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सुखी होने का उपाय)
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जानना, व निर्देश - स्वामित्वादि से और सत् - संख्यादि से इनके विशेष जानना । "
उपर्युक्त विषय पर गंभीरता से विचार करें तो सारा द्वादशांग समस्त जिनवाणी उपर्युक्त तीन भागों में आसानी से बांटी जा सकती है। अगर विचार करें तो समस्त जिनवाणी में, ऊपर कहे गये तत्त्वों में से आत्मा के निर्णय करने के लिए तो अपने अस्तित्त्व के साथ-साथ प्रयोजनभूत तत्त्व तो एकमात्र हेय उपादेय विषय ही है, बाकी सभी कुछ मात्रज्ञेय तत्त्व में ही गर्भित है। इसलिये उपर्युक्त कथन के अनुसार हमको तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये, अभ्यास करने के लिये समझने के लिये, निर्णय करने के लिए समस्त द्वादशांग में से मात्र स्व अस्तित्व के साथ-साथ मात्र हेय उपादेय तत्त्व ही प्रयोजनभूत रह जाते हैं।
ज्ञेयतत्त्वों के संबंध में भी पंडितजी पृष्ठ २५९ में विशेष खुलासा करते है
" तथा जो ज्ञेयतत्त्व हैं, उनकी परीक्षा हो सके तो परीक्षा करें; नहीं हो सके तो यह अनुमान करें कि जो हैंय उपादेय तत्त्व ही अन्यथा नहीं कहे, तो ज्ञेयतत्त्वों को अन्यथा किस लिये कहेंगे?- इसलिये ज्ञेयतत्त्वों का स्वरूप परीक्षा द्वारा भी अथवा आज्ञा से जाने, यदि उनका यथार्थ भाव भासित न हो तो भी दोष
नहीं है।
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स्पष्ट करते है कि
आगे पृष्ठ २६० पर और भी जैसे बुद्धि हो - जैसा निमित्त बने, उसीप्रकार इनको सामान्य- विशेष रूप से पहिचानना तथा इस जानने में उपकारी गुणस्थान मार्गणादिक व पुराणादिक व व्रतादिक क्रियादिक का भी जानना योग्य है। यहाँ जिसकी परीक्षा हो
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