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अवस्था द्वारा भाव बनते हैं। यहां पर जीवों के भावों का वर्णन है। क्षायिक, उपशम, मिश्र, परिणाम, उदय और सन्निपात भाव यह छहः भाव है।
क्षायिक भावः कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायिक है। क्षायिक चारित्र, दान-लाभ-भोग-उपभोग और वीर्य यह पांच लब्धि यह क्षायिक भाव है। क्षायिक भाव काल की अपेक्षा से आदि और सांत है। क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और क्षायिकसम्यक्त्व काल की अपेक्षा से सादि अनंत है।
उपशम भाव कर्म का विपाक और कर्म का प्रदेश यह दोनों प्रकारों के उदय का उपशम करने से औपशमिक भाव होता है। वह औपशमिक सम्यक्त्व आदि है और सादि सांत होता है। । औपशमिक भाव के दो भेद है सम्यक्त्व और चारित्र ।
मिश्र भाव उदय में आये हुए कर्म के क्षय से और उदयमें नहीं आये कर्म के उपशम से बने हुए भाव को मिश्र यातो क्षायोपशमिक भाव कहते है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान यह चार ज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान । चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन यह तीन दर्शन, देशविरति, सर्वविरति, क्षयोपशम सम्यक्त्व, उपरोक्त दानादि पांच प्रकार की लब्धि यह अठारह क्षायोपशमिक भाव है। वह काल से सादि सांत है। अभव्य जीवों को अनादि अनंत है।
उदय भाव शुभ और अशुभ प्रकृतिका विपाक से अनुभव करना उदय कहलाता है। उदय से निष्पन्न भाव को औदयिक भाव कहते है। अपनी अपनी गति में वर्तमान नरकगति आदि नामकर्म की प्रकृति औदयिक भाव में है। वह सादि सांत होती है। मिथ्यात्व ज्ञानावरण आदि भव्य जीवों को अनादि सांत औदयिक भाव है और वही अभव्यों के लिये अनादि अनंत औदयिक भाव है।
पारिणामिक भाव परि उपसर्ग का अर्थ है - चारो और से, नामन पद का अर्थ है - जीवका जीवके रूप में होने के लिये सज्ज होना, अजीव का अजीव के रूप में होने के लिये सज्ज होना। सभी तरह से द्रव्य का अपने स्वरूप में होने के लिये सज्ज होना परिणाम है। परिणाम से निष्पन्न भाव को पांचवा पारिणामिक भाव कहते है। पुद्गलास्तिकाय में द्व्यणुकादि पारिणामिक भाव है। पुद्गल मूल द्रव्य है उसका पर्याय द्व्यणुकादि स्कंध है। पुद्गल परिणत होकर द्व्यणुक होता है अतः द्व्यणुक पारिणामिक भाव है। पुद्गलका पारिणामिक भाव सादि सांत है। भव्यत्व भव्य जीवों का पारिणामिक भाव है। वह अनादि अनंत है। भव्यत्व का अर्थ है - सिद्धिगमन योग्यता । यह जीव द्रव्यका अनादि पारिणामिक भाव है, जीव दो प्रकार के होते है। जिनमें मोक्षमें जाने की स्वाभाविक योग्यता होती है। वह 'भव्य' है। जिनमें मोक्षमें जाने की स्वाभाविक योग्यता नही होती है वे 'अभव्य' है। भव्यत्व रूप योग्यता कर्म या किसी अन्य कारण से जन्य नहीं अतः अनादि है। जब जीव मोक्ष प्राप्त करता है तव भव्यत्व नामक योग्यता परिवर्तित होकर सिद्धत्व भाव प्राप्त होता है। अतः भव्यत्व सांत है।
सान्निपातिक भाव- उपरोक्त क्षायिकादि पांच भावों के संयोग से सान्निपातिक भाव बनता है। उसके छब्बीस भेद होते है। दो भावों के संयोग से, तीन भावों के संयोग से, चार भावों के संयोग से, पांच भावों के संयोग से सन्निपातिक भाव बनता है । सन्निपातिक भावमें एक साथ कितने भाव होते है उसका विचार किया जाता है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक यह पांच भाव है। इन पांच में से दो भावों के
१. उदय का अर्थ है कर्म का फल देने के लिये उन्मुख होना, सक्रिय होना, जागृत होना। कर्म उदय में आता है तो उसे प्रकार से जाना जाता है कर्मके प्रदेश के साथ रस भी उदय में आता है। वह विपाकोदय है और रस के बिना सिर्फ कर्म के प्रदेश का उदय प्रदेशोदय है। प्रदेशोदय में आये हुए कर्म की फल देने की ताकत नहीं के बराबर होती है। विपाकोदय से आये हुए कर्म की फल देने की ताकत पूर्ण होती है।
२. मिथ्यात्व मोहनीय उदय से सहचरित मतिश्रुत और अवधि को क्रमशः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और विभंगज्ञान कहते है।