Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 206
________________ १७२ स्याद्वादपुष्पकलिका वली अशुद्ध व्यवहारना वे भेद छे। सद्भूत, अद्भूता तेमां जे क्षेत्रे अवस्थाने अभेदें रह्या जे ज्ञानादि गुण तेने परस्पर भेदें कहेवा सद्भूतव्यवहार। तथा जेम क्रोधी हुं मानी हूं, अथवा देवता हुं, मनुष्य हुं, इत्यादि देवतापणो ते हेतुपणे परिणमतां ग्रह्मा जे देवगतिविपाकी कर्म तेने उदयरूप परभाव छे ते पण यथार्थ ज्ञान विना भेदज्ञानशून्य जीवने एक करी माने छे ते अशुद्ध व्यवहार कहिये । तेना बे भेद छे। संश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते जे शरीर मारुं हुं शरीरी इत्यादिक संश्लेषित असद्भूत व्यवहार। असंश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते आ पुत्र मारो, धनादिक मारा, एम कहे ते असंश्लेषित असद्भूत व्यवहारा तेना उपचरित, अनुपचारित ए के भेद जाणवा तथा विशेषावश्यक महाभाष्यमां कह्युं छे जे व्यवहारनयना मूल वे भेद छे। एक वेंहेचणरूप व्यवहार बीजो प्रवृत्ति व्यवहार । ते वली प्रवृत्तिना त्रण भेद छे, १ वस्तु प्रवृत्ति, २ साधन प्रवृत्ति, ३ लौकिक प्रवृत्ति तेमां वली साधन प्रवृत्तिना त्रण भेद छे, १ जे अरिहंतनी आज्ञाये शुद्ध साधनमार्गे इहलोक संसार पुद्गलभोग आशंसादि दोष रहित जे रत्नत्रयीनी परिणति परभावत्याग सहित ते लोकोत्तर साधन प्रवृत्ति, २ जे स्याद्वाद विना मिथ्याभिनिवेश सहित साधनप्रवृत्ति ते कुप्रावचनिक साधनप्रवृत्ति, ३ अने जे लोकना स्वस्वदेश कुलनी चाले प्रवृत्ति ते लोकव्यवहार प्रवृत्ति ए त्रण प्रवृत्ति कहिये । ए व्यवहारनयना भेद जाणवा । तिहां द्वादशसार नयचक्रमां एकेक नयना सो सो भेद कह्या छे ते जैनशासन रहस्यना जाण जीवे ते ग्रंथमांथी धारवा ए व्यवहारनय कह्यो । [५६| उज्जुं उ सुर्य वाणमुज्जसुयमस्स सोऽमुज्जसुओ। सुत्तयइ वा जमुज्जुं वत्थं तेणुज्जुसुत्तो त्ति। (वि.आ.भा. २२२२) उऊं ति। ऋजु श्रुतं सुज्ञानं बोधरूपं ततश्च ऋजु अवक्रं श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतम्। वा अथवा ऋजु अवक्रं वस्तु सूत्रचतीति ऋजुसूत्रम् इति। कथं पुनरेतदभ्युपगतस्य वस्तुनोऽवक्रत्वम्ः इत्याह पच्युपन्नं संपयमुत्पन्नं जं च जस्स पत्तेयं । तं ऋजु तदेव तस्सत्थि उ वक्कम्मन्नं ति जमसंतं॥ (वि.आ.भा.-२२२३) यत्साम्प्रतमुत्पन्नं वर्तमानकालीन वस्तु यच्च यस्य प्रत्येकमात्मीयं तदेव तदुभवस्वरूपं वस्तु प्रत्युत्पन्नमुच्यते तदेवासी नयः ऋजु प्रतिपद्यते तदेव च वर्तमानकालीनं वस्तु तस्यर्जुसूत्रस्यास्ति, अन्यत्र शेषातीतानागतं परकीयं च यद् - यस्माद् असद्- अविद्यमानं ततोऽसत्त्वादेव तद्वक्रमिच्छत्यसाविति । अत एव उक्त नियुक्तिकृता पच्चुपन्नगाही उज्जुनयविही मुणेयो। (आ.नि.७५७) यतः कालत्रये वर्तमानमन्तरेण वस्तुत्वमुक्तं च यतोऽतीतमनागतं भविष्यति न साम्प्रतं तद् वर्तते इति वर्तमानस्यैव वस्तुत्वमिति अतीतस्य कारणता अनागतस्य कार्यता जन्यजनकभावेन प्रवर्तते अतः ऋजुसूत्रं वर्तमानग्राहकम्। तद्वर्तमानं नामादिचतुः प्रकार ग्राह्यम्।। १ [५६] अर्थ- हवे ऋजुसूत्रनय कहे छे । ऋजु कहेता सरल छे श्रुत कहेता बोध ते ऋजुसूत्र कहियें, ऋजु शुब्दें अवक्र एटले समो छे श्रुत जेने ते ऋजुसूत्र कहियें। अथवा ऋजु अवक्रपणे वस्तुने जाणे कहे ते ऋजुसूत्र कहियें। ते वस्तुनो वक्रपणो केम जाणियें ते कहे छे। सांप्रत कहेता वर्तमानपणे उपनो जे वर्तमानकालें वस्तु ते ऋजुसूत्र कहियें। अन्य जे अतीत, अनागत ते ऋजुसूत्रनी अपेक्षाये अछतो छे, केमके अतीत तो विणसी गयो छे अने अनागत आव्यो नथी तेवारे अतीत अनागत ए वे अवस्तु छे अने जे वर्तमान पर्याये वर्ते ते वस्तुपणो छे जे पूर्वकाल पश्चात्काल लइ वस्तु कहेवी ते नैगमनय छे, आरोपरूप छे। तिहां कोई पूछे जे संसारीकर्मा जीवने सिद्धसमान कहो छो ते तो अनागतकाले सिद्ध थशे तो तमे अनागतने अवस्तु केम कहो छो? तेनो उत्तर जे हे भव्य ! ए अनागत भावि माटे नथी ए तो वर्तमान सर्व गुणनी छति आत्मप्रदेशे छे ते आवरण दोषें प्रवर्तती नथी तेथी तिरोभावीपणा माटे संग्रहनये कहिये पण वस्तुम सर्व केवलज्ञानादि गुण छता वर्ते छे ते माटे सिद्ध कहिये छैयें। अने जे वस्तु ते नामादिक पर्याय सहित वर्ते छे माटे नामादि निक्षेपा ते सर्व ऋजुसूत्रनयना भेद छे। तथा नामादिक त्रण निक्षेपा तो द्रव्य छे अने भाव ते भाव छे । ए व्याख्या कारणकार्यभावनी वेंचण करीये ते माटे छे पण वस्तुमां सहज चार निक्षेपा ते भाव धर्मज छे। तथा ए स्वस्वकार्यना कर्ताज छे। ए ऋजुसूत्रना बे भेद दिगंबर कहे छे, १ सूक्ष्मऋजुसूत्र, २ स्थूलऋजुसूत्र। जे वर्तमानकालनो एक समय तेने सूक्ष्मऋजुसूत्र कहिये, अने जे बहुकालि ते स्थूलऋजुसूत्र । ए पण कालापेक्षी भाव छे। तथा ए भावनय छे अने योगावलंबीपणो ते बाह्यछे ते पण द्रव्य माटे एक द्रव्य मध्ये गणे छे। ए ऋजुसूत्रनय कह्यो। [५७] शप् आक्रोशे ' शपनमाह्वानमिति शब्दः, शपतीति वा आह्वयति शब्दः, शप्यते आहूयते वस्तु अनेनेति शब्दः, तस्य शब्दस्य यो वाच्योऽर्थस्तत्परिग्रहात्तत्प्रधानत्वान्नयशब्दो यथा कृतकत्वादित्यादिकः पञ्चम्यन्तः शब्दोऽपि हेतुः । अर्थरूपं कृतकत्वमनित्यत्वगमकत्वान्मुख्यतया हेतुरुच्यते उपचारतस्तु तद्वाचकः कृतकत्वशब्दों हेतुरभिधीयते एवामिहापि

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