपरिपाटीगृहीतजीवाजीवस्वरूपः सम्यग्ज्ञानी उच्यते। [७०] अर्थ- हवे प्रमाण- स्वरूप कहे छ। सर्व नयना स्वरूपने ग्रहण करनारो तथा सर्व धर्मनो जाणंगपणो छे जेमां एहवं जे ज्ञान तेने प्रमाण कहिये। जे प्रमाण ते मापवानुं नाम छे त्रण जगतना सर्व प्रमेयने मापवान प्रमाण ते ज्ञान छे, अने ते प्रमाणनो कर्ता आत्मा ते प्रमाता छ। ते प्रत्यक्षादि प्रमाणे सिद्ध कहेता ठहेर्यो छे, चैतन्य स्वरूप परिणामी छे, वली भवन धर्मथी उत्पादव्ययपणे परिणमे छे, ते माटे

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