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सुखी होने का उपाय)
(96 में इसका उपयोग हो, तभी इसके साधकपने की संज्ञा सार्थक होगी अन्यथा अकेला व्यवहार सम्यग्दर्शन आत्मज्ञता प्राप्त नहीं करा सकता।
प्रमाणनयैरधिगमः। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि प्रमाण और नय के द्वारा वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है। हमारा मूल प्रयोजन तो अपने आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान करना है। समस्त द्वादशांग का कथन, वस्तुओं के स्वरूप-ज्ञान द्वारा उनको स्व-पर के विभागीकरण पूर्वक समझाने का है। उन सबका विभागीकरण प्रमाण नयादि के माध्यम से ही होता है।
स्वतत्त्व का स्वरूप समझकर मोक्षमार्ग प्रगट करने के लिए हेय-उपादेय का ज्ञान भी नयज्ञान के द्वारा ही होता है। हेय-उपादेय के ज्ञान द्वारा हेय की उपेक्षा कर, उपादेय में अपने-आपको समर्पित कर देने पर, नयादि के विकल्प भी आत्मोपलब्धि के समय समाप्त होकर आत्मार्थी आत्मदर्शन प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाता है। परीक्षामुख के पंचम परिच्छेद के सूत्र-१ में कहा भी है
___ "अज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम्।"
अर्थः- "प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) का फल अज्ञान-निवृत्ति तथा त्याग, ग्रहण एवं उपेक्षा है।" अतः हमको भी आत्मोपलब्धि के लक्ष्यपूर्वक जिनवाणी के कथन का मर्म समझने के लिए नयज्ञान का उपयोग आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से हमको नयज्ञान के अभिप्राय को मनोयोगपूर्वक अवश्य समझना चाहिये।
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