Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 74
________________ सुखी होने का उपाय) (56 निष्कर्ष यह है कि जगत् के समस्त ज्ञेयपदार्थों को स्व और पर के विभागीकरणपूर्वक समझना मात्र ही नहीं है, वरन् स्वज्ञेय को आत्मबुद्धि सहित स्व के रूप में समझना है और मानना है तथा परज्ञेयों के प्रति अनादिकाल से आत्मबुद्धि चली आ रही है, उसके अभावपूर्वक परज्ञेयों के प्रति परत्वबुद्धि सहित पर के रूप में ही, समझना और मानना है। प्रवचनसार गाथा १८३ के शीर्षक में कहा है कि "अब यह निश्चय करते हैं कि-जीव को स्व द्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का ज्ञान है, और परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का अज्ञान है।" जानना व मानना एकसाथ कैसे हो सकता है? जानना तो ज्ञानगुण की पर्याय है तथा मानना श्रद्धा गुण की पर्याय है, द्रव्य तो अनंत गुणों का पिंड एक है, अतः आत्मद्रव्य के हर एक समय के परिणमन अर्थात् उत्पाद में अनंत गुणों का उत्पाद एकसाथ ही होता है, अतः ज्ञानगुण के साथ श्रद्धागुण का भी तत्समय ही उत्पाद होने से जानना व मानना एकसाथ होना ही चाहिए, तथा ऐसा ही हमारे अनुभव में भी आता है। जैसे किसी मित्र को जानने के साथ ही यह मेरा हित चिन्तक है ऐसी मान्यता तत्समय ही वर्तती हुई अनुभव में आती है, उसीप्रकार स्वज्ञेय के जानने के साथ-साथ ही उसमें स्वपने की मान्यता सहित जानना, तथा परज्ञेय के ज्ञान के समय साथ-साथ ही उसमें परपने की मान्यता सहित जानना ही यथार्थ जानना है। आत्महित के लिए इसप्रकार जानना ही कार्यकारी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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