Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ (सार-संक्षेप अपने गुणदोष को अकेला अपने आपको उत्पादक मानने की श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा अपने दोषों का कर्ता अन्य को मानने की झूठी आदत का नाश होकर उन अपराधों के अभाव करने का उग्र पुरुषार्थ जाग्रत होता है। जिस पुरुषार्थ की हमारी आत्मा में पवित्रता के उत्पादन के लिये अत्यन्त-अत्यन्त आवश्यकता है । इसप्रकार की श्रद्धा से अनन्त द्रव्यों में भेदज्ञान उत्पन्न होकर अपने कल्याण के लिये अन्य सब पर पदार्थों से दृष्टि हट कर मात्र अकेले अपने आत्मा पर ही केन्द्रित हो जाती है। । उक्त पुस्तक में ही "वत्थु-सहावो धम्मो" सूत्र की व्याख्या के माध्यम से यह विषय भी स्पष्ट किया गया है कि जगत् के छह द्रव्यों का परिणमन उन-उन द्रव्यों के स्वभाव (गुणों) के अनुकूल ही होता रहे यही हर एक वस्तु का अपना-अपना धर्म है। इस सिद्धान्त के अनुसार खोज करने पर जगत के पाँच द्रव्य तो अचेतन ही हैं, वे न तो अपना ही अस्तित्व, स्वभाव आदि जानते हैं और न किसी अन्य को ही जानते हैं, इसकारण वे तो सब ही अचेतनरूप, अपने स्वभावरूप ही परिणमन करते रहते हैं, कोई भूल होने का प्रश्न ही संभव नहीं हो सकता। लेकिन उन सब में एक मात्र जीव ही अपने ज्ञान (चेतनशक्ति) के द्वारा अपना तथा अन्य का अस्तित्व तथा अपने स्वभाव अथवा विभाव को जान सकता है। अतः भूल भी वही करता है तथा भूल का अभाव भी वह ही अपने में कर सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्त स्वीकार हो जाने पर जीव द्रव्य के स्वभाव एवं विभाव का ज्ञान भी प्रथम पुस्तक के माध्यम से किया गया है। आत्मा का स्वभाव तो मात्र जानना ही है, राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादि आत्मा के स्वभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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