Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 48
________________ सुखी होने का उपाय) (30 उस प्रयोजन की सिद्धि हो, वही अपना इष्ट है। सो हमारे तो इस अवसर में वीतराग-विज्ञान का होना वही प्रयोजन है।" इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भी पंचास्तिकायसंग्रह की गाथा १७२ की टीका में कहा है कि " विस्तार से बस हो! जयवंत वर्तो वीतरागता, जो कि साक्षात् मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्रतात्पर्यभूत इसप्रकार आत्मार्थी जीव उपर्युक्त एकमात्र वीतरागता की सिद्धि को ही अपना प्रयोजन मानकर समस्त शास्त्रों के अध्ययन में अथवा सुनने में - विचारने में इस ही एक उद्देश्य को मुख्य रखकर धारण करता है एवं विचार करता है। . मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५७ पर समस्त द्वादशाग मे भी हमको प्रयोजनभूत विषय क्या है? इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार किया है कि - ___ "वहाँ अपने प्रयोजनभूत (१) मोक्षमार्ग के, (२) देव-गुरु-धर्मादिक के (३) जीवादि तत्त्वों के, तथा (४) निज-पर के और (५) अपने को अहितकारी-हितकारी भावों के इत्यादि के उपदेश से सावधान होकर ऐसा विचार किया।" आदि-आदि इस प्रकार पंडितजी साहब ने हमारी गंभीर समस्या का समाधान कितने सुन्दररूप से प्रस्तुत किया है कि सारे द्वादशांग का पठन कर, श्रवण कर, अध्ययन कर; लेकिन उन सबमें से तुझे अपने प्रयोजन की सिद्धि अर्थात् सुखी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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