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अष्टमं परिशिष्टम्
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परिणामिक छे। तथा कर्ता छे तथा भोक्ता छे, जे कर्ता होय तेज भोक्ता होया भोक्तापणा विना सुखमयी कहेवाय नहि ते चैतन्य संसारीपणे स्वदेहपरिमाण छे । प्रतिक्षेत्र कहता प्रत्येकें शरीर भिन्नपणा माटे भिन्न जीव छे। ते जीव पांच कारणनी सामग्री पामीने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रने साधवाथी संपूर्ण, अविनाशी, निर्मल, निःकलंक, असहाय, अप्रयास, स्वगुणनिरावरण, स्वकार्यप्रवृत्ति, अक्षर, अव्याबाध, सुखमयी, एवी सिद्धता निष्पन्नता नीपजे एज साधन मार्ग छे ।
स्व शब्दें करी आत्मा, परशब्दे परद्रव्या स्व आत्माथी भिन्न अनंता पर जीव धर्मादिक तेना व्यवसायी व्यवच्छेदक जे ज्ञान तेने प्रमाण कहिये। तेना मूल वे भेद छे। एक प्रत्यक्ष बीजो परोक्ष तिहां स्पष्ट ज्ञान ने प्रत्यक्ष कहिये तेथी इतर कहेता बीजो जे अस्पष्ट ज्ञान ते परोक्ष कहिये। अथवा आत्माना उपयोगथी इंद्रियनी प्रवृत्ति विना जे ज्ञान ते प्रत्यक्ष कहिये । तेना बे भेद छे । एक देशप्रत्यक्ष, बीजो सर्वप्रत्यक्ष। तेमां अवधिज्ञान तथा मनः पर्यवज्ञान ते देशप्रत्यक्ष छे। केमके अवधिज्ञान एक पुद्गल परमाणुने द्रव्यें तथा क्षेत्र अनेक भावें केटलाक पर्यायने देखे । तथा मनः पर्यवज्ञानी मनना पर्यायने प्रत्यक्ष जाणे पण बीजा द्रव्यने न जाणे माटे बेहु ज्ञानने देशप्रत्यक्ष कहियें। कारण के देशथी वस्तुने जाणे पण सर्वथी न जाणे माटे। अने केवलज्ञान ते जीव तथा अजीव, रूपी तथा अरूपी सर्व लोकालोकना ऋण कालना भावने प्रत्यक्षपणे जाणे माटे सर्वं प्रत्यक्ष कहियें।
तथा मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान ए बे अस्पष्ट ज्ञान छे माटे परोक्ष छे, ते परोक्ष प्रमाणना चार भेद छे । १ अनुमान प्रमाण, २ उपमा प्रमाण, ३ आगम प्रमाण, ४ अर्थापत्ति प्रमाण ।
तिहां चिह्ने करीने जे पदार्थने ओलखबुं तेने लिंग कहियें। ते परामर्श कहेता संभारवाधी जे ज्ञान थाय तेने अनुमानज्ञान कहियें। लिंग ते जे विना ते वस्तु होयज नही ते वस्तुनुं लिंग जाणवु ते लिंगने देखवाथी वस्तुनो निर्धार करवो ते अनुमान प्रमाण जाणवो । जेम गिरिगुहिरने विषे आकाशावलंबी धूमनी रेखा देखीने अनुमान करे जे ए पर्वत अग्नि सहित छे ए पक्ष तथा साध्य कह्यो। जे पक्ष ते पर्वत, अने साध्य ते अग्निमन्तपणो, साधवो ते हेतु जे धूम्रवंतपणा माटे एटले जिहां धूम्र होय तिहां अग्नि अवश्य होयज । आकाश
धूम्र रेखा ते अग्नि विना होय नही तिहां दृष्टांत कहे छे जेम महानसे कहेता रसोडाने विषे रसोइयाए धूम्र तथा अग्निने भेला दीठा ते इहां आ अमुक पर्वतने विषे धूम्र छे तो तिहां निश्चेषी अग्नि छेज एहवी व्याप्ति निर्धारीने ज्ञान करवो ते पंचावयवें शुद्ध अनुमान प्रमाण कहिये। ते अनुमान प्रमाण मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञाननुं कारण छे। ते अनुमाने जे यथार्थ ज्ञान थाय तेने मान कहेता प्रमाण कहियें अने जे अयथार्थ ज्ञान थाय ते प्रमाण नही ।
तथा सरिखावलंबीपणे अजाणी वस्तुनो जे जाणपणो थाय जेम गो कहेता बलद तेम गवय कहेता गवो ए गो सरिखो गवयनुं ज्ञान थयुं ते उपमान प्रमाण कहियें।
यथार्थ भावनो उपदेशक जे पुरुष ते आप्त कहियें। ते उत्कृष्ट आप्त वीतराग रागद्वेषरहित सर्वज्ञ केवलज्ञानी ते आप्तनो कह्यो जे वचन तेने आगम कहियें। जे राग, द्वेष तथा अज्ञान ए दोषे आघोपाछो, अधिकोओछो बोलाय छे ते आगम नही। अने राग, द्वेष, भय, अज्ञान रहित जे अरिहंत तेनुं वचन ते आगम प्रमाण जाणवो।
तथा वली अरिहंतना वचनने अनुयायी पूर्वापर अविरोधि मिथ्यात्व, असंयम, कषायथी रहित ते भ्रांति विना स्याद्वाद युक्त तथा जे साधक ते साधक, बाधक ते बाधक, हेय ते हेय, उपादेय ते उपादेय, इत्यादिक वहेचण सहित जे होय तेनो कह्यो ते आगमप्रमाण जाणवो। उक्तं च
सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च ।
सुअकेवलिणारइयं अभिन्नदसपुब्विणा रइयं ॥ (द्वा.प.कु.२०)
इत्यादिक सदुपयोगी भवभीरु जगत् जीवोना उपकारी एवा श्रुत आम्नावधर जे श्रुतने अनुसारे कहे तेनो वचन पण प्रमाण मानतुं। तथा कोइक फलरूप लिंगे करीने जे अजाण्या पदार्थनो निर्धार करियें ते अर्थापत्ति प्रमाण कहियें। जेम देवदत्तनो पीन कहेता पुष्ट शरीर छे पण ते देवदत दिवसनो जमतो नथी तेवारे अर्थापत्तिथी जाणीयें जे रात्रे जमतो हशे माटे पुष्ट शरीर छे। एम अर्थापत्ति प्रमाण जाणवो। ए प्रमाण ते जाते अनुमाननो अंश छे ते माटे श्रीअनुयोगद्वारमां प्रथम कह्यो नथी।
इहां दर्शनांतरीयो जे प्रमाण माने छे ते सत्य नथी, जेम छ प्रकारना इंद्रिय सन्निकर्षथी ऊपनो जे ज्ञान तेने नैयायिक प्रत्यक्ष प्रमाण कहे छे, अने परब्रह्मने इंद्रिय रहित माने छे ज्ञानानंदमयी माने छे तेवार (रें) इंद्रिय रहित ज्ञान ते अप्रमाण थाय छे। इत्यादिक अनेक युक्ति छे से माटे ते प्रमाण नहीं। तथा चार्वाक मतवाला मात्र एक इंद्रियप्रत्यक्षनेज प्रमाण माने छे। एम दर्शनांतरीयना अनेक विकल्प टालीने सर्व नय निक्षेप सप्तभंगी स्याद्वादयुक्त जे वस्तु जीव तथा अजीवनो सम्यग्ज्ञान जेनामां होय तेने सम्यग्ज्ञानी कहियें। ए ज्ञाननुं स्वरूप क । [७१] तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । यथार्थहेयोपादेयपरीक्षायुक्तज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्। स्वरूपरमणपरपरित्यागरूपं चारित्रम्। एतद्रत्नत्रयीरूपमोक्षमार्गसाधनात्साध्यसिद्धिः । इत्यनेनात्मनः ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण एवात्मा।