Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 81
________________ 63) स्वज्ञेयतत्त्व में भी अनेकता दीखती है, "मैं अपनापना किसमें मानूं?" (सुखी होने का उपाय जगत के अनंतानंत ज्ञेय द्रव्यों में से परज्ञेयों के साथ संबंध तोड़कर एकमात्र स्वज्ञेय अर्थात् निज द्रव्य को ही "स्व" अर्थात् "मैं" के रूप में स्वीकार कर लेने पर ऐसी श्रद्धा जाग्रत हो जाती है कि एकमात्र स्वज्ञेयतत्त्व ही अनुसंधान करने योग्य है। सामान्य परज्ञेय तत्त्व मेरे ज्ञान के विषय जरूर बनेंगे, लेकिन वे सब मात्र उपेक्षा योग्य ही हैं। परज्ञेयों को स्व मानकर उनके अनुसंधान में ही अभी तक अनंत भव नष्ट कर चुका हूँ, अब तो मात्र अपने आत्मा को ही मेरा स्व मानकर उस ही के ज्ञान श्रद्धान आचरण में ही यह जीवन लगे ऐसी श्रद्धा जागृत होती है, ऐसी श्रद्धा जाग्रत हो जाने पर, मैंपना स्थापन करने के लिये जब अपने आत्मा के अनुसंधान करने का प्रयास करता है, तो वहाँ अनेक प्रकार की अनेकताओं के दर्शन होते हैं। यथा अज्ञानी जीव को एक ओर रागादि विकारी भाव, दूसरी ओर शांत भाव। एक ओर आकुलतारूप दुःख भाव, एक ओर मंद आकुलता रूप कल्पित सुखभाव एक ओर जाननरूप क्रिया, एक ओर क्रोधादि क्रिया आदि-आदि रूप अनेक प्रकार के परिवर्तन करता हुआ ही आत्मा, ज्ञान की पकड़ में आता है। थोडे अभ्यासी जीव को भी द्रव्य, गुण, पर्याय रूप से उत्पाद, व्यय, ध्रुव रूप से; द्रव्य स्वभाव एवं पर्याय स्वभाव रूप से आत्मा में अनेकता ही अनुभव में आती है, अतः समस्या खड़ी होती है कि इन सब में "मैं" कौन हूँ? Jain Education International For Private & Personal Use Only GOVER www.jainelibrary.org

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