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परिचय
स्याद्वादपुष्पकलिका द्रव्यानुयोग का ग्रंथ है। जैन वाङ्मय को अर्थ की दृष्टि से चार विभागो में बांटा गया है। चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग। जिस सूत्र में आचार अर्थ प्रधान होता है वह सूत्र चरणकरणानुयोग कहा जाता है। जैसे ओघनिर्युक्ति, दशवैकालिक इत्यादि । जिस सूत्र में उपदेशपर धर्मप्रधान कथा होती है वह सूत्र धर्मकथानुयोग कहा जाता है। जैसे ज्ञाताधर्मकथांग, उवासगदसाओ इत्यादि । जिस सूत्र गणितसंख्या प्रधान होती है वह गणितानुयोग कहा जाता है। जैसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि। जिस सूत्र में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का विचार प्रधान होता है वह द्रव्यानुयोग कहा जाता है। जैसे राजप्रश्नीय, नंदी, अनुयोगद्वार आदि। जैन दर्शन के अनुसार इस लोक में छह मूलभूत द्रव्य है । द्रव्य का अर्थ है वह निराकार (Formless) पदार्थ जो साकार में (in form) बदलता है। सत् पदार्थ के दो अंश होते है। एक अंश अपरिवर्तनशील होता है और दूसरा निरंतर परिवर्तनशील होता है। अपरिवर्तनशील अंशको द्रव्य कहते है और परिवर्तनशील अंश को पर्याय कहा जाता है। हमेशा द्रव्य के साथ रहनेवाला पर्याय गुण कहा जाता है और गुण के पर्याय को पर्याय कहा जाता है। जैसे ज्ञान आत्मा का अविनाभावि पर्याय होने से गुण है और घटज्ञान उसका पर्याय है। गुण और पर्याय से सहित सत् पदार्थ को 'द्रव्य' कहा जाता है।
यह विश्व पर्यायों का महासागर है। जिस तरह समंदर में अनंत लहर उठती है और विलीन होती है फिर भी समंदर समंदर ही रहता है। उसी तरह प्रत्येक द्रव्य पर्यायों की अनंत लहरों का आश्रय है।
इस विश्व में मूलभूत छह द्रव्य है। छहों द्रव्य गुण और पर्याय को धारण करते है। द्रव्य के मूलभूत स्व और विश्व व्यवस्था के संबंध में उनके प्रधान की चर्चा द्रव्यानुयोग में होती है। स्याद्वादपुष्पकलिका का प्रधान विषय यही है। द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ क्या संबंध है? द्रव्य का अपने गुण और पर्याय के साथ क्या संबंध है? पर्याय का अन्य पर्यायों के साथ क्या संबंध है? इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने हेतु द्रव्य के भीतर उतरना जरूरी है।
स्याद्वादपुष्पकलिका में छह द्रव्यों के विषय में निरूपण किया है। यहां यह ज्ञातव्य है कि जिस ग्रंथ में केवल पदार्थ निरूपण हो वह ग्रंथ नहीं कहा जाता, अपितु पदार्थों का उद्देश, लक्षण और परीक्षा किये जाते है वह ग्रंथ होता है। स्याद्वादपुष्पकलिका इस अर्थ में तर्कप्रधान ग्रंथ है। जैन शैली में पदार्थ का निरूपण द्वारों के माध्यम से किया जाता है। अति प्राचीन समय से अर्थात् आगमयुग से जैन ग्रंथ रचनाशैली द्वार प्रधान रही है। एक विषय को अनेक पहलू से सोचने के लिये ग्रंथकार विचारणीय वस्तुका विभाजन करते है। इस विभाजन को द्वार कहते है । इस ग्रंथ में छह द्रव्यों के विषय में ग्यारह विचारणीय वस्तु है। फिर एकएक द्वार में पुन: विचार विभाजन होता है । उसे उत्तरद्वार कहते है। इस तरह ग्रंथ में विषय विस्तार होता है। जैन ग्रंथों में विषयनिरूपण की यह परंपरा आगम कालीन है।
स्याद्वादपुष्पकलिका में छह द्रव्यों के उनके गुण और पर्याय के वर्तन में ग्यारह मूलद्वार बतायें गये हैं।
(१) लक्षण (२) गुण (३) पर्याय (४) स्वभाव (५) अस्ति (६) नय (७) प्रमाण (८) भाव (९) जीव (१०) अनुयोग (११) क्षेत्र
उपाध्यायश्री चारित्रनंदी ने १ से ४५ श्लोक पर्यंत एकादश द्वारों के उत्तर द्वारों के प्रकार प्रस्तुत किये है। पश्चात् क्रमशः सभी द्वारों का विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है। चतुर्थ परिशिष्ट में स्याद्वादपुष्पकलिका में वर्णित ग्यारह द्वारों के विषय कोष्टकाकार में प्रस्तुत किये है।