Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 185
________________ अष्टमं परिशिष्टम् १५१ [१२] पञ्चास्तिकायानां परत्वापरत्वे नवपुराणादिलिङ्गव्यक्तवृत्तिवर्तनारूपपर्यायः कालः; अस्य चाप्रदेशिकत्वेन अस्तिकायत्वाभावः। पञ्चास्तिकायान्तर्भूतपर्यायरूपतैवास्य। ___एते पञ्चास्तिकायाः। तत्र धर्माधर्मी लोकप्रमाणासङ्ख्येयप्रदेशिको, लोकप्रमाणप्रदेश एव एकजीवः। एते जीवा अप्यनन्ताः। आकाशो हि अनन्तप्रदेशप्रमाणः, पुद्गलपरमाणुः स्वयमेकोऽपि अनेकप्रदेशबन्धहेतुभूतद्रव्य- युक्तत्वाद् अस्तिकायः। कालस्य उपचारेण भिन्नद्रव्यता उक्ता। सा च व्यवहारनयापेक्षया आदित्यगतिपरिच्छेद-परिमाणः कालः समयक्षेत्रे एव। एष व्यवहारकालः समयावलिकादिरूप इति।। [१२] अर्थ- हवे काल द्रव्यनुं लक्षण कहे छ। जे पंचास्तिकायने परत्वे अपरत्वे ए लिंगे तथा पुद्गल खंधने नव पुराणपणे व्यक्त कहेता प्रगट छे, वत्ति कहेता प्रवृत्ति तेने वर्तना कहिये ते वर्तनारूप पर्याय तेने काल कहिये। एने प्रदेश नथी ते माटे अस्तिकायपणो नथी। ए काल ते पंचास्तिकायने विषे अंतर्भूतपर्याय परिणमन छे, जाते धर्मास्तिकायादिकनो पर्याय छे एम तत्त्वार्थवृत्तिने विषे कह्यो छ। ___ तिहां धर्मास्तिकाय एक द्रव्य छे, असंख्यात प्रदेशी छे, लोकाकाशना प्रदेश प्रमाण छ। एम अधर्मास्तिकाय पण एक द्रव्य छे, लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी छ। अनेक जीवद्रव्य ते पण लोकप्रमाण अंसख्यात प्रदेशी छे पण स्व अवगाहना प्रमाण व्यापक छ। ते जीव द्रव्य अनंता छ। अकृत सदा छता अखंड द्रव्य छे, सच्चिदानंदमयी छे। पण परपरिणामी थवे पुद्गलग्राहक, पुद्गलभोगी थवव प्रतिसमये नवा कर्म बांधवे संसारी थया छ। तेहिज जे वारें स्वरूपग्राहक, स्वरूपभोगी थाय तेवारे सर्वकर्म रहित थइ परमज्ञानमयी, परमदर्शनमयी, परमानंदमयी, सिद्ध, बुद्ध, अनाहारी, अशरीरी, अयोगी, अलेशी, अनाकारी, एकांतिक, आत्यंतिक, निःप्रयासी, अविनाशी, स्वरूपसुखनो भोगी, शुद्ध, सिद्ध थाय ते माटे अहो! चेतन! ए पर भाव अभोग्य सर्व जगतना जीवनी एठ तेनो भोगववापणो तजी स्वभाव भोगीपणानो रसीयो थइ स्वस्वरूप निर्धार, स्वरूप भासन, स्वरूप रमणी थइ पोताना आनंदने प्रगट करीने निर्मल था। तथा आकाश द्रव्य ते लोकालोक मिलि एक द्रव्य छे, अनंत प्रदेशी छ। अने पुद्गल द्रव्य ते परमाणु रूप छे केमके परमाणु अनंता छे माटे अनंता द्रव्य छ। इहां कोइ पुछे जे प्रदेशना संबंध विना परमाणु द्रव्यने अस्तिकाय किम कह्यो छे? तेने उत्तर जे परमाणु तो एक प्रदेशी छे पण अनंता परमाणुथी मिलवाना जे कारण ते आ द्रव्य तेणे युक्त छे, ते योग्यता माटे अस्तिकाय कह्यो छे। तथा काल द्रव्यने उपचारें भिन्न द्रव्यपणो कह्यो छे ते व्यवहारनयनी अपेक्षायें। जे मनुष्य क्षेत्रने विषे सूर्यनी गतिने परज्ञाने एटले समयावलिकादिरूप परिमाणे जे मान तेने व्यवहारथी काल कहियें इति। ए काल मुख्य वृत्तियें तो समयक्षेत्र मध्ये छे अने मनुष्य क्षेत्रथी बाहेर जे जीवो छे तेना आयुष्य पण एज क्षेत्र प्रमाणे सर्वज्ञ देवें कह्या छ। तथा सूर्यनो चार ते पण जीव पुद्गलनुं प्रवर्तन छे कारण के सूर्य ते पण जीव तथा पुद्गल छे। एटले ए काल द्रव्य ते कालपणे भिन्न पिंडपणे ठेो नही; उपचारेंज ठेर्यो एम मानवो। इहां कोइ कहे जे-एक एक द्रव्यने विषे अनेक अनेक पर्याय छे ते कोइ पर्यायने द्रव्यपणो न कह्यो अने एक वर्तना पर्यायने विषे द्रव्यनो आरोप शा माटे कर्यो? तेने उत्तर-ए वर्तना परिणति ते सर्व पर्यायने सहकारी छे अने सर्व द्रव्यने छ। तेथी मुख्य पर्याय छे माटे एने द्रव्यनो आरोप छे ते पण अनादि चाल छ। [१३] एते पञ्चास्तिकायाः सामान्यविशेषधर्ममया एव। तत्र सामान्यतः स्वभावलक्षणं द्रव्यव्याप्यगुणपर्यायपकत्वेन परिणामिलक्षणं स्वभावः, तत्र एक नित्यं निरवयवं अक्रियं सर्वगतं च सामान्यम्। नित्यानित्य-निरवयवसावयवः सक्रियताहेतुर्देशगतः सर्वगतं(तः) च विशेषपदार्थगुणप्रवृत्तिकारणं विशेषः। न सामान्यं विशेषरहितम्, न विशेषः सामान्यरहितः॥ [१३] अर्थः- हवे ए पंचास्तिकाय ते सामान्यविशेष धर्ममयी छे। ते सामान्य, लक्षण विशेषावश्यकें का छे। तिहां प्रथमथी स्वभाव, लक्षण कहे छ। जे द्रव्यने विषे व्यापतो होय तथा गुणपर्यायमां पण व्यापकपणे सदा परिणमतो थको पामियें तेने सामान्य स्वभाव कहिये। ते सामान्य स्वभाव जे होय ते एक होय तथा नित्य अविनाशी होय तथा निरवयव कहेता जेहने अविभाग रूप अवयव न होय अने सर्वगत कहेता सर्वमा व्यापकपणे होय ते सामान्य स्वभाव कहिये। जीवादि द्रव्यने विषे एकपणो ते पिंडपणे छे ते सर्व द्रव्यने विषे छ। सर्व गुण पर्याय पोताने रूपें अनेक छे, पण ते समुदाय पिंडपणुं मूकीने जूदा थायज नही ते माटे ए रीते जे परिणमन होय ते सामान्य स्वभाव कहिये। ते सामान्यना बे भेद छ। अस्तितादिक जे सर्व पदार्थने विषे छे ते महा सामान्य कहिये। एनी श्रुतज्ञाने करी प्रतीत थाय पण प्रत्यक्ष तो अवधिदर्शन केवलदर्शनेज जणाय। परोक्षे न ग्रहवाय। तथा वृक्ष, अंब, निंब, जंबु प्रमुख व्यक्ति अनेक छे पण वृक्षत्व

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