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दसवां अनुयोग द्वार
अनुयोग का अर्थ है सूत्र और अर्थ का संबंध सूत्र शब्दात्मक होते है और एक शब्द के अनेक यावत् अनंत अर्थ होते है। प्रस्तुत शब्द-सूत्र का कौनसा अर्थ अभिप्रेत है यह अनुयोग से निश्चित होता है। अनुयोगद्वार नाम के आगम में अनुयोग को चार द्वारों के द्वारा विस्तृत रूपसे विवरण किया है। प्रत्येक शब्द का शब्दार्थ उपरांत फलितार्थ होता है जो पूरे संदर्भ से प्रगट होता है। आगम सूत्रो के फलितार्थ चार होते है- द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग।
द्रव्यानुयोग-जिस सूत्र के द्वारा द्रव्य की जानकारी मिलती है। अर्थात् द्रव्यों का तटस्थ युक्तिसंगत निरूपण जिस सूत्र का विषय होता है उसे द्रव्यानुयोग कहते है। राजप्रश्नीय, नंदी,अनुयोगद्वार आदि सूत्र द्रव्यानुयोग के आगम
चरणकरणानुयोग-जो सूत्र आचार की प्रेरणा देता है, आचार की विधिप्रक्रिया दर्शाता है, अतीचार और आलोचना का बयान देता है वह चरणकरणानुयोग है। आचारांग-निशीथसूत्र-बृहत्कल्प वगैरह सूत्र चरणकरणानुयोग के आगम है।
गणितानुयोग-जिसमें गाणितिक प्रक्रिया प्रधान है उसे गणितानुयोग कहा जाता है। चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति वगैरह गणितानुयोग के आगम हैं।
-जिसमें ऐतिहासिक या अनैतिहासिक पात्र के द्वारा धर्मकी प्रेरणा मिलती है वह धर्मकथानुयोग है। ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्ददशा, विपाकसूत्र वगैरह धर्मकथानुयोग के आगम है। विवाहप्रज्ञप्ति = भगवती सूत्र वगैरह सूत्र में चारों अनुयोगकी बाते है। आ.श्री आर्यरक्षित सू. से पहले प्रत्येक सूत्र के चार फलितार्थ होते थे। अनुयोगधर आचार्य या वाचक प्रत्येक सूत्र के चारों अर्थ शिष्य को प्रदान करते थे उसे अपृथक्त्वानुयोग कहा जाता था। लेकिन बुद्धिबल क्षीण होने से आ.श्री. आर्यरक्षित सू. ने चारों अर्थों को अलग दिया तब से वह पृथक्त्वानुयोग हुआ। ग्यारहवां क्षेत्र द्वार
क्षेत्र का अर्थ है आकाशखण्ड। क्षेत्र दो प्रकारका है देशगत और सर्वगत। मर्यादित क्षेत्र में अभिव्याप्त पदार्थ का क्षेत्र देश से होता है, जैसे घटका क्षेत्र जितने आकाश प्रदेश में यह अभिव्याप्त है उतना ही होगा। सर्व लोकाकाश में व्याप्त धर्मादिका क्षेत्र सर्वगत है।
प्रारंभिक गाथाओं में प्रस्तुत ग्रंथ के प्रधान ११ विषयों के उत्तर द्वारों का कथन किया है। जिसे हम विभागग्रंथ के रूप में पहचान सकते है। इससे आगे यही ११ द्वार के उत्तर द्वारों का विशेष विवरण प्रस्तुत है। जिसे हम परीक्षाग्रंथ कह सकते है।
-वैराग्यरतिविजय श्रुतभवन, पुणे, ८.१.१५