Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 211
________________ अष्टमं परिशिष्टम् १७७ (प्र.न.त.७.४२) तथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यवस्तुनो घटशब्दवाच्यं घटशब्दद्रव्यवृत्तिभूतार्थशून्यत्वात् पटवदित्यादि। (प्र.न.त.७.४३) [६६] अर्थ- हवे एवंभूतनय कहे छ। शब्दनी प्रवृत्तिनो निमित्तभूत जे क्रिया ते विशिष्ट संयुक्त जे अर्थ तेने वाच्य जे धर्म तेने जे पहोंचतो होय एटले ते कारण कार्य धर्म सहित तेने एवंभूतनय कहियें। तथा ऐश्वर्य सहित ते इंद्र, शक्ररूप सिंहासने बेसे ते शक्र, शचि कहेता इंद्राणीने साथे बेठो ते वारें शचीपति कहे, एटले जे शब्दना जेटला पर्याय ते सर्व तेमां पहोंचता भावने ते नाम कही बोलावे अने जे पर्याय पहोंचतो देखे नही ते पर्यायनी ना कहे। जिहां सुधी एक पर्याय ऊणो छे तिहां सुधी समभिरूढनय कहियें, अने सर्व वचन पर्यायने पहोंचे ते वारें एवंभूतनय कहिये। जे पदार्थनो नामभेदनो भेद देखीने पदार्थनी भिन्नता कहे ते एवंभूतनयाभास कहिजे। नामभेदें ते वस्तुज भिन्न जेम हाथी, घोडा, हिरण्य भिन्न छे तेम भिन्नपणो माने जेम अर्थ भिन्नपणा माटे घटथी पट भिन्न छे तेम इंद्रपणाथी पुरंदरपणो भिन्न माने ते एवंभूतनयनो दुर्नय जाणवो। एटले एवंभूतनय कह्यो, ए रीते सातनयनी व्याख्या कही। [६७] अत्र आद्यनयचतुष्टयमविशुद्धम्, पदार्थप्ररूपणाप्रवणत्वाद। अर्थनया नामद्रव्यत्वसामान्यरूपा नयाः। शब्दादयो विशुद्धनयाः शब्दावलम्बार्थमुख्यत्वाद, यतस्ते तत्त्वभेदद्वारेण वचनमिच्छन्ति। शब्दनयस्तावत् समानलिङ्गानां समानवचनानां शब्दानामिन्द्रशक्रपुरन्दरादीनां वाच्यं भावर्थमेवाभिन्नमभ्युपैति, न जातुचिद भिन्नवचनं वा शब्दं स्त्री दारा: तथा आपो जलमिति। समभिरूढस्तु प्रत्यर्थं शब्दनिवेशादिन्द्रशक्रादीनां पर्यायशब्दत्वं न प्रतिजानीते, अत्यन्तभिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वादभिन्नार्थत्वमेवानुमन्यते घटशक्रादिशब्दानामिवेति। एवम्भूतः पुनर्यथासद्भाववस्तुवचनगोचरं आपृच्छतीति चेष्टाविशिष्ट एवार्थो घटशब्दवाच्यः चित्रालेख्यतोपयोग- परिणतश्च चित्रकारः। चेष्टारहितस्तिष्ठन् घटो न घटः, तच्छब्दार्थरहितत्वात् कूटशब्दवाच्यार्थवन्नापि भुजानः शयानो वा चित्रकाराभिधानाभिधेयश्चित्रज्ञानोपयोगपरिणतिशून्यत्वाद्, गोपालवद्। एवमभेदार्थवाचिनो नैकैकशब्दवाच्यार्थावलम्बिनश्च शब्दप्रधानार्थोपसर्जनाच्छब्दनया इति तत्त्वार्थवृत्तौ। [६७ अर्थ- ए सात नयमां आद्यना चार नय जे छे ते अविशुद्ध छे शा माटे के जे पदार्थ कहेता द्रव्य तेने सामान्यपणे कहेवाना अधिकारी छे। ए नयन किहां एक अर्थनय ए पण नाम छे ते अर्थ शब्दे द्रव्य ले। तथा शब्दादिक त्रण नय ते शुद्धनय छे केमके शब्दना अर्थनी एने मुख्यता छ। पेहेला नय ते भेदपणे वचनने वांछे छे अने शब्दादिक नय ते लिंगादिके अभेद वचने अभेद कहे तथा भिन्नवचने भिन्नार्थ कही माने अने समभिरूढ ते भिन्न शब्द तेने वस्तु पर्याय न माने तथा एवंभूत ते भिन्नगोचर पर्यायने भिन्न माने। जे चेष्टा करतो होय तेने घट कहे पण खंणे पडयो घट कहे नही, चित्रामण करतो होय तथा तेज उपयोगें वर्ततो होय तेने चित्रकार कहे पण तेज चित्रकार सुतो होय अथवा खावा बेठो होय तेने चित्रकार न कहे केमके ते उपयोगें रहित छे माटे। ए नय ते शब्द तथा अर्थने भेदपणो माने छे अने अर्थथी शून्य शब्द ते प्रमाण नथी अने शब्दप्रधान अर्थ ते द्रव्यने गौणपणे वर्तता शब्दादिक त्रण नय छ एम तत्त्वार्थ टीका मध्ये कह्यो [६८] एतेषु नैगमः सामान्यविशेषोभयग्राहकः, व्यवहारो विशेषग्राहको द्रव्यार्थावलम्बि-ऋजुसूत्रो विशेषग्राहक एव। एते चत्वारो द्रव्यनयाः। शब्दादयः पर्यायार्थिकविशेषावलम्बिनो भावनयाश्चेति। शब्दादयो नामस्थापनाद्रव्यनिक्षेपानवस्तुतया जानन्ति। परस्परसापेक्षाः सम्यग्दर्शनम्, निरपेक्षा मिथ्यात्वम्। प्रतिनयं भेदानां शतं तेन सप्तशतं नयनामिति अनुयोगद्वारोक्तत्वाज्ज्ञेयम्। [६८] ए सात नयने विषे पहेलो नैगमनय ते सामान्य विशेष बेहुने माने छ। संग्रहनय ते सामान्यने माने छ। व्यवहारनय विशेषने माने छे अने द्रव्यार्थावलंबी छे। तथा ऋजुसूत्र तो विशेष ग्राहक छ। ए चार ते द्रव्यनय छे, अने पाछला शब्दादिक त्रण नय ते पर्यायार्थिक विशेषावलंबी भावनय छ। तथा शब्दादिक नय ते नाम, स्थापना, द्रव्य ए पेहेला त्रण निक्षेपाने अवस्तु माने छे तिण्हं सद्दनयाणं अवत्थु ए अनुयोगद्वार सूत्रनुं वचन छ। ए साते नय परस्पर सापेक्षपणे ग्रहे ते समकिती जाणवा, अने जो ए नय परस्पर विरोधी होय तो मिथ्यात्वी जाणवा। तथा एकेका नयना सो सो भेद थाय छे, एम साते नयना मली सातसो भेद थाय छ। ए अधिकार श्रीअनुयोगद्वार सूत्रथी कह्यो छे। [६९/ पूर्वपूर्वनयः प्रचुरगोचरः, परास्तु परिमितविषयाः। (प्र. न. त. ७.४६) सन्मात्रगोचरात् सङ्ग्रहान्नैगमो भावाभावभूमित्वाद् भूरिविषयः। (प्र.न.त.७.४७) वर्तमानविषयाद् ऋजुसूत्राद् व्यवहारस्त्रिकालविषयत्वाद् बहुविषयः। (प्र. न. त. ७. ४९) कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शनाद भिन्न ऋजुसूत्रविपरीतत्वान्महार्थः। (प्र. न. त. ७.५०) प्रतिपर्यायमशब्दमर्थभेदमभीप्सितः समभिरूढाच्छब्दः प्रभूतविषयः। (प्र.न.त.७.५१) प्रतिक्रियां भिन्नमर्थं प्रतिजानानाद एवम्भूतात् समभिरूढो महगोचरः। (प्र.न.त.७.५२)

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