Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 103
________________ 85) (सुखी होने का उपाय आत्मा विकारी भाव नहीं करता तब सहज ही कर्मों को आने का रूक जाने को संवर तत्त्व कहा गया है। अगर गंभीरता से गहरे चिंतन से विचार करे तो बहुत सीधी बात लगेगी कि कर्मों के आने में मूलकारण तो आत्मा की भूल ही थी। अतः आत्मा को कर्मों का आना रोकने के लिये अपनी भूल को छोड़ देना चाहिये, ताकि उसको आत्मानंद का शीघ्र ही लाभ प्राप्त हो सके। इसप्रकार दोनों प्रकार की परिभाषाओं के द्वारा एक ही प्रयोजन सिद्ध कराया गया है। इस विषय का स्पष्ट ज्ञान कराने के लिये जिनवाणी में इन तत्त्वों को द्रव्य व भाव के भेद से स्पष्ट किया हैद्रव्यास्रव तथा भावास्रव, द्रव्यसंवर तथा भावसंवर आदि भेदों के माध्यम से दोनों परिभाषाओं के विषय को समझाया गया है। आत्मा के भावों में अर्थात् पर्याय में होनेवाले विकारी, निर्विकारी दशा का ज्ञान भाव के नाम से कहा गया है। जैसे भाव आस्रव, भावबंध, भावसंवर, भावनिर्जरा एवं भावमोक्ष इसीप्रकार इन भावों का निमित्त पाकर द्रव्यकर्मों का आत्मा के साथ संबंध करने के लिये आना, बंधना एवं आना रुकना, तथा बंधे हुवें का आंशिक छूटना तथा सर्वथा छूटना, इनको द्रव्य आस्रव, द्रव्यबंध, द्रव्यसंवर, द्रव्यनिर्जरा, द्रव्यमोक्ष के रूप में कहा गया है। इनमें से भावतत्त्व जीवद्रव्य में होते हैं और द्रव्य तत्त्व अजीव द्रव्य में होते है। भावकर्म की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म का तथा द्रव्यकर्म के बंध में भावकर्म का निमित्तपना कैसे है इस पर चर्चा आगे करेंगे। आगम में आत्मा के भावों को "भावकर्म" एवं कर्मपुद्गलों के परिणमन को द्रव्यकर्म के नाम से समझाया गया है। इसलिये आगे हम भी इनको उपरोक्त "भावकर्म" एवं "द्रव्यकर्म" के नाम से ही समझायेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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