Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 108
________________ सुखी होने का उपाय) (90 समस्त आचरण का स्वाभाविकरूप से पालन होने लगता है। इस ही का उपदेश की भाषा में चरणानुयोग में "आचरण करना चाहिये" इस भाषा में कथन किया गया है। इस आचरण को जिनवाणी में व्यवहारचारित्र के नाम से भी संबोधित किया है। इसी स्थिति को निश्चय चारित्र व व्यवहार चारित्र का सुमेल कहा गया है। यही सच्चा स्वाभाविक मोक्षमार्ग है और इसी को प्रवचनसार में दोनों की मैत्री भी कहा गया है। निश्चयसम्यग्दर्शन के साथ देव- शास्त्र - गुरु की श्रद्धा, अनिवार्य कैसे? प्रश्न होता है कि देव-शास्त्र-गुरु तो परद्रव्य है, वे तो मात्र परलक्षी ज्ञान के ही विषय बनते हैं। अतः उनकी ओर लक्ष्य करने से तो आत्मलक्ष्य छूट जाता है और राग की उत्पत्ति होती है। अतः इनकी अनिवार्यता कैसे बनती है? उत्तर निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होने के साथ-साथ ही, ज्ञान स्वलक्षी होकर आत्मदर्शन कर लेता है। तत्समय ही श्रद्धा ने उसमें ही "मैंपना" स्थापन कर लिया। लेकिन छद्मस्थ का ज्ञान तो अकेले स्वलक्ष्य में ज्यादा काल ठहरता नहीं और परलक्षी हुये बिना रहता नहीं। फिर भी श्रद्धा ने तो एक बार जिसको स्व के रूप में वरण कर लिया, वरमाला डाल दी, वह फिर उसको छोड़ती नहीं । अतः निश्चय सम्यग्दर्शन बने रहते हुये भी ज्ञान पर- लक्षी होकर कार्य करने लग जावे तो भी श्रद्धा की "मैं पने" की स्वीकारता का कार्यरूप परिणमन, तो परलक्षी ज्ञान के समय भी वर्तता ही रहता है। फलतः वह परलक्षी ज्ञान के : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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