Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 186
________________ १५२ स्याद्वादपुष्पकलिका सर्वमां छे ए अवांतर सामान्य ते चक्षुदर्शने तथा अचक्षुदर्शनि ग्रहवाय अने अस्तित्व- वस्तुत्वादि सामान्य ते अवधिदर्शने तथा केवलदर्शने ग्रहवाय अने विशेष धर्म ते ज्ञान गुणेज ग्रहवाया हवे विशेषनुं लक्षण कहियें छीए। कोइक धर्मे नित्य, कोइक धर्मे अनित्य, कोइक रीतें अवयव सहित, कोइक रीतें अवयव रहित, अविभाग पर्यायें सावयव, सामर्थ्य पर्यायें निरवयव, पण सक्रियता हेतु देशगात जे गुण ते गुणांतरमां व्यापता नथी। ते माटे देशगत गुण हो आखा द्रव्यमां व्यापकज होय तेने सर्वगत कहियें। तो एवा जे धर्म ते सर्व विशेष जाणवा । पदार्थना गुणनी प्रवृत्ति ना कारण ते विशेष स्वभाव। जे कार्य करे ते गुणने पण विशेष धर्मज गणवो। जे सामान्य ते विशेष रहित नथी अने जे विशेष ते सामान्य रहित नथी। [१४] ते मूलसामान्यस्वभावाः षट्। ते चामी (१) अस्तित्वम्, (२) वस्तुत्वम्, (३) द्रव्यत्वम्, (४) प्रमेयत्वम् (५) सत्त्वम् (६) अगुरुलघुत्वम्। तत्र (१) नित्यत्वादीनामुत्तरसामान्यानां पारिणामिकत्वादीनां निःशेषस्वभावानाम् आधारभूतधर्मत्वम् अस्तित्वम्। (२) गुणपर्यायाधारत्वं वस्तुत्वम्। (३) अर्थक्रियाकारित्वं द्रव्यत्वं अथवा उत्पादव्यययोर्मध्ये उत्पादपर्यायाणां जनकत्वप्रसवस्याविर्भावलक्षणव्ययीभूतपर्यायाणां तिरोभाव्यभावरूपायाः शक्तेराधारत्वं द्रव्यत्वम्। (४) स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणं, प्रमीयते अनेनेति प्रमाणम्, तेन प्रमाणेन प्रमातुं योग्यं प्रमेयम्, ज्ञानेन ज्ञायते तद्योग्यतात्वं प्रमेयत्वम्। (५) उत्पादव्ययध्रुवयुक्तं सत्त्वम्। (६) षड्गुणहानिवृद्धिस्वभावा अगुरुलघुपर्यांयास्तदाधारत्वम् अगुरुलघुत्वमेते षट्स्वभावाः सर्वद्रव्येषु परिणमन्ति तेन सामान्यस्वभावाः । [१४] अर्थः- ते मूल सामान्यना छ भेद छे। ते सर्व द्रव्यमां व्यापकपणे छे। १) अस्तित्व, २) वस्तुत्व, ३) द्रव्यत्व, ४) प्रमेयत्व ५) सत्त्व, ६) अगुरुलघुत्व ए छ मूल स्वभाव छे ते सर्व द्रव्य मध्ये परिणामिकपणे परिणमे छे। ए धर्मने कोइनो सहाय नथी । तत्र कहेता तिहां १) सर्व द्रव्यने विषे उत्तर सामान्य स्वभाव नित्यत्व-अनित्यत्वादिक तथा विशेष स्वभाव ते परिणामिकत्वादिक तेनो आधारभूतधर्म ते धर्मने तीर्थंकरदेव सामान्य स्वभाव अस्तित्वरूप कहे छे, तथा २) गुणपर्यायनो आधारवंत पदार्थ तेने वस्तुत्व कहियें, अने ३) । अर्थ जे द्रव्य तेनी जे क्रिया, जेम धर्मास्तिकायनी चलनसहाय क्रिया, अधर्मास्तिकायनी थिरसहाय क्रिया, आकाश द्रव्यनी अवगाहरूप क्रिया, जीवनी उपयोग लक्षण क्रिया तथा पुलनी मिलवा विखरवारूप क्रियानो करवापणो एटले जे पर्यायनी प्रवृत्ति ते अर्थक्रिया अने अर्थ क्रियानो आधारी धर्म तेने श्री सर्वज्ञदेवें द्रव्यत्वपणो कह्यो छे। वली द्रव्यत्वपणानुं लक्षणांतर कहे छे-उत्पादपर्यायनी जे प्रसवशक्ति एटले आविर्भाव लक्षण जे शक्ति तेना व्ययीभूत पर्याय तिरोभाव थयो अथवा अभाव थवा रूप शक्तिनो जे आधारभूत धर्म तेने द्रव्यत्व कहियें। ४) स्व कहेता पोते आत्मा अने पर कहेता पुद्गलादिक धर्मास्तिकायादिक अन्य द्रव्य तेने यथार्थपणे जाणे ते ज्ञान कहीयें । ते ज्ञान पांच भेदें छे। ते ज्ञानना उपयोगमां आवे एवी जे शक्ति तेने प्रमेयत्वपणो कहिये। ते प्रमेवपणो सर्व द्रव्यनुं मूल धर्म छे। प्रमाणमां वसाव्यो जे वस्तु तेने प्रमेयपणो कहियें। ते सर्व गुण पर्याय प्रमेय छे अने आत्मानो ज्ञानगुण तेमां प्रमाणपणो तथा प्रमेयपणो ए बे धर्म छे। पोतानो प्रमाणपणो ते पोतेज करे छे, दर्शनगुणनो प्रमाण ज्ञानगुण करे छे, केमके दर्शनगुण ते विशेष छे। जे सावयव होय ते विशेषज होय । जे विशेष होय ते ज्ञानथीज जणाय । दर्शनगुण ते सामान्य धर्मनो ग्राहक छे, ते पण प्रमाण कहेवाय । पण प्रमाणना भेद ह्या छे ज्ञानज ग्रह्युं छे। तेनुं कारण जे दर्शनोपयोग ते व्यक्त पडतो नथी ते माटे प्रमाण मध्ये गवेष्यो नथी। ते प्रमाणना मूल बे भेद छे-एक प्रत्यक्ष अने बीजो परोक्षा स्पष्टं प्रत्यक्षं परोक्षमन्यद इति स्याद्वादरत्नाकरवाक्यात्। ५) उत्पाद कहेता उपजवो व्यय कहेता विणसवो ध्रुव कहेता नित्यपणो वस्तुना एक गुणमां एक समये ए त्रणे परिणा

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