Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 199
________________ अष्टमं परिशिष्टम् १६५ असंख्यात समतें जाणे, अने केवलज्ञान ए छ द्रव्यना सर्व पर्यायने एक समयमां प्रत्यक्ष जाणे माटे जो द्रव्यमां वक्तव्यपणो न होय तो श्रुतज्ञाने ग्रहण थाय नहीं अने जे ग्रंथाभ्यास, उपदेशादिक सर्व काम थाय छे तेतो एम नथी माटे द्रव्यमां वक्तव्यपणो छे। अवक्तव्याभावे कहता अवक्तव्यपणाने न मानियें तो अतीतपर्याय ते वस्तुमां कारणतानी परंपरामां रह्या छे, तथा अनागतपर्याय सर्व योग्यतामा रह्या छे ते सर्वनो अभाव थाय, ते वारे वस्तुमां वर्तमान पर्यायनी छति पामियें तेथी अतीत अनागतनो ज्ञान थाय नही, माटे अवक्तव्य स्वभाव अवश्य मानवो अने वर्तमान सर्व कार्य ते निराधार थइ जाय, अने द्रव्यमां एक समयमां अनंता कारण छे, ते अनंता कारणना अनंता कार्य धर्म छे, अने अनंता कार्यना अनंता कारण परंपरानुं ज्ञान ते केवलीने छे, अने वर्तमानकाले धर्म कार्यधर्मथी अनंतगुणा कारणकार्यनी योग्यरूप सत्ता छे ते कोइना अविभाग नथी, पण अविभागी जे ज्ञानादिक गुण तेमां अनंता कारणधर्म, अनंता कार्यधर्म ऊपजवानी योग्यतारूप सत्ता छे ते सर्व अवक्तव्यरूप छे। [४६] सर्वेषां पदार्थानां ये विशेषगुणाञ्चलनस्थित्यवगाहसहकारपूरणगलनचेतनादयस्ते परमगुणाः । शेषा: साधारणाः, साधारणासाधारणगुणास्तेषां तदनुयाविप्रवृत्तिहेतुः परमस्वभाव इत्यादयः सामान्यस्वभावः । ४६] हवे परम स्वभावनुं स्वरूप कहे छे। सर्व जे धर्मास्तिकायादिक पदार्थ तेना विशेष गुण जे धर्मास्तिकायनो चलन सहकारीपणो तथा अधर्मास्तिकायनो स्थितिसहाय, आकाशास्तिकायनो अवगाहक तथा पुद्रलद्रव्यनो पूरणगलन, जीव द्रव्यनो चेतना लक्षण, ए सर्व द्रव्यना विशेष गुण कह्या। एम लक्षणरूप तथा द्रव्यांतरथी भिन्न पाडवानुं मूल कारण ते परम प्रकृष्ट गुण कहिये। प्रधा गुणने अनुयायी बीजा जे साधारण गुण ते गुण पंचास्तिकायमा पामिये। तेनां नाम अविनाशीपणो, अखंडपणो नित्यत्वादिक ए पंचास्तिकायमा सरिखा छे ते माटे साधारण गुण, तथा पंचास्तिकायमा कोइक अस्तिकायमा पामिये, कोइकमां न पामीये ते गुणने साधारण असाधारण कहिये, ते सर्व गुणने विषे विशेष गुणने अनुयायि प्रवर्ते छे ते प्रवर्ततनना कारण द्रव्यमां एक परमस्वभावपणो छे। ते परम स्वभावने परिणमने द्रव्यना सर्व गुण मुख्य गुणने अनुरागेज प्रवर्ते ते परमस्वभाव सर्व द्रव्यने विषे छे। एटले तेर सामान्य स्वभाव ह्या वली अनेकांतजयपताकामां कह्या छे। [४७] तथास्तित्व-नास्तित्व-कर्तृत्व- भोक्तृत्वासर्वगतत्व- प्रदेशवत्त्वादिभावाः पुनः तत्त्वार्धटीकायां पुनरप्यादिग्रहणं कुर्वन् ज्ञापयत्यत्रानन्तधर्मवत्त्वं तत्राशक्ताः प्रस्तारयन्तु सर्वे धर्माः प्रतिपदं प्रवचनत्वेन पुंसा यथासम्भवमायोजनीयाः । क्रियावत्त्वं पर्यायोपयोगिता प्रदेशाष्टकनिश्चलता एवं प्रकाराः संति भूयांसः अनादिपरिणामिका भवन्ति जीवस्वभावा धर्मादिभिस्तु समाना इति विशेषः । [४७] अर्थ- तेमज अस्तिपणो, नास्तिपणो, कर्तापणो, भोक्तापणो, गुणवंतपणो, असर्वव्यापिपणो, प्रदेशवंतपणो, इत्यादि अनंत स्वभाववंत द्रव्य छे। तेमज तत्त्वार्थ टीकामध्ये परिणामिक भावना भेद वखाणतां कह्यो छे । पुनरपि आदि शब्दना ग्रहण करतां एम वे छे जे वस्तु अनंतधर्मवंत छे ते सर्व विस्तारी शके नही तो पण द्रव्य द्रव्यने विषे प्रवचनना जाण पुरुषें जेम संभवे तेम धर्म जोडवा। तथा क्रियावंतपणो जे ज्ञानादिक गुण ते लोकालोक जाणवाने प्रति समयें प्रवर्ते छे। श्री भाष्यकारे ज्ञानादि गुण ते करण अने तेज गुणवृत् ते क्रिया जाणवी। तथा देखवो ते कार्य एम धर्मास्तिकायादिकना सरवे (सर्वे) गुण ते त्रण परिणतिये परिणामी छे, ते माटे पंचास्तिकाय ते अर्थक्रिया करे छे. ते क्रियावंतपणी जाणवो सर्व पर्यायनो उपयोगोपणो ए पण जीव स्वभाव छे तथा प्रदेशाष्टकनी निश्चलता ए पण जीवनो स्वभाव छे। तिहां धर्माधर्म अने आकाश ए त्रण अस्तिकायना प्रदेश अनादि अनंतकाल अवस्थितपणे छे। पुद्गलने चलपणा सर्वदा छे, पुद्गलपरमाणु तथा पुद्गलस्कंध ते संख्यातो काल अथवा अंसख्यातो काल एक क्षेत्रे रहे पण पछे अवश्य चल थाय। तथा जीवद्रव्यने सकर्मा संसारीपणे क्षेत्रथी क्षेत्रांतर गमन, भवथी भवांतर गमनरूप चलता छे, ते जीवने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रने प्रगटवे सर्व परभावभोगीपणो निवारवे आत्मस्वरूपनिरधारण स्वरूप भासनस्वरूप परिणमने करवे, स्वरूप एकत्वें, स्वधर्मकर्ता, स्वधर्मभोक्तापणे, सकल परभाव तजवे, निरावरण, निःसंग, निरामय, निर्द्वद्व, निष्कलंक, निर्मल, स्वीय अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अरूपी, अव्याबाध, परमानंदमयी, सिद्धात्मा, सिद्धक्षेत्रे रह्या ते सादि अनंतकाल स्थिर छे, सकल प्रदेश स्थिर छे अने संसारी जीव तेना आठ प्रदेश सदा सर्वदा स्थिर छे। ते आठ प्रदेश निरावरणे तथा आचारागंनी टीका शीलांगाचार्यकृतना लोकविजयाध्ययनने प्रथमोदेशके तदनेन पञ्चदशविधेनापि योगेनात्मा अष्टौ प्रदेशान् विहाय तप्तभाजनोदकवदुद्वर्तमानैः सर्वैरैवात्मप्रदेशैः आत्मप्रदेशावष्टब्धाकाशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् वध्नाति तत् प्रयोगकर्मेत्युच्यते। एटले आ अष्ट प्रदेशे कर्म लागतां नथी ।

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