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१३. पंच ज्ञान पूजा, पूजा, हिन्दी, १९वीं, मुद्रित, जिन पूजा महोदधि, हस्तप्रत- विनयसागर. प्रतिलिपि १४. समवसरण पूजा, पूजा, प्राचीन हिन्दी, १९१...खम्भात, अप्रकाशित, हस्तप्रत- नाहर संग्रह कलकत्ता
१५. नवपद चैत्यनंदन स्तवन स्तुति, गीत स्तवन, प्राचीन हिन्दी, २०वीं, मुद्रित, हस्तप्रत- हरिसागरसूरि ज्ञानभंडार, पालीताणा
पूजा साहित्य में चारित्रनन्दी ने इक्कीस प्रकारी पूजा, पंचज्ञान पूजा, एकादशअंग पूजा, चतुर्दशपूर्व पूजा एवं समवसरण पूजा आदि ऐसे अछूते विषयों को छुआ है जिन पर सम्भवतः आज तक किसी ने लेखनी नहीं चलाई है।
मेरे समक्ष प्रदेशी चरित्र, पंचकल्याण पूजा, पंचज्ञान पूजा और इक्कीस प्रकारी पूजा-चार कृतियाँ है। अतः इन चारों कृतियों के आधार पर ही उनकी गुरु परम्परा और उनके दीक्षान्त नामों पर विचार किया जाएगा।
कवि ने अपनी पूर्व गुरु परम्परा देते हुए प्रदेशी चरित्र में लिखा है:श्रीमत्कोटिकसद्गणेन्दुदुकुलश्रीवज्रशाखान्तरे मार्तण्डर्षभसन्निभः खरतरव्योमाङ्गणे सूरिराट्। श्रीमच्छ्रीजिनराजसूरिरभवठ्ठीसिंहपट्टाधिपः श्रीजैनागमत्त्वभासनपटुः स्याद्वादभावान्वितः॥३३॥ तत्पादाम्बुजहंसरामविजयः संविग्न सद्वाचकोऽभूज्जैनागमसागरप्रमथनैस्तत्त्वामृतस्वीकृतः। तद्वैनेयसुवाचको गुणनिधिः श्रीपद्महर्षोऽभवत् यः संविग्नविचारसारकुशलः पद्मोपमो भूतले॥३४॥ तच्छिष्यः सुखनन्दनो मतिपटुः सद्वाचको विश्रुतस्तत्त्वतत्त्वविचारणे पटुतरोऽभूत्तत्त्वरत्नोदधिः। तद्वैनेयसुवाचकोऽब्धिजनकाद्वादीन्द्रचूडामणिनिध्यानसुरङ्गरङ्गत(ता)दृशोऽभूदात्मसंसाधकः॥३५॥ तत्पट्टे महिमाभिधस्तिलकयुक् सद्वाचकोऽभूद्वरः शिष्याणां हितकारको मुनिजनाच्छिक्षाप्रवृत्तौ पटुः। तत्पट्टे कुमरुत्तरो मुनिवरोपाध्यायचित्राभिधः ख्यातोऽभूद्धरणीतले शमयुतो ब्रह्मक्रियायां रतः॥३६॥
दीक्षा ग्रहण के पश्चात् नाम परिवर्तन में नन्दी का प्रयोग लगभग ८ शताब्दियों से चला आ रहा है। वर्तमान संविग्न परम्परा के साधुजनों में यह नन्दी परम्परा लुप्त होकर एक नन्दी पर आश्रित हो गई है। जैसे खरतरगच्छ में गणनायक सुखसागरजी के समुदाय में सागर नन्दी का ही प्रयोग होता आ रहा है। पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज के समुदाय में मुनि नन्दी का प्रचलन है और श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी म. के समुदाय में सागर नन्दी का प्रयोग था। था इसलिए कि वह परम्परा अब निःशेष हो गई है। हालांकि श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रथम नन्दी चन्द्र की स्थापना करके तिलोकचन्द नामकरण किया था, किन्तु समुदाय की अभिवृद्धि न देखकर उन्होंने सागर नन्दी का ही आश्रय लिया।
खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची में (जो कि बीकानेर बडी गद्दी, आचार्य शाखा और जिनमहेन्द्रसूरि मण्डोवरी शाखा का) इन नामों का उल्लेख न होने से स्वयं संदेहग्रस्त था कि यह परम्परा जिनराजसरि परम्परा, जिनसागरसूरि परम्परा और जिनमहेन्द्रसूरि की परम्परा में नहीं थे किन्तु किस परम्परा के अनुयायी थे यह मेरे लिए प्रश्न था। किन्तु पंचकल्याणक पूजा में कवि ने स्वयं यह उल्लेख किया है:
श्रीअक्षयजिनचन्द्रं पंचकल्याणयुक्तं सुनिधिउदयवृद्धिं भावचारित्रनन्दी। भवजलधितरण्डं भक्तिभारैः स्तुवंति अविचलनिधिधामं ध्याययन्प्राप्नुवन्ति॥१॥ गणाधीशौदार्यो गुणमणिगणानां जलनिधिः, गभीरोभूच्छ्रीमान्प्रवरजिनराजाक्षगणभृत्। सूरीन्द्रस्तत्पट्टे धुमणिजिनरङ्गः सुरतरुः, बृहद्गच्छाधीशो खरतरगणैकाम्बुजपति॥२॥