________________
(86
सुखी होने का उपाय) श्रद्धाप्रधानता एवं ज्ञानप्रधानता से सात तत्त्वों
. की समझ उपरोक्त सात तत्त्वों को श्रद्धा की प्रधानता एवं ज्ञान की प्रधानता से अलग-अलग करके समझना चाहिए। श्रद्धा प्रधानता अर्थात् अपनापन-अहम्पना स्थापन करने की मुख्यता से समझना। ज्ञानप्रधान अर्थात् जानने की मुख्यता से समझना।
श्रद्धाप्रधानता में तो द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत परमपारिणामिक त्रिकाली ज्ञायक भाव एकरूप रहनेवाला भाव, जिसको ऊपर जीवतत्त्व, स्वज्ञेयतत्त्व आदि नामों से कहा गया है; वह एक ही मात्र स्वपना स्थापन करने योग्य अर्थात स्वमानने योग्य है। वह ही श्रद्धा का श्रद्धेय एवम अहम्रूप अनुभव में आनेवाला स्वतत्त्व है। मेरे स्वयं के अंदर ही उत्पन्न होनेवाली मेरी स्वयं की विकारी निर्विकारी पर्यायें हैं वे सभी मेरे स्वजीवतत्त्व की अपेक्षा परतत्त्व है। इस परतत्त्व में आस्रव एवं बंधतत्त्व के नाम से सभी विकारी पर्यायों का एवं संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्व के नाम से सभी निर्विकारी पर्यायों का समावेश हो जाता है। अजीवतत्त्व एवं मेरे अतिरिक्त सभी जीवमात्र तो प्रत्यक्ष पर है ही। इसप्रकार अहम्पना स्थापन करने की अपेक्षा मात्र एक परमपारिणामिकभावरूप ज्ञायकभाव ही श्रद्धा की प्रधानता से जीवतत्त्व है। वह मैं स्वयं हैं। एवम् मेरे अतिरिक्त जीवतत्त्व, अजीवतत्त्व, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्षतत्त्व सभी पर हैं अर्थात मेरे में उनका अस्तित्त्व ही नहीं है।
उपरोक्त सात तत्त्वों में से श्रद्धा की प्रधानता से बताया गया जीवतत्त्व तो सर्वोत्कृष्ट ज्ञेय होने से आश्रय करने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org