Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ VIII) (सार-संक्षेप बिगाड़नेवाला भी अकेला मैं ही हूँ, उसके बिगाड़-सुधार में अन्य कोई की किसीप्रकार की जिम्मेदारी नहीं है। इस ही प्रकार मेरा कोई अभाव करना चाहे अर्थात् नाश करना चाहे, तो जगत् में किसी के भी ऐसी ताकत ही नहीं है, जो मेरा नाश कर दे । मैं किसी की दशा में रहूँ, मेरा द्रव्य ही स्वयं अपनी पर्यायों को बदलते हुए अनादिअनंत काल तक कायम बना रहेगा, उसे कोई उत्पन्न भी करनेवाला नहीं हो सकता तथा नाश करनेवाला भी नहीं हो सकता । ऊपर कहे अनुसार जगत् के सभी द्रव्य निर्बाध गति से स्वतंत्रतया परिणमन करते ही रहते हैं, फिर भी हर समय हर एक द्रव्य में कोई न कोई कार्य तो सम्पन्न होता ही रहता है, अतः हर एक कार्य की सम्पन्नता के समय पाँच हेतुओं का समवायीकरण भी सहज रूप से होता ही रहता है। उन पाँच हेतुओं में एक निमित्त नाम का हेतु भी है, जो कार्य की सम्पन्नता के समय उपादान के कार्यरूप होनेवाले द्रव्य जिसको उपादान कहते हैं; से अतिरिक्त अन्य ही होता है। उस निमित्त रूप अन्य द्रव्य ने उस कार्य की सम्पन्नता में किंचित् भी सहयोग नहीं किया, फिर भी उसको उस कार्य में कारण संज्ञा, इसलिये मिलती है क्यों कि जगत् के अनन्तानंत द्रव्यों में से उपादानरूप द्रव्य के कार्यरूप परिणमन के समय उस कार्य के होने में उस द्रव्य में ही अनुकूल होने की योग्यता है, इसलिये मात्र उस द्रव्य की उससमय की पर्याय को ही उस कार्य का उससमय के लिये निमित्त कहा जाता है। इस ही का नाम निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। कर्ताकर्म संबंध तो द्रव्य का अपनी पर्याय के अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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