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सुखी होने का उपाय)
(12 अकर्ता ज्ञायकभाव में अहंपना स्थापन कर ज्ञेयों के प्रति परपना स्थापना हो जाने के कारण श्रद्धा में पर के प्रति अकर्ताभाव एवं उपेक्षाभाव जाग्रत हो जाता है। वही ज्ञान स्वलक्षी होकर पूर्व अवस्था के परलक्षी ज्ञान द्वारा प्राप्त निर्णय का प्रयोग आत्मा में होने लगता है और वही स्वलक्षी ज्ञान बढ़ते-बढ़ते करणलब्धि को पारकर सम्यग्यदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
तात्पर्यः- यह है कि प्रायोग्य एवं करणलब्धि का पुरुषार्थ मात्र स्वलक्षी ज्ञान की तारतम्यता ही है।
इसप्रकार पाँचों लब्धियों का संक्षेप से स्वरूप समझा, इसको समझकर आत्मार्थी जीव यथायोग्य पुरुषार्थ प्रगट करें, यही भावना है।
तत्त्वनिर्णय देशना (उपदेश) कहाँ से प्राप्त हो आत्मार्थी जीव जब धर्म समझने के लिये उद्यत होता है, तो सर्वप्रथम उसके सामने प्रश्न उपस्थित होता है। कि यथार्थ-मार्ग कहाँ से प्राप्त किया जावे ?
उक्त प्रश्न का समाधान बहुत सीधा और सरल है - जिसको उस मार्ग का सच्चा ज्ञान हो उस ही से सच्चा-मार्ग मिलेगा। जैसे - लौकिक में भी हमारे अनुभव में है कि अगर हम रास्ते में चलते हुए भूल गए हों तो यथार्थ मार्ग एवं उस मार्ग की स्थिति, दूरी आदि जानने के लिये हम ऐसे व्यक्ति से सम्पर्क करेंगे, जिसको गंतव्य स्थान के मार्ग का यथार्थ ज्ञान हो, अथवा गमन किया हो, वह ही पूरी बातों की जानकारी दे सकेगा और उन
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