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अष्टमं परिशिष्टम्
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संग्रहणं कहेता एकठो एकवचन मध्ये एक अध्यवसाय उपयोगमां समकालें ग्रहेवू सामान्यरूपपणे सर्व वस्तुनो आक्रोडण ग्रहण करवो ते संग्रह कहियें अथवा सामान्यरूपपणे सर्व संग्रह करे ते संग्रह कहिये, अथवा जे थकी सर्व भेद सामान्यपणे ग्रहिये तेने संग्रह कहियें, अथवा संगृहीतं पिंडितं कहेता जे वचनथी समुदाय अर्थ ग्रहवाय ते संग्रह वचन कहिये। तेना चार भेद छ। १ संगृहीत संग्रह, २ पिंडित संग्रह, ३ अनुगम संग्रह, ४ व्यतिरेक संग्रह।
१ सामान्यपणे वहेंचण विना ग्रहण थाय एवो जे उपयोग अथवा एवं वचन अथवा एवो धर्म कोइपण वस्तुने विशे होय तेने संगृहीत संग्रह कहियें।
२ अने एकजाति माटे एकपणो मानिये ते एकमध्ये सर्वनो ग्रहण थाय जेम-एगे आया,एगे पुग्गले इत्यादि वस्तु अनंती छे पण जाति एक माटे ग्रहवाय छे ते बीजो पिंडित संग्रह कहियें।
३ जे अनेक जीवरूप अनेक व्यक्ति छे ते सर्वमां पामियें, जेम सच्चिन्मय आत्मा एटले सर्व जीव तथा सर्व प्रदेश, सर्व गुण ते जीवनां लक्षण छ। एने अनुगम संग्रह कहियें।
४ तथा जेने ना कहेवे तेथी इतरनो सर्व संग्रहपणे ज्ञान थाय ते जेम अजीव छे तेवारें जे जीव नही ते अजीव कहियें एटले कोइक जीव छ एम व्यतिरेक वचने ठेर्यो तथा उपयोगें जीवनो ग्रहण थाय छे ते व्यतिरेक संग्रह कहिये।
अथवा संग्रहनय बे भेदें कहेवाय छे? महासत्तारूप, २ अवांतरसत्तारूप। ए रीतें पण संग्रहनो स्वरूप कह्यो छे। सदिति भणियम्मि जम्हा, सव्वत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी। तो सव्वं सत्तामत्तं नत्थि तदत्थंतरं किंचि॥(वि.आ.भा.२२०७)
यद्यस्मात् सदित्येवं भणिते सर्वत्र भुवनत्रयान्तर्गतवस्तुनि बुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति, न हि तत् किमपि वस्तु अस्ति यत् सदित्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते तस्मात् सर्वं सत्तामात्रम्, न पुनः अर्थान्तरं तत् श्रुतसामर्थ्याद् यत् सङ्ग्रहेन सगृह्यते तेन परिणमनरूपत्वादेव सङ्ग्रहस्येति।
___एटले त्रणे भुवनमां एहवी वस्तु कोइ नथी जे संग्रहनयने ग्रहणमा आवती नथी जे जे वस्तु छे ते सर्व संग्रहनयमां ग्रहवाणी ज छे ए संग्रहनय कह्यो।
[५५] सङ्ग्रहगृहीतवस्तुभेदान्तरेण विभजनं व्यवहरणं प्रवर्तनं वा व्यवहारः। स द्विविधः शुद्धोऽशुद्धश्च। शुद्धो द्विविध:- वस्तुगतव्यवहारो धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां स्वस्वचलनसहकारादिजीवस्य लोकालोकादिज्ञानादिरूप: स्वसम्पूर्णपरमात्मभावसाधनरूपो गुणसाधकावस्थारूपो गुणश्रेण्यारोहादिसाधनशुद्धव्यवहारः। अशुद्धोऽपि द्विविध:सद्भूतासद्भूतभेदात्। सद्भूतव्यवहारो ज्ञानादिगुणः परस्परं भिन्नः, असद्भूतव्यवहारः कषायात्मादि मनुष्योऽहं देवोऽहम्। सोऽपि द्विविध:- संश्लेषिताशुद्धव्यवहारः शरीरं मम अहं शरीरी। असंश्लेषितासद्भूतव्यवहारः पुत्रकलत्रादि। तौ च उपचरितानुपचरितव्यवहारभेदाद द्विविधौ तथा च विशेषावश्यके
ववहरणं ववहरए स तेण वऽवहीरए व सामन्न। ववहारपरो व जओ विसेसओ तेण ववहारो॥(वि.आ.भा.२२१२)
व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहरति स इति वा व्यवहारः, विशेषतो व्यवह्रियते निराक्रियते सामान्यं तेनेति व्यवहारः, लोको व्यवहारपरो वा विशेषतो यस्मात्तेन व्यवहारः। न व्यवहारात् स्वस्वधर्मप्रवर्तितेन ऋते सामान्यमिति स्वगुणप्रवृत्तिरूपव्यवहारस्यैव वस्तुत्वं तमन्तरेण तद्भा(दभा)वात्। स द्विविधो विभजनप्रवृत्तिभेदात्। प्रवृत्तिव्यवहारस्त्रिविध:-वस्तुप्रवृत्तिः, साधनप्रवृत्तिः, लौकिकप्रवृत्तिश्च। साधनप्रवृत्तिस्त्रेधा-लोकोत्तर-लौकिक-कुप्रावचनिकभेदाद् इति व्यवहारनयः श्रीविशेषावश्यके।
[५५] अर्थ- हवे व्यवहारनयनी व्याख्या करे छे। संग्रहनये ग्रहित जे वस्तु तेने भेदांतरे विभजन कहेता वहेंचq ते व्यवहारनय। जेम द्रव्य एवं सामान्य नाम का तेमां वली वेंहचण करिये जे द्रव्यना बे भेद छ। जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य, वली तेमां पण वेहेंचण करिये जे जीवना बे भेद एक सिद्ध बीजा संसारी एम वेहेंचण करवी ते सर्व व्यवहारनयनो स्वभाव जाणवो।
अथवा व्यवहार कहेता प्रवर्तन ते व्यवहारनय। तेना बे भेद छ। शुद्ध व्यवहार, अशुद्ध व्यवहार। वली शुद्ध व्यवहारना बे भेद छ। सर्व द्रव्यनी स्वरूपरूप शुद्धप्रवृत्ति जेम धर्मास्तिकायनी चलणसहायता तथा अधर्मास्तिकायनी स्थिरसहायता तथा जीवनी ज्ञायकता इत्यादिकने वस्तुगत शुद्ध व्यवहार कहिये। द्रव्यनो उत्सर्ग निपजवा माटे रत्नत्रयी शुद्धता गुणस्थाने श्रेणीआरोहणरूप ते साधनशुद्ध व्यवहार कहिये।
१. तम्मत्तं इति पाठो मुद्रितः।