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अष्टमं परिशिष्टम्
तथा केटलाक परमेश्वरनी लीला कहे छे ते लीला तो अजाण अधूरो तथा जेने पोतानो आनंद पोता पासे न होय ते करे, पण जे संपूर्ण चिदानंदघनतेने लीला होय ज नहीं।
धर्माधर्मौ विना नाग, विनाङ्गेन मुखं कुतः ।
मुखं विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथम्? ॥ (वी.स्तो.७.१)
अने मीमांसादिक पांच भूत कहे छे। तेमां पण चार भूत तो जीवपुद्गलना संबंधे उपना छे, अने आकाश ते लोकालोक भिन्नद्रव्
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[६] तत्र पञ्चानां प्रदेशपिण्डत्वाद् अस्तिकायत्वम् । कालस्य प्रदेशाभावाद् अस्तिकायता नास्ति तत्र काल उपचारत एव द्रव्यं न वस्तुवृत्त्या ।
[६] अर्थ- ए रीते असत्य प्ररूपणानुं निराकरण करी आगमनी साखे कार्यादिकने अनुमाने द्रव्य छ रे छे, माटे तेहिज मानवा। तेमां पांच द्रव्य सप्रदेशी छे, ते प्रदेशना पिंडपणा माटे अस्तिकायपणो पांच द्रव्यने छे। अने छठ्ठो कालद्रव्य तेने प्रदेश नथी ते माटे अस्तिकायता नथी।
तिहां काल ते मुख्यवृत्तियें द्रव्य नथी, उपचारथी द्रव्य कहेवाय छे। जेम वस्तुगते धर्मास्तिकायादिक द्रव्य छे तेम काल द्रव्य नथी। जो ए कालने पिंडरूप द्रव्य मानियें तो एनो मान किहां छे? जो मनुष्यक्षेत्रमां काल द्रव्य मानियें तो बाहिरना क्षेत्रमा नवापुराणादि तथा उत्पाद व्यय कोण करे छे? अने जो चौदराजलोकमां व्यापी मानीयें, तो असंख्यातप्रदेश मानवा जोहवें अने प्रदेश मानवे करी अस्तिकाय थाय, अने जो रेणुंक असंख्याता मानियें, तो लोकप्रदेश प्रमाण रेणुक थाय ते वारें असंख्याता काल द्रव्य थाय। ते तो नं द्रव्य मान्यो छे माटे ए कालने पंचास्तिकायना वर्तनारूप पर्यायने आरोपे द्रव्य मानियें। केमके अस्तिकायता नथी । अने सर्वमां वर्तना करे ए पक्ष सत्य छे। जे आगमने विषे ठाणांगसूत्रना आलावामां छे
किं भंते! अद्धासमयेति वच्चत्ति? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव ।
एटले काल ते जीव तथा अजीवनो वर्तमानपर्याय छे, तेना उत्पाद व्ययरूप वर्तनाने काल कह्यो छे, ते कालने अजीव द्रव्यमां गण्यो तेनो आशय ए छे जे जीव वर्तनाथी अजीववर्तना अनंतगुणी छे ते बहुलता माटे कालने अजीव गवेष्यो छे केमके कालनी वर्तना अजीव उपर अनंती छे अने जीव उपर तेथी थोडी के माटे।
तथा विशेषावश्यकभाष्यमध्ये
न पश्यति क्षेत्रकालावसौ तयोरमूर्त्तत्वाद्, अवधेश्च मूर्तिविषयत्वात् वर्त्तनारूपं तु कालं पश्यति द्रव्यपर्यायत्वात्तस्येति ।
तथा बावीसहजारीमध्ये
तथा कालस्य वर्तनादिरूपत्वात् पर्यायत्वाद्, द्रव्योपक्रम उपचारात् ।
तथा भगवत्यंगे १३ तेरमा शतक मध्ये इहां पुगलवर्त्तनानी अपेक्षाये कालने रूपी गवेष्यो छे ।
[७] तत्र गतिपरिणतानां जीवपुद्रलानां गत्युपष्टम्भहेतुर्धमस्तिकायः स चासङ्ख्येयप्रदेशलोकप्रदेश- परिमाणः ।
[७] अर्थः-हवे पंचास्तिकायनुं भिन्न भिन्न लक्षण कहे छे । जे गति परिणामीपणे परिणम्या जीव तथा पुद्गल तेने गतिना ओठंभानो हेतु ते धर्मास्तिकाय द्रव्य कहियें । ते धर्मास्तिकाय असंख्याता प्रदेश परिमाण छे। लोकमां व्यापी छे, लोकमान छे, लोकना एक एक प्रदेशे धर्मास्तिकायनो एक एक प्रदेश ते अनंत संबंधीपणे छे। ए धर्मादि त्रण द्रव्य अचल, अवस्थित, अक्रिय छे।
[८] स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टम्भहेतुरधर्मास्तिकायः, स चासङ्ख्येयप्रदेशलोक-परिमाणः।
[८] अर्थ: स्थितिपणे परिणम्या जे जीव तथा पुद्गल तेने स्थितिना ओभानो हेतु ते अधर्मास्तिकाय द्रव्य कहियें। ते पण लोक परिमाण असंख्य प्रदेशी छे ।
[९] सर्वद्रव्याणां आधारभूतः अवगाहकस्वभावानां जीवपुद्गलानां अवगाहोपष्टम्भकः आकाशास्तिकायः । स चानन्तप्रदेशो लोकालोकपरिमाणः । यत्र जीवादयो वर्तन्ते स लोकोऽसङ्ख्यप्रदेशप्रमाणः ततः परमलोक: १. समया ति वा आवलिया ति वा जीवा ति या अजीवा ति या पवुच्चति । (स्था.सू.१०६ अ.२.उ.४)