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सुखी होने का उपाय)
(6 जीव अपनी उस ज्ञान की प्रगटता का उपयोग तत्त्व (आत्मा) के निर्णय करने में लगावे, उस ही जीव की, उस ज्ञान की प्रगटता की प्राप्ति को क्षयोपशमलब्धि कहते हैं। अगर उस ज्ञान की प्रगटता का उपयोग वह जीव तत्त्वनिर्णय में नहीं करे और संसार का प्रयोजन साधने में अथवा अन्य किसी भी कार्य में करे तो उस जीव के उस ज्ञान के क्षयोपशम को क्षयोपशमलब्धि नहीं कहते।
२. विशुद्धिलब्धि यह तो सबको भले प्रकार से अनुभव है कि आत्मा का धर्म समझने (तत्त्वनिर्णय) में उपयोग उसीसमय लगता है, जब इस जीव को संसार, देह तथा भोगों के प्रति आसक्ति (गद्धता) कम होती है। कषाय की उग्रता तथा भोगों में लिप्त प्राणी को धर्म के प्रति विचार भी नहीं आता। अतः इसप्रकार की कषाय की मंदता रूप भाव हो और इसका उपयोग तत्त्वनिर्णय में लगे - ऐसे भावों की प्राप्ति को विशुद्धिलब्धि कहते हैं।
विशुद्धिलब्धि युक्त प्राणी विचार करता है कि मेरे इस वर्तमान जीवन का अंत तो निश्चत रूप से होने ही वाला है, फिर मैं कहाँ जाऊँगा ? जहाँ जाकर जन्म लेना होगा वहाँ कैसे संयोग मिलेंगे ? इस जन्म-मरण का अभाव कैसे करूँ ? आदि-आदि बातों के द्वारा अपने आत्मा के संबध में कुछ करने का भाव जाग्रत हुआ हो। ऐसे भी विचार आवें कि इस लोक में अनन्त जीव हैं, उनमें सैनी पंचेन्द्रिय अति अल्प है। उनमें भी मनुष्य कितने से, और मनुष्यों में भी जैन कितने से, उनमें भी जिन्होंने अपने ज्ञान की प्रगटता को आत्मा को समझने में लगाया हो, ऐसे जीव कितने अल्प हैं। उन दुर्लभ अति अल्प जीवों में से
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