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सुखी होने का उपाय)
उपर्युक्त सारे कथन का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि आत्मार्थी जीव को सांसारिक कार्यों में भटकती बुद्धि को समेट कर अपने आत्मा को समझने के लिये आगमाभ्यास में लगाना चाहिये तथा आगमाभ्यास में भी उपर्युक्त कथन के अनुसार आगम के अन्य विषयों को गौण कर प्रयोजनभूत विषय के समझने में ही बुद्धि को पूर्णरूप से समर्पित कर देना चाहिये। .
अतः यहां सहज ही जिज्ञासा जाग्रत होती है कि चारों अनुयोगों की कथन-पद्धति क्या है? उसका खुलासा इस प्रकार है
चारों अनुयोग एवं उनका प्रयोजन समस्त जिनशासन चार अनुयोगों में विभक्त है- (१) प्रथमानुयोग, (२) चरणानुयोग, (३) करणानुयोग, (४) द्रव्यानुयोग। हर एक अनुयोग की कथन पद्धति एवं अभिप्राय क्या है? इस सम्बन्ध में पं. टोडरमल जी साहब ने मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के आठवें अध्याय में विस्तार से वर्णन किया है। अभ्यासी को उस अध्याय का अवश्यमेव अध्ययन करना चाहिये। इसी अध्याय के कतिपय अंश यहाँ उद्धृत किये जा रहे हैं। यह प्रकरण पृष्ठ २६८ से प्रारम्भ होकर पृष्ठ ३०४ पर समाप्त होता है।
प्रयोजन (१) पृष्ठ २६८ "प्रथमानुयोग में तो संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति इत्यादि निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया है, जो जीव तुच्छबुद्धि हों वे भी उससे धर्म सन्मुख होते हैं।"
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