Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 55
________________ 37) सुखी होने का उपाय गुणग्रहण करके उसकी प्रशंसा करते हैं। इस छल से औरों को लौकिक कार्यों के अर्थ धर्मसाधन करना युक्त नहीं है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।" करणानुयोग- पृष्ठ २७५ "जीव पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सम्बन्धादिक द्वारा अनेक द्रव्य से उत्पन्न गति, जाति आदि भेदों को एक जीव के निरूपित करते हैं। इत्यादि व्याख्यान व्यवहारनय की प्रधानता सहित जानना, क्योंकि व्यवहार के बिना विशेष नहीं जान सकता। तथा कहीं निश्चय वर्णन भी पाया जाता है। जैसेजीवादिक द्रव्यों का प्रमाण निरूपण किया, वहाँ भिन्न-भिन्न इतने ही द्रव्य हैं। वह यथासम्भव जान लेना। __"पृष्ठ २७५ "तथा करणानुयोग में जो कथन हैं, वे कितने ही तो छद्मस्थ के प्रत्यक्ष अनुमानादि-गोचर होते है तथा जो न हो उन्हें आज्ञाप्रमाण द्वारा मानना।" __ पृष्ठ २७७ "यहाँ कोई करणानुयोग के अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता, करणानुयोग में तो यथार्थ पदार्थ बतलाने का मुख्य प्रयोजन है, आचरण कराने की मुख्यता नहीं है। "जैसे आप कर्मों के उपशमादि करना चाहें तो कैस होंगे? आप तो तत्त्वादिक का निश्चय करने का उद्यम करे उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं।" चरणानुयोग- मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २७७ "चरणानुर्य में जिसप्रकार जीवों के अपनी बृद्धिगोचर धर्म का आचर हो वैसा उपदेश दिया है, वहाँ धर्म तो निश्चयरूप मोक्षाः है वही है, उसके साधनादिक उपचार से धर्म है। इस व्यवहारनय की प्रधानता से नाना प्रकार उपचार धर्म भेदादिको का इसमें निरूपण किया जाता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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