Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 190
________________ १५६ स्याद्वादपुष्पकलिका २३| अर्थ- तथा एकदेशे परपर्याय जे नास्तिपर्याय तेने असद्भाव कहेता अछतापणे अर्पित करीने मुख्यपणे गवेषीय तेवार पछी अन्य कहेता बीजा स्वपर्यायें अस्तिपणो तथा परपर्याय जे नास्तिपर्याय ए बे सत्त्व कहेता छतापणे असत्त्व कहेता अछतापणे युगपत् समकाले कहिये। इहां संकेतिक शब्दने अभावे कहेवामां न आवे, अने ते कह्या विना श्रोताने ज्ञान केम थाय? ते माटे स्यात् पद ते अन्य भांगानी सापेक्षता माटे तथा सर्व धर्मनी समकालता जणाववा माटे स्याद् नास्ति अवक्तव्य ए छठ्ठो भांगो जाणवो। एटले जीव पोताने स्वगुणे तो छतापणो सर्वपर्याय समकालनो अव्यक्तव्यपणो ए स्याद् नास्ति अवक्तव्य छठ्ठो भांगो थयो। [२४] तथा एकदेशे स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पित एकस्मिन् देशे परपर्यायैरसद्भावेनानर्पितोऽन्यस्मिंस्तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदेकेन शब्देन वक्तं विवक्षितः सन् असन अवक्तव्यश्च भवति इति सप्तमो भगः। एतेन एकस्मिन् वस्तुन्यर्पितानर्पितेन सप्तभङ्गी उक्ता।। २४] अर्थ- तथा एकदेशे स्वपर्यायने छतापणे अर्पित करिये अने एकदेश परपर्यायने अछतापणे गवेषियें अने ते सर्व पर्याय समकाले भेला रह्या छे पण वचने कहेवाय नहि, एटले अस्तिपणो पण छे अने नास्तिपणो पण छे, ए सर्व धर्म समकालें छे, पण वचने गोचर थाय नही, ए अपेक्षायें स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य ए रीते वस्तुनो परिणमन छे। ए सातमो भांगो जाणवो। ए सप्तभंगी अर्पित अनर्पितपणे कही। ते अर्पित एक धर्मज होय एम एक धर्मने विषे सप्तभंगी कही। २५] तत्र जीवः स्वधर्मे ज्ञानादिभिरस्तित्वेन वर्तमानः, तेन स्याद अस्तिरूपः प्रथमभङ्गः अत्र स्वधर्मा अस्तिपदगृहीताः शेषा नास्तित्वादयो धर्मा अवक्तव्यधर्माश्च स्यात्पदेन सङ्ग्रहीताः। [२५] अर्थ- हवे स्वरूपपणे सप्तभंगी कहे छ। जे एक द्रव्यने विषे अथवा एक गुणने विषे, एक पर्यायने विषे, एक स्वभावने विषे सात सात भांगा सदा परिणमे छे, ते रीतें सप्तभंगी कहे छ। स्याद्वादरत्नाकरावतारिका मध्ये कह्यो छे एकस्मिन् जीवादौ अनन्तधर्मापेक्षया सप्तभङ्गीनामानन्त्यम ए वचनथी जाणी लेजो। अस्थि जीवे इत्यादि गाथाथी जाणजो, ए सूयगडांग सूत्रे छ। हवे पहेलो भांगो लखियें छैयें। तिहां जीव द्रव्य पोताने १ स्वद्रव्य=पिंडगुणपर्यायसमुदाय आधारपणो, २ स्वक्षेत्र असंख्यप्रदेश ज्ञानादि गुण- अवस्थान, अगुरुलघुता हानिवृद्धिनो मान, ३ स्वकाल ते गुणनी वर्तना उत्पादव्ययना परिणमननो भिन्न स्वभाव तथा ४ अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, अनंत अव्याबाध, अरूपी, अशरीरी, परम क्षमा, परम मार्दव, परम आर्जव, स्वरूपभोगी प्रमुख स्वस्वभाव। ए अनंतज्ञेय ज्ञायकपणे जीव द्रव्य छतो छ। एम जीवनो ज्ञानगुण स्वधर्म सकल ज्ञेयज्ञायकपणो स्वशक्तिधर्मे अनंत अविभागें एक एक पर्याय अविभागमां सर्व अभिलाप्य अनभिलाप्य स्वभावनो जाणगपणो छ। इहां विस्तारे लखियें छैयें। तिहां मतिज्ञानना पर्याय जूदा छे। श्रुतज्ञानना अविभाग जूदा छ। [अवधिज्ञानना अविभाग जूदा छ।] मनःपर्यायज्ञानना अविभाग जूदा छे। केवलज्ञानना पर्याय जूदा छे। श्रीविशेषावश्यके गणधरवादने छेडे कह्यो छे। जो आवरवा योग्य वस्तु भिन्न छे तो आवरण जूदा छ। तिहां क्षयोपशमने भेदें जाणे छे ते परोक्ष अथवा देशथी जाणे छ। सर्वथा आवरण गये थके प्रत्यक्ष जाणे पण केवलज्ञान सर्वभावनो संपूर्ण प्रत्यक्षदायक ते संपूर्ण प्रगट्यो तेवारें बीजा ज्ञाननी प्रवृत्ति छे पण भिन्न पडती नथी, माटे ते केवलज्ञाननो जाणपणोज कहेवाय छ। तथा कोइक ज्ञानगणना अविभाग सर्व एक जातिना कहे छे, ते अविभागमध्ये वर्णादिक जाणवानी शक्ति अनेक प्रकारनी छे, तेमांज आवरण एटले जे शक्ति प्रगटे ते शक्तिनुं मतिज्ञानादि भिन्न नाम छे, अने सर्व आवरण गयाथी एक केवलज्ञान रह्यं छे। छद्मस्थ ज्ञाननो भास छ। ए पण व्याख्यान छ। एवो ज्ञानगुण पोताना स्वपर्याय ज्ञायक परिच्छेदक वेत्तृत्वादिकें अस्ति छ। एम सर्व गुणमां स्वधर्मनी अस्तिता कहेवी। तेमज जे अविभागरूप पर्याय छे जेना समूहनी एक प्रवृत्तिने गुण कहियें छैये ते पण स्वकार्य कारणधर्मे अस्ति छ। एम छ द्रव्यनुं स्वरूप स्वरूपें अस्ति छे अने अन्य छ भांगा पण छे एवो सापेक्षता माटे स्यात् पद देइने बोलवो ते स्याद् अस्ति ए प्रथम भांगापणो (कथ्यो) एटले गवेष्यो। जे अस्तिधर्म ते पण नास्तिपणा सहित छे एटले अस्ति कहेतां थकां नास्ति प्रमुख छ भांगानी छति छे, तिहां शब्द सहित उपयोग थयो तेथी सत्यपणो थयो। [२६] तथा स्वजात्यन्यद्रव्याणां तद्धर्माणां च विजातिपरद्रव्याणां तद्धर्माणां च जीवे सर्वथैव अभावान्नास्तित्वम्, तेन स्यान्नास्तिरूपो द्वितीयो भङ्गोऽत्र परधर्माणां नास्तित्वं नास्तिपदेन गृहीतं शेषा अस्तित्वादयः स्यात् पदेन गृहीता इति।

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