Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ (16 सुखी होने का उपाय) समाधान :- उपरोक्त कथन आत्मार्थी को पुरुषार्थहीन बनाने के लिये नहीं है, बल्कि यथार्थ मार्ग की प्राप्ति के लिये यथार्थ स्त्रोत दूढ़ने के संबंध में जाग्रत करने के लिये है। जिनवाणी के हर एक कथन का अभिप्राय पराधीनता के अभावात्मक स्वाधीनतापूर्वक पुरुषार्थ प्रेरक होता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २३२ में कहा भी है कि "उपदेश तो ऊपर चढ़ने को दिया जाता है, तू उल्टा नीचा गिरेगा तो हम क्या करेंगे .... आदि।" उपरोक्त कथन तो प्रत्यक्ष की अपेक्षा किया गया है एवं ज्ञानी पुरुष ने अनेक प्रकार से परीक्षा करके जो मार्ग प्राप्त किया है, वह हमको सहज ही परीक्षा आदि के श्रम के बिना प्राप्त हो जाता है। लेकिन ज्ञानी के अभाव में ज्ञानी पुरुषों के माध्यम से आई हुई वर्तमान में उपलब्ध द्रव्यश्रृत (जिनवाणी, आगम) हमको उपलब्ध है, वह भी हमको मार्ग प्राप्त कराने का परम कल्याणकारी परोक्ष रूप से कारण है। प्रवचनसार ग्रन्थ की गाथा 1 में तो इस ही विषय की समीक्षा करते हुये आगम को नित्यबोधक कहकर उसके उपकार की महिमा एवं आगम की उपादेयता बताई गई है। ___ अतः आत्मार्थी का कर्तव्य है कि ज्ञानी के समागम के अभाव में उतनी ही महिमापूर्वक एवं उग्र पुरुषार्थपूर्वक जिनवाणी के माध्यम से यथार्थमार्ग प्राप्त करने का पूर्ण पुरुषार्थ करे। प्रवचनसार ग्रन्थ में तो गाथा ८६ में आगम-अभ्यास को मोह (मिथ्यात्व) के क्षय का कारण कहा है। यथा - जिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदव्वं ॥ अर्थः- जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जाननेवाले के नियम से मोहोपचय - क्षय हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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