Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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. श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000००००
अर्थ - जो स्वयं मोक्ष की तरफ जाता है और दूसरों को भी भेजता है उसे वीर कहते हैं तथा जो रागादि कर्म शत्रुओं को आत्मा से दूर करने में पराक्रम और पुरुषार्थ करता है उसे वीर कहते हैं।
संस्कृत में "शूर' 'वीर' दो धातुयें आती हैं, जिनका अर्थ है विशेष पराक्रम करना । 'वीर' धातु से वीर शब्द बनता है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण कर्मों को दूर करे तथा विशेष रूप से भव्य प्राणियों को मोक्ष की तरफ प्रेरित करे, उसे वीर कहते हैं। __अथवा संस्कृत में 'दृ' धातु विदारण (चीरना-नष्ट करना) अर्थ में आती है अतः जो कर्म शत्रुओं का विदारण करे उसे वीर कहते हैं। जैसा कि श्लोक में कहा है -
"जो कर्मों को विदारण करे, तप और वीर्य से युक्त होकर जो विराजित अर्थात शोभित होता है उसे वीर कहते हैं।"
आचाराङ्ग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के जीवन का संक्षिप्त वर्णन है। उसमें उनके अनेक नाम बताये गये हैं। जब महावीर स्वामी का जीव माता त्रिशला के गर्भ में आया तब माता-पिता की धर्म में रुचि अधिक बढ़ी। राज्य में भी सोना चान्दी धन धान्य आदि की भी खूब वृद्धि हुई इसलिये माता-पिता ने उनका नाम 'वर्द्धमान' रखा। दीक्षा लेकर भगवान् ने देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनेक उपसर्ग सहन किये और उनमें अचल, अडोल और अडिग रहे इसलिये देवों ने उनका नाम 'महावीर' रखा। महावीर शब्द का संक्षिप्त शब्द 'वीर' है। जिसकी व्याख्या और व्युत्पत्ति ऊपर लिख दी गई है।
प्रश्न - बन्धन किसे कहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से आत्मप्रदेशों में हल-चल होती है तब जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं। जीव और कर्म का यह मेल ठीक वैसा ही होता है जैसा दूध पानी का या अग्नि और लोहपिण्ड का। इस प्रकार आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त कार्मण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। इसलिये बन्धन तोड़ने का अर्थ है कर्मों को तोड़ना।
कर्म प्रवाह का आत्मा के साथ अनादि का सम्बन्ध है। यह कोई नहीं बता सकता है कि - कर्मों का आत्मा के साथ सर्व प्रथम कब सम्बन्ध हुआ? जीव सदा क्रियाशील है वह सदा मन वचन काया के व्यापारों में प्रवृत्त रहता है। इससे प्रत्येक समय में उसके कर्मबन्ध होता रहता है। इस तरह कर्म सादि हैं। परन्तु यह सादिपना कर्मविशेष की अपेक्षा से हैं। कर्म सन्तति (प्रवाह) तो जीव के साथ अनादिकाल से है पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बन्ध होते रहते हैं। ऐसा होते हुए भी सामान्य रूप से तो कर्म जीव के साथ सदा से लगे हुए ही रहे हैं।
प्रश्न - कर्म जीव के साथ किस कारण से लगते हैं ?
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