Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 105
________________ 87) (सुखी होने का उपाय योग्य तथा अपेक्षा करने योग्य है ही साथ ही ज्ञान प्रधानता में भी परम उपादेय तथा स्वज्ञेय भी है। बाकी रहे समस्त ज्ञेय मात्र परज्ञेय एवं उपेक्षणीय ही हैं। आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष, इन पाचों में से, आस्रव एव बंधतत्त्व तो हेय ही हैं। इनको तो सभी छोड़ने योग्य मानते हैं। संवर एवं निर्जरा दोनों उपादेय तत्त्व है, जिनका प्रारंभ सम्यदर्शन प्राप्ति के साथ ही हो पाता है। मोक्षतत्त्व तो परम उपादेय अर्थात् प्राप्तव्य तत्त्व है। इसप्रकार जीवतत्त्व तो श्रद्धेय भी है, स्वज्ञेय भी है एवम् परम उपादेय भी है। तथा अजीव एवं अन्य सभी जीवद्रव्य तो मात्र ज्ञेय ही हैं। आस्रव-बंध तत्त्व हेय हैं तथा संवर निर्जरा उपादेय तत्त्व हैं और मोक्षतत्त्व तो परम उपादेय है। परीक्षामुख के पंचम परिच्छेद के सूत्र-१ में निम्नप्रकार कहा है किः "अज्ञाननिवृत्तिहानोपादानोपेक्षाश्च फलम्" अर्थ :- प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) का फल अज्ञाननिवृत्ति तथा त्याग, ग्रहण एवं उपेक्षा है। डॉ. हुकमचंद भारिल्ल ने . परमभावप्रकाशक नयचक्र पृ. २११ पर इसके स्पष्टीकरण में लिखा है कि - "यहाँ पर सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाण का फल तत्संबंधी अज्ञान के नाश के साथ जानी हुई हेय, उपादेय एवं ज्ञेय वस्तु के सन्दर्भ में क्रमशः त्याग, ग्रहण एवं उपेक्षा (माध्यस्थभाव, उदासीनभाव) बताया गया है। उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि हेयतत्त्व से छोड़ने योग्य अर्थात् अभाव करने योग्य एवं उपादेय तत्त्वों को ग्रहण करने अर्थात् प्राप्त करने योग्य मानना चाहिये। अन्य जीव एवं अजीव ज्ञेय तत्त्वों को उपेक्षणीय स्वीकार कर, उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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