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क्रमादायातं श्रीजिनअक्षयसूरीन्द्रगणभृदभून्नृणां तापं तदुपशमनं पूर्णशशिभृत्। गभस्तिस्तत्पट्टे भविकजसुबोधैकरसिको भुवौ विख्यातं श्रीप्रवरजिनचन्द्रो विजयते॥३॥
अर्थात् जिनराजसूरि के पश्चात् शाखाभेद होकर जिनरंगसूरि शाखा का उद्भव हुआ। जिनरंगसूरि परम्परा में श्रीजिनाक्षयसूरि के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में यह पूजा रची गई। चारित्रनन्दी की परम्परा जिनरंगसूरि शाखा की आदेशानयायिनी रही। इस शाखा की दफ्तरवही प्राप्त न होने से इस परम्परा के उपाध्यायों का दीक्षा काल का निर्णय नहीं कर सका।
१९वीं शताब्दी के अन्त में और २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में काशी में चारित्रनन्दी और जिनमहेन्द्रसूरि अनुयायी नेमिचन्द्राचार्य और बालचन्द्राचार्य जैन विद्वानों में विख्यात् थे अर्थात् इनका बोलबाला था। इसी समय के विजयगच्छीय उपाध्याय हेमचन्द्रजी का कलकत्ता में प्रौढ विद्वानों में स्थान था।
चारित्रनन्दी के शिष्य चिदानन्द प्रथम थे। जिनका प्रसिद्ध नाम कपूरचन्द था। वे क्रियोद्धार कर संविग्नपक्षीय साधु बन गए थे और उनका विचरण क्षेत्र अधिकांशतः गुजरात ही रहा। चिदानन्दजी प्रथम अच्छे विद्वान् थे, अध्यात्म ज्ञानी थे और उन्हीं पर उनकी रचनाएं होती थी। उनकी लघु रचनाओं का संग्रह श्री चिदानन्द (कर्पूरचन्द्रजी) कृत पद संग्रह (सर्व संग्रह) भाग१ एवं २ जो कि श्री बुद्धि-वृद्धि कर्पूरग्रन्थमाला की ओर से शा. कुंवरजी आनंदजी भावनगर वालों की ओर से संवत् १९९२ में प्रकाशित हुआ है। चिदानन्दजी प्रथम द्वारा निर्मित साहित्य के लिए देखें-खरतरगच्छ साहित्य कोश।
चारित्रनन्दी का बाल्यावस्था का नाम चुन्नीलाल होना चाहिए। काशी में इनका उपाश्रय ज्ञानभंडार भी था। जो चुन्नीजी के नाम से चुन्नीजी महाराज का उपाश्रय एवं भंडार कहलाता था। चारित्रनन्दी के पश्चात् परम्परा न चलने से उस चुन्नीजी के भण्डार को तपागच्छाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिजी महाराज काशी वालों ने प्राप्त किया और उसे आगरा में विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञान मन्दिर के नाम से स्थापित किया। प्रसिद्ध तपागच्छाचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज ने प्रयत्नों से उस विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमन्दिर, आगरा की शास्त्रीय सम्पत्ति को भी प्राप्त कर लिया जो आज श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा को सुशोभित कर रहा है।
[अनुसंधान अंक-३८]