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पर्यायास्तिक शब्दों से भी कहा जाता है।
नैगम नय-धर्म और धर्मि, दो धर्म तथा दो धर्मि में एक को प्रधान बनाकर दूसरे को गौण करके जो विवक्षा होती है वह नैगम नय है। दो पर्याय में एक पर्याय के मुख्यरूप से और दूसरे को गौण रूप से ग्रहण करनेवाला नय नैगम है। द्रव्य और पर्याय में किसी एक से मुख्यरूपसे और अन्य को गौणरूप से ग्रहण करनेवाला नय नैगम है। नैगम नय के बोध प्रकार अनेक है। अत एव उसका नाम नैकगम है।
संग्रह नय-सिर्फ सामान्य को ग्रहण करनेवाला परामर्श संग्रह है। सामान्यमात्र का अर्थ है – समग्र विशेष से रहित वस्तुके द्रव्यत्व, सत्त्व इत्यादि सामान्य धर्म। सामान्य धर्म को ग्रहण करनेवाला नय संग्रह है। संग्रह का उत्पत्तिलभ्य अर्थ यह है- सम् उपसर्ग का अर्थ है एक करके अर्थात् पिण्ड बनाके संग्रह करता है वह संग्रह नय है।
__ व्यवहार नय : जो अभिसन्धि अर्थात् अभिप्राय, संग्रह नय के विषय बने अर्थों का विधिपूर्वक अवहरण करता है वह व्यवहार नय है।
ऋजुसूत्र नय : ऋजु का अर्थ है वर्तमानक्षण स्थायि पर्याय। वर्तमान क्षण स्थायि पर्याय को ही प्रधानतया कहनेवाला नय ऋजुसूत्र है। ऋजु शब्द का दूसरा अर्थ है – सरल। अर्थात् वक्रता से रहित। वस्तु में भूतकाल या भविष्यकाल का बोध वर्तमान को मानबिंदु बनाकर ही होता है। वर्तमान प्रारंभ नहीं होता उससे पहेले का मोड भूतकाल है , वर्तमान के पूर्ण होने पर भविष्य का मोड चालु होता है अतः दोनो ही वक्र है। ऋजुसूत्र नय वक्रको = भूतकाल और भविष्यकाल को ग्रहण नहीं करता। वर्तमान काल सरल है अतः उसे ही ग्रहण करता है। द्रव्य सत् है फिर भी द्रव्य से कोई गण नहीं होता क्योंकि द्रव्य का ग्रहण उपचार की आधारपर होता है। भूतकाल और भविष्यकाल का उपचार करके ही व्यवहार संभव हो सकता है। भूत और भविष्यकाल तो असत् है। अतः ऋजुसूत्र द्रव्य को ग्रहण नहीं करता क्षणध्वंसि पर्यायों को प्रधानतया दिखाता है।
जो नय शब्द को प्रधानता देते है वे शब्दनय हैं। तीन शब्द नयों में प्रथम का नाम शब्दनय है। इसका दूसरा नाम साम्प्रतः नय भी है।
शब्द नय -शब्द नय शब्द के अर्थ को विभाजित करके ग्रहण करता है। जैसे कि काल बदलने पर शब्द का अर्थ बदल जाता है। एक ही शब्द काल का भेद होने पर भिन्न हो जाता है ऐसा शब्दनय का अभिमत है। जैसे भू धातू का अर्थ होना है। वर्तमान काल के प्रयोग में उसका भवति रूप होता है। भूतकाल में अभवत् रूप होता है। दोनों प्रयोग में धातु एक होने पर भी शब्दनय दोनों प्रयोग के धातु भी भिन्न है ऐसा मानता है।
समभिरूढ नय- पर्यायवाची शब्दों में व्युत्पत्ति और निरुक्ति में भेद होता है। उसके आधार पर अर्थ में भेद होता है। एक ही अर्थ के वाचक शब्द में व्युत्पत्ति निरुक्ति और भेद के आधार पर भिन्न अर्थ का अधिरोहण करनेवाले नय को समभिरूढ कहा जाता है। शब्दनय पर्यायवाची शब्दो में अर्थभेद नहीं मानता है। एक ही अर्थ को बतानेवाले अनेक शब्द, शब्द नयकी दृष्टि में हो सकते है। समभिरूढ नय की दृष्टि में नहीं हो सकते। उसके मत में पर्याय(वाची) शब्द बदलने पर अर्थ भी बदल जाता है। शब्द बदलने पर भी अर्थ तो एक ही रहता है यह पर्यायवाची शब्द के भेद की उपेक्षा करता है। जैसे शब्दनय पंकज और कुमुद दोनो शब्दों को एक ही अर्थ का वाचक मानता है। समभिरूढ नय पंकज शब्द और कुमुद शब्द को अलग अर्थ का वाचक मानता है क्योंकि दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति अलग है – पङ्के जायते इति पंकजम्। जो पंक में = दलदल में पैदा होता है वह पंकज है। यह पंकज पद की व्युत्पत्ति है। कौ = रात्रौ मोदते इति कुमुदम्। जो रात्रिमें खिलता है वह कुमुद है, यह कुमुद शब्द की व्युत्पत्ति है। दोनों के व्युत्पत्त्यर्थ में भेद है अतः दोनो भिन्न पदार्थ है यह समभिरूढ नय का अभिमत है।