Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 119
________________ 101) (सुखी होने का उपाय को मुख्य करके जाननेवाले निश्चयनय को ही पूज्यतम कहा है, प्रमाण को नहीं। क्योंकि हमारा प्रयोजन तो मात्र निश्चयनय से सिद्ध होता है, प्रमाण चाहे क्षायिकज्ञान हो, लेकिन उसके द्वारा मेरा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, अतः मेरे लिये तो वह अप्रयोजनभूत है। इसप्रकार अपना प्रयोजन साधने की दृष्टिपूर्वक नयज्ञान समझना आवश्यक है। नयों का प्रयोजन अनंतानंत द्रव्यों एवं पर्यायों में खोई हुई निज आत्मा को, सबके स्वभावों की पहिचान कराकर, उनमें से खोज कर, उसे प्राप्त करा देने का मार्ग बताना ही समस्त जिनागम का उद्देश्य है। उसकी पूर्ति का माध्यम नयज्ञान है। इसलिये नयज्ञान का तात्पर्य भी आत्मा को प्राप्त कराना अर्थात् अध्यात्म ही है। बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ५७ की टीका में अध्यात्म का अर्थ किया है "अध्यात्मशब्दस्यार्थः कथ्यते:- मिथ्यात्वरागा दिसमस्तविकल्पजालरूपपरिहारेण स्वशुद्धात्मन्यधि यदनुष्ठानं तदध्यात्ममिति " अर्थ- "अध्यात्म" शब्द का अर्थ कहते हैं- मिथ्यात्व, राग आदि समस्त विकल्पजाल के त्याग से स्वशुद्धात्मा में जो अनष्ठान होता है. उसे अध्यात्म कहते हैं। नयों के संबंध में भी यही दृष्टिकोण आलापपद्धति गाथा ३ में सिद्ध होता है "णिच्छयववहारणया मूलिमभेया णयाण सव्वाणं। णिच्छयसाहणहेऊ पज्जयदव्वत्थियं मुणह॥" अर्थ- सर्व नयों के मूल निश्चय और व्यवहार - ये दो नय है। द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक ये दोनों निश्चय-व्यवहार के हेतु हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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