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स्याद्वादपुष्पकलिका
इहां कोइ पुछे जे आठ प्रदेश निरावरण छेतो लोकालोक केम जाणता नथी? तिहां उत्तर जे आत्म द्रव्यनी जे गुणप्रवृत्ति ते सर्व प्रदेश मिले प्रवर्ते तो तेमां ए आठ प्रदेश अल्प छे तेथी आठ प्रदेशमा सर्व गुण निरावरण छे पण कार्य करी शकता नथी। जेम अग्निअत्यंत सूक्ष्म कणीयु होय तेमां दाहक, पाचक, प्रकाशक गुण छे पण अल्पता माटे दाहकादिकार्य करी शकतुं नथी।
वली कोइ पुछे जे ए अष्ट प्रदेश ते निरावरण केम रही शक्या? तेनं उत्तर जे चल प्रदेश होय तेने कर्म लागे पण अचल प्रदेशने कर्म लागे नहीएम भगवतीसूत्र(मां) कह्यं छे।
जे एअइ, वेअइ, चलइ, फंदड़, घट्टइ, से बंधड़। __ए पाठ छे ते माटे जे चल होय ते बंधाय अने आठ प्रदेश तो अचल छे तेथी ए आठ प्रदेशने बंध नथी, तथा कार्याभ्यासे प्रदेश भेला थाय तेथी प्रदेशना गुण पण तिहां ते कार्य करवाने प्रवर्ते छे, तथा जे द्रव्यनो जे गुण जे प्रदेशे होय ते गुण ते प्रदेश मूकी अन्य क्षेत्रे जाय नही। तथा जीवना आठ प्रदेश सर्वथा निरावरण छे, बीजा प्रदेशे अक्षरनो अनंतमो भाग चेतना सर्वदा उघाडी छे एरीते संति कहेता छे। घणा अनादि परिणामिकभाव ते भवंति कहेता होय। अनादि परिणामिकभाव छे ते जीवना भाव छे अने सप्रदेशादिक धर्मास्तिकाय प्रमुखने विषे समान छे एम जाणवो।
इत्यादिक विशेषःस्वभाव छ। [४८] भिन्नभिन्नपर्यायप्रवर्तन-स्वकार्यकरणसहकारभूताः पर्यायानुगतपरिणामविशेषस्वभावाः ते च के?
१) पारिणामिकता, २) कर्तृता, ३) ज्ञायकता, ४) ग्राहकता, ५) भोक्तृता, ६) रक्षणता, ७) व्याप्यव्यापकता, ८) आधाराधेयता, ९) जन्यजनकता, १०) अगुरुलघुता, ११) विभूतकारणता, १२) कारकता, १३) प्रभुता, १४) भावुकता, १५) अभावुकता, १६) स्वकार्यता, १७) सप्रदेशता, १८) गतिस्वभावता, १९) स्थितिस्वभावता, २०) अवगाहकस्वभावता, २१) अखण्डता, २२) अचलता, २३) असङ्गता, २४) अक्रियता, २५) सक्रियता इत्यादि स्वीयोपकरणप्रवृत्तिनैमित्तिकाः। उक्तं च सम्मतौ
आरोपोपचारेण यद्यदपेक्षते तन्न वस्तुधर्मोपाधितो भवनान्न चोपाधिर्वस्तुसत्ता इति।
[४८] अर्थ- हवे विशेष स्वभाव कहे छ। भिन्न भिन्न जे पर्याय तेनुं कार्य कारणपणे जे प्रवर्तन तेना सहकारभूत जे जे पर्यायानुगत परिणामि एवा जे स्वभाव ते विशेष स्वभाव कहियें। तेना अनेक भेद छ। ते श्रीहरिभद्रसूरिकृत शास्त्रवार्तासमुच्चयग्रंथमां कह्या छे ते कहे छ।
१ सर्व द्रव्यने पोताना गुण समय समयमां कार्य करवे प्रवर्ते ते भिन्न भिन्न परिणामे परिणमे ते सर्व पोताना गुण तेने कारणिक छे ते परिणामिकपणो कहिये।
तत्र कर्तृत्वं जीवस्य नान्येषाम् ,तिहां आत्मा कर्ता छे एटले कर्तापणो जीव द्रव्यने विषे छ। अप्पा कत्ता विकत्ता य । इति उत्तराध्ययनवचनात्, ३ ज्ञायकता जाणपणानी शक्ति जीवने विषे छे। ज्ञानलक्षण जीव छ। ते माटे गिण्हई कायिएणं इति आवश्यकनियुक्तिवचनात्।(आ.नि.७) ४ ग्राहकशक्ति पण जीवने छ। गृह्णातीति क्रियानो कर्ता जीव छ। ५ भोक्ताशक्ति पण जीवमांछे।। जो कुणइ सो भुंजड़। यः कर्ता स एव भोक्ता इति वचनात्।
१ रक्षणता, २ व्यापकता, ३ आधाराधेयता, ४ जन्यजनकता तत्त्वार्थवृत्ति मध्ये छे, तथा अगुरुलघुता, विभुता, कारणता, कार्यता, कारकता, ए शक्तिनी व्याख्या श्रीविशेषावश्यकें छे, भावुकता तथा अभावुकता शक्ति ते श्री हरिभद्रसूरिकृत भावुक नामे प्रकरण मध्ये कहि छ।
एम केटलीक शक्ति जैनना तर्कग्रन्थो जे अनेकांतजयपताका सम्मति प्रमुखमां छे, तथा ऊर्ध्व प्रचयशक्ति अने तिर्यक् प्रचयशक्ति, ओघशक्ति, समुचितशक्ति, ए सर्व सम्मतिग्रंथने विषे छ। तथा जे द्विगुणी आत्मा माने ते सर्व धर्म शक्तिरूपज माने छे। तेणे दानादिकलब्धि अव्याबाध सुख प्रमुख शक्ति मानी छ।