Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 96
________________ (78 सुखी होने का उपाय) मान्यता को सम्यग्दर्शन, सम्यग् श्रद्धा आदि अनेक नामों से जिनवाणी में सम्बोधित किया गया है। सारांश यह है कि उपरोक्त समस्त कथन श्रद्धाप्रधान है, मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ट ८० पर कहा भी है कि - "यहाँ वर्णन तो श्रद्धान का करना है, परन्तु जानेगा तो श्रद्धान करेगा, इसलिए जानने की मुख्यता से वर्णन करते हैं' " सम्यक् श्रद्धा के साथ, सम्यक् चारित्र का अविनाभावी संबंध यथार्थ श्रद्धा हो जाने पर आचरण भी तदनुसार हुए बिना रह ही नहीं सकता। जैसे हमने हमारे किसी परिचित व्यक्ति को अभी तक हमारा परम मित्र मान रखा था, लेकिन यथार्थ में वह मित्र नहीं वरन् शत्रु का मित्र था । उसके कारण उत्पन्न की गई अनेक-अनेक विपत्तियों को मैं हमेशा सहन करता चला आ रहा था। अवसर पाकर मेरे परम हितैषी व्यक्ति ने अनेक प्रकार के उपाय करके मेरे को इस समस्त षडयंत्र का भंडाफोड़ कर दिया। तथा मेरे को सिद्ध करके बता दिया कि यह व्यक्ति तेरा मित्र नहीं, तेरे शत्रु का मित्र है। उसके कारण ही तेरे को अनेक-अनेक विपत्तियाँ सहन करनी पड़ रही है। उसके उपदेश से जब मेरे को यह विश्वास जम जावे - श्रद्धा में बैठ जावे कि सचमुच यह व्यक्ति मेरा मित्र नहीं है, वरन शत्रु ही है। ऐसा विश्वास जम जाने के बाद उस व्यक्ति के साथ संबंध तोड़ने के लिए क्या मुझे किसी से शिक्षा लेनी पड़ेगी? वरन् उस व्यक्ति के साथ जो भी मेरा व्यवहार होगा। वह उसके साथ संबंध तोड़ने का व्यवहार ही होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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