Book Title: Syadvada Pushpakalika
Author(s): Charitranandi,
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ २७ व्यतिरेक संग्रह - इतर धर्मका निषेध करके बादमें विद्यमान समान धर्म को ग्रहण करना व्यतिरेक संग्रह है। जैसे जीव कहने पर अजीव का निषेध होता है और सभी जीव का संग्रह होता है। अनुगम संग्रह -सर्व व्यक्ति में अनुगत सामान्य होता है उसका प्रदिपादन करना अनुगम संग्रह है। जैसे आत्मा सत् और चित् नय है। यह धर्म सभी आत्मा में समान है। संगृहीत संग्रह- संगृहीत संग्रह का अर्थ है - सामान्य के अभिमुख करके संग्रह करना। पिंडित संग्रह -पिंडित संग्रह का अर्थ है - एक जाति में लाना जैसे आत्मा है। व्यवहार नय के भेद व्यवहारनय दो प्रकार का है - शुद्ध व्यवहार नय और अशुद्ध व्यवहार नय। उसमें भी शुद्धव्यवहारनय प्रकार का है— वस्तुगत शुद्ध व्यवहार नय और साधनाशुद्ध व्यवहार नय । अशुद्ध व्यवहार नय के भी दो प्रकार हैसद्भूत अशुद्ध व्यवहार नय और असद्भूत अशुद्ध व्यवहार नय। असद्भूत अशुद्धव्यवहार नय के भी दो प्रकार है— संश्लिष्ट असद्भुत अशुद्धव्यवहार नय और संलिष्ट असद्भूत अशुद्धव्यवहार नय संग्रह नय सामान्य ग्रहण करता है। व्यवहार नय उस सामान्य का विभाजन करके व्यवहार या प्रवृत्ति करता है। जैसे संग्रह नय की दृष्टि से द्रव्य एक है । व्यवहार नय उसका विभाजन करे तो ये द्रव्य दो है। फिर उसका व्यवहार करता है कि जीव और अजीव । उस आधार पर लोकप्रवृत्ति करता है। शुद्धव्यवहार नय में उपचार नहीं होता। वस्तुगत शुद्ध व्यवहार - वस्तु = द्रव्य के अपने अपने गुणों का प्रवर्तन। जैसे धर्मास्तिकाय का द्रव्य को गति में सहकार करना, अधर्मास्तिकाय का स्थिरता में सहकार करना, जीव का ज्ञान करना इत्यादि व्यवहार का प्रवर्तन वस्तुगत शुद्ध व्यवहार नय से होता है। साधनशुद्ध व्यवहार नय : आत्मा के शुद्ध स्वरूप की सिद्धि में साधन जिस व्यवहार नय के विषय बनते है वह साधनशुद्ध व्यवहारनय है। गुणों की साधना, गुणश्रेणि में आरोहण इत्यादि । अशुद्ध व्यवहार नय में उपचार होता है। सद्भूत अशुद्ध व्यवहार नय: द्रव्यके वास्तविक गुण द्रव्य से अभिन्न है फिर भी उसका भेद करके व्यवहार करना। जैसे ज्ञान आत्मा का गुण है। यहां ज्ञान और आत्मा के बीच भेद प्रदर्शित किया है वह व्यवहार है। और ज्ञान आत्मा का गुण है यह सही है इसलीए सद्भूत व्यवहार है। भेदबुद्धि प्रधान होने से यह अशुद्धि है। असद्भूत अशुद्ध व्यवहार नय : गुण जिस द्रव्य का नहीं है उसे उस द्रव्य का बनाकर व्यवहार करता असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे भगवती सूत्र में आत्मा के आठ प्रकार बताये है उसमें कषायात्मा है। कषाय आत्मा का गुण नहीं है। यह कर्मजनित औदयिक भाव है फिर भी उसका आत्मा पर आरोपण असद्भूत व्यवहार नय से हुआ है। उसी तरह 'मैं मनुष्य हुं', 'देव हुं' इत्यादि बुद्धि असद्भूत अशुद्ध व्यवहार नय है। मनुष्यत्व देवत्व इत्यादि नाम कर्म के औदयिक भाव है। आत्मा के धर्म नहीं है। असद्भूत शुद्ध व्यवहार : जो द्रव्य के साथ जुडा हुआ है उसका आरोपण। 'मैं शरीर हूं', 'शरीर मेरा है' इत्यादि बुद्धि। यहां शरीर आत्मद्रव्य के साथ है उसका असद्भूत व्यवहार से आत्मा में आरोपण हुआ है। असंश्लिष्ट असद्भूत अशुद्धव्यवहार नय जो द्रव्य के साथ जुडा नहीं है फिर भी व्यवहार करना। जैसे पुत्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218