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(सुखी होने का उपाय पर अथवा अस्वस्थता होने पर, उसको अन्य द्रव्य के कार्य मानने के कारण, वे भी गौण होकर, अपना आत्म-अनुसंधान मुख्य होने से वह उससे नहीं हटता। यही कारण है कि आत्मार्थी का बाह्य-जीवन भी स्वतः पवित्र हो जाता है। लौकिक प्रतिष्ठा के कार्यों में, धर्म व समाज के नाम पर अपना समय फँसा देने के कार्यों के प्रति, मान-बड़ाई प्राप्त करने के कार्यों के प्रति सहज ही दूर रहने की उसकी मनोवृत्ति बन जाती है। कभी विषय-भोगों आदि की वृत्ति खड़ी हो जाने पर भी, अथवा कोई प्रसंग को लेकर कषाय उत्पन्न हो जाने पर भी उनके प्रति अंतरंग रुचि का अभाव होने से उनमें ज्यादा नहीं उलझता एवं शीघ्र ही तत्संबंधी विकल्पों का अभाव करके, अपने आत्म-अनुसंधान के कार्यों को मुख्य करके, उस कार्य में संलग्न रहने की ही रुचि रखता है। इन सभी कारणों से उसका अन्तरंग एवं बहिरंग जीवन एक आदर्श जीवन बन जाता है। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक ग्रंथ में लिखा है
आत्मध्यानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेविरं। कुर्यात् दर्थवशात् किंचित् वाकायाभ्यामतत्परः
अर्थ :- आत्मध्यान को छोड़कर अन्य कार्य को बुद्धि में अधिक समय तक धारण नहीं करना चाहिए। प्रयोजनवश अन्य कार्य करना भी पड़े तो वचन तथा शरीर द्वारा करे, मन को न लगावे।
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